किस दिशा में नेपाल: क्या यह भुलावे का दौर है या बेहतर भविष्य का सूचक
एजेंसी। ऐसा शायद ही कभी होता हो कि सरकार के पूर्ण बहुमत में होने के बावजूद संसद को भंग कर दिया जाए, सत्तारूढ़ पार्टी विभाजित हो जाए और प्रधानमंत्री को बर्खास्त कर दिया जाए! और इस घटनाक्रम की भी भला किस तरह व्याख्या करेंगे कि केपी शर्मा ओली जैसे कट्टर कम्युनिस्ट और नेपाल के कार्यवाहक प्रधानमंत्री पशुपतिनाथ मंदिर में जाकर विशेष पूजा करें? हालांकि दक्षिण एशिया में कम्युनिस्टों का धर्मस्थलों में जाना कोई अजूबा नहीं है, लेकिन ओली, जिन्होंने वर्षों पहले नेपाल में राजतंत्र खत्म करने के आंदोलन में सक्रिय भूमिका निभाई थी, पिछले दिनों पहली बार मंदिर में पूजा करने गए। यही नहीं, हाल ही में नेपाल कम्युनिस्ट पार्टी के अपने धड़े के एक कार्यक्रम को संबोधित करते हुए ओली ने कहा कि भगवान राम के जन्मस्थान में मंदिर का निर्माण शुरू हो चुका है।
ओली का इशारा बीरगंज के पास स्थित एक जगह से था, जिसे वह पहले भी असली अयोध्या बता चुके हैं। इस संदर्भ में यह याद रखना चाहिए कि मनमोहन अधिकारी, माधव कुमार नेपाल, पुष्प कमल दहल, बाबूराम भट्टराई और झालानाथ खनाल जैसे पूर्व कम्युनिस्ट प्रधानमंत्री कभी मंदिरों में नहीं गए, न ही उन्होंने ईश्वर के नाम पर प्रधानमंत्री पद की शपथ ली थी। ऐसे में, ओली के मंदिर जाने की घटना ने इस अनुमान को बल दिया है कि वह सत्ता के लिए हिंदुत्ववादी और राजतंत्र समर्थक समूहों का समर्थन हासिल करना चाहते हैं, जो पिछले काफी समय से हाशिये पर हैं। राष्ट्रीय प्रजातांत्रिक पार्टी ऐसी ही एक पार्टी है। ओली के प्रथम प्रधानमंत्री काल में यानी अगस्त, 2015 से अक्तूबर, 2016 तक इस पार्टी का मात्र एक सदस्य संसद में था। पार्टी नेता कमल थापा उप-प्रधानमंत्री और विदेश मंत्री थे। नेपाल में हिंदू बहुसंख्यक हैं। लेकिन सवाल यह है कि क्या कोई माओवादी नेता राजशाही को पुनर्जीवित करने का खतरा उठा सकता है। जो लोग नेपाल में लोकतांत्रिक प्रयोग की विफलता से चिंतित हैं, उनसे पूछना चाहिए कि क्या यह भुलावे का दौर है या यह संकट बेहतर भविष्य का सूचक है।
नेपाल में इन दिनों ऐसी अनेक घटनाएं घट रही हैं, जिनकी फौरी व्याख्या संभव नहीं है। इनमें से कुछ घटनाओं पर टिप्पणी की जा सकती है, तो कुछ घटनाएं स्वत:विरोधी हैं। इस हिमालयी राष्ट्र ने कोरोना महामारी और भारत व चीन जैसे दो बड़े पड़ोसियों के साथ कूटनीतिक रिश्तों के उतार-चढ़ाव के बीच अभूतपूर्व राजनीतिक चुनौतियों का सामना किया है। पुष्प कमल दहल प्रचंड और ओली की पार्टियों में गठजोड़ होने के नतीजतन 2018 में कम्युनिस्ट सत्ता में आए। दोनों पार्टियों के गठजोड़ में चीन ने तब बड़ी भूमिका निभाई थी। प्रचंड और ओली में तब इस पर सहमति बनी थी कि वे बारी-बारी से प्रधानमंत्री बनेंगे। लेकिन ओली प्रधानमंत्री पद छोड़ना नहीं चाहते थे, इसलिए बैठक बुलाए जाने के प्रस्तावों को वह जान-बूझकर लगातार टालते रहे। राजतंत्र की समाप्ति के बाद से ही राजनीतिक पार्टियों की उठा-पटक के बावजूद सत्तारूढ़ एनसीपी में टूट नेपाल में राजनीतिक व्यवस्था के क्रमागत क्षरण के बारे में बताती है।
स्थिति हाथ से निकलती देख ओली ने संसद को भंग करने की सिफारिश कर दी। सर्वोच्च न्यायालय में उनके इस फैसले को चुनौती दी गई, हालांकि फैसला आने में लंबा समय लग सकता है और चुनाव उसके बाद ही संभव है। वैसे तो ओली ने 30 अप्रैल से 10 मई के बीच चुनाव कराने का संकेत दिया है, लेकिन इस मामले में ओली पर पूरी तरह भरोसा शायद ही किया जा सकता है। सत्तारूढ़ पार्