अविश्वास, गुप्त मददगार फिर सार्वजनिक दोस्ती का इजहार, ऐसा रहा भारत-इजरायल के रिश्तों का सफर
एजेंसी। ये 1918 की बात है। सितंबर का महीना प्रथम विश्व युद्ध का दौर। वर्तमान के इजरायल का प्रमुख शहर और बंदरगाह जिसकी मुक्ति के बिना इजरायल की आजादी संभव नहीं थी। इजरायल पर आॅटोमन साम्राज्य (तुर्की) का कब्जा था। हायफा एक रणनीतिक बंदरगाह शहर था जिसको जीतना अंग्रेजों के लिए असंभव सा था। अंग्रेजों ने जब हथियार डाल दिए तो फिर बारी आई भारतीय सैनिको की जिन्होंने इजरायल के शहर को बचाने में अहम भूमिका निभाई। भारतीय फौज की तीन घुड़सवार टुकड़ियों ने कमान संभाली जिनमें शामिल थे जोधपुर लांसर्स, मैसूर लांसर्स और हैदराबाद लांसर्स। इनका नेतृत्व जोधपुर लांसर्स के मेजर दलपत सिंह ने किया। युद्ध के दौरान हुई इस जंग-ए-आजादी में 900 से अधिक भारतीय सैनिक शहीद हुए थे। 23 सितंबर 1918 को भारत के वीरों ने एक फौजी ताकत को घुटने टेकने पर मजबूर कर दिया। दिल्ली का तीन मूर्ति चौक इन्हीं वीर सपूतों की याद में बनवाया गया है। साल 2010 में इजरायल में तीन मूर्ति के वीरों का सम्मान किया गया। तब से वहां हर साल 23 सितंबर को तीन मूर्ति के वीरों को याद किया जाता है। अगर इतिहास पर हम नजर डालें तो पता चलेगा कि भारत और इजरायल एक-दूसरे का आजमाया हुआ साथी है। लेकिन अपने कारणों से दोनों की दोस्ती को वह स्थान मिल नहीं पाया। आज के इस विश्लेषण में हम भारत और इजरायल के संबंधों के इतिहास से लेकर वर्तमान तक की कहानी का एमआरआई स्कैन करेंगे।
जैसे 32 दांतो के बीच जीभ रहती है वैसे ही अरब राष्ट्रों के बीच इजरायल है। वह दुनिया का एक अकेला ऐसा देश है जो बहुत ही छोटा होने व इतने आक्रामक पड़ोसियों से घिरा होने के बावजूद अपनी शर्तों पर जी रहा है। प्रगति कर रहा है और रक्षा क्षेत्र में अमेरिका की बराबरी कर रहा है। जिस समय भारत आजाद हुआ तकरीबन उसी समय इजरायल अस्तित्व में आया। इसके बाद से ही दोनों मुल्कों के रिश्ते उतार-चढ़ाव वाले रहे। लेकिन हाल के वर्षों में इजरायल और भारत दोस्ती की नई इबारत लिख रहे हैं। दोनों के रिश्ते लगातार मजबूत होते जा रहे हैं।
दोनों मुल्कों के बीच कैसा रहा है रिश्तों का सफर: आजादी के बाद भारत की शुरूआती विदेश नीति का झुकाव अरब देशों की ओर रहा। 1947 में भारत ने संयुक्त राष्ट्र में फिलीस्तीन के विभाजन के प्रस्ताव का विरोध किया और इजरायल को मान्यता देने से इनकार कर दिया। लेकिन दुनिया के कई देशों ने इस दौरान इजरायल को मान्यता दी। जिसमें भारत के कई सहयोगी देश भी शामिल थे। इसके बाद 17 सितंबर 1950 को भारत ने भी इजरायल को मान्यता देने का ऐलान किया। यहीं से भारत और इजरायल के बीच संबंधों की औपचारिक शुरूआत हुई। लेकिन दोनों के बीच इसके बाद भी हिचकिचाहट बरकरार रही। भारत और इजरायल को एक-दूसरे के यहां आधिकारिक तौर पर दूतावास खोलने में 42 साल लग गए। 1992 में प्रधानमंत्री पीवी नरसिम्हा राव की सरकार के दौरान दोनों के बीच अहम कूटनीतिक संबंधों की शुरूआत हुई। इजरायल ने मुंबई में अपना वाणिज्य दूतावास खोला। दोनों के रिश्तें इतने घनिष्ठ नहीं थे लेकिन जरूरत के वक्त इजरायल ने भारत की हमेशा मदद की। 1962 में जब भारत ने चीन से 1965 और 1971 में पाकिस्तान के साथ युद्ध लड़ा तो तीनों मौकों पर भारत को इजरायल से मदद मिली। 1962 के भारत चीन युद्ध के वक्त रूस तक ने भारत से दूरी बना ली। उस समय इजरायल ने चीन से निपटने के लिए भारत को हथियार व गोला बारूद प्रदान किया। भारत के प्रधानमंत्री पंडित जवाहर लाल नेहरू ने इजरायल से पत्र लिखकर मदद मांगी। उस वक्त इजरायल के प्रधानमंत्री बेन गुरियन ने हथियारों से भरे जहाज को भारत रवाना कर पत्र का उत्तर दिया।
1965 और 1971 के भारत-पाकिस्तान युद्ध के वक्त इजरायल भारत को लगातार गुप्त जानकारियां देकर मदद करता रहा। कहा तो यह भी जाता है कि जब भारतीय खुफिया अधिकारी साइप्रस या तुर्की के रास्ते इजरायल जाते थे, उस वक्त उनके पासपोर्ट पर मुहर तक नहीं लगती थी। उन्हें मात्र एक कागज की पर्ची दी जाती थी। जो उनके इजरायल यात्रा का सुबूत होता था। 1968 में जब भारतीय खुफिया एजेंसी रॉ का गठन रामनाथ काव के नेतृत्व में हुआ तो उन्होंने इंदिरा गांधी से कहा कि हमें इजरालय के साथ अपने संबंध बेहतर बनाने चाहिए व वहां की खुफिया एजेंसी मोसाद की मदद लेनी चाहिए। इंदिरा गांधी इसके लिए राजी हो गईं। जिसका लाभ बंग्लादेश मुक्ति संग्राम के वक्त भारत को प्राप्त हुआ।
जब देश में आपातकाल के बाद इंदिरा विरोधी लहर में जनता पार्टी की सरकार आई तो तत्कालीन प्रधानमंत्री मोरारजी देसाई ने इजरायल के रक्षा मंत्री मोशे दायान की भारत यात्रा करवाई। लेकिन मिली-जुली सरकार होने की वजह से इसे पूरी तरह गुप्त रखा गया। पाकिस्तान के रावलपिंडी के पास परमाणु संयंत्र को तबाह करने को लेकर चर्चा हुई। मीडिया रिपोर्ट्स के मुताबिक मोशे दायान चाहते थे कि भारत इजरायली विमानों को मुंबई में ईंधन भरने की अनुमति दे। मगर गठबंधन सरकार चला रहे मोरारजी देसाई ने इससे इनकार कर दिया।
इंदिरा गांधी की हत्या के बाद आतंकवाद के खिलाफ राजीव गांधी के कड़े रूख ने उन्हें इजरायल से नजदीकियां बढ़ाने पर मजबूर किया। उन्होंने रॉ को मोसाद के साथ संबंध बेहतर बनाने की छूट दी। 1999 के करगिल युद्ध में भी इजरायल ने भारत को एरियल ड्रोन, लेसर गाइडेड बम, गोला बारूद और अन्य हथियार बेचे। संकंट के समय इजरायल हमेशा हथियार आपूर्तिकर्ता देश के रूप में स्थापित हुआ। भारत हर साल 67 अरब से 100 अरब तक के सैन्य उत्पाद इजरायल से आयात करता है। जब पोखरण में 1998 में परमाणु परीक्षण किया गया तब इजरायल ने उसकी कोई आलोचना नहीं की। अटल बिहारी वाजपेयी सरकार ने भी इजरायल के साथ संबंधों को तरजीह दी। पिछले कुछ सालों में दोनों देशों के बीच संबंधों में मजबूती आई है। इजरायल और भारत के संबंधों की असली कहानी सार्वजनिक तौर पर 2015 से नजर आने लगी। संयुक्त राष्च्र में इजरायल में मानवाधिकार अधिकारों के हनन संबंधी वोट प्रस्ताव के वक्त भारत गैर मौजूद रहा और इसी के साथ सार्वजनिक रूप से भारत ने इजरायल का साथ देना आरंभ कर दिया। 2015 में राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी ने जब इजरायल की यात्रा की तो ऐसा करने वाले वो देश के पहले राष्ट्रपति बने। केंद्र में एनडीए सरकार बनने के साथ इजरायल के साथ रिश्तों को खासी तरजीह मिली है। एनडीए-1 के दौर में विदेश मंत्री सुषमा स्वराज और गृह मंत्री राजनाथ सिंह शुरूआत दौर में ही इजरायल के दौरे पर गए। हालांकि इन नेताओं ने इजरायल के साथ फिलस्तीन का भी दौरा किया। इसके बाद फरवरी 2015 में इजरायल के रक्षा मंत्री ने भारत का दौरा किया। जब प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी इजरायल पहुंचे तो दोनों मुल्कों के बीच रिश्तों का नया आयाम खुला। इसे इजरायल को लेकर भारत की बदलती विदेश नीति के रूप में देखा गया। उसी वक्त प्रधानमंत्री मोदी ने इजरायली पीएम बेंजामिन नेतान्याहु को भारत आने का न्यौता दिया। जनवरी 2018 में नेतन्याहु के भारत दौरे के बाद दोनों देश और करीब आ गए। भारत और इजरायल के संबंधों के बारे में अक्सर कहा जाता है कि दोनों देशों के बीच गोपनीय प्रेम संबंध तो बहुत पहले से है। लेकिन यह बात अब पुरानी हो गई। दोनों देशों की प्रगाढ़ता अब जग जाहिर है।
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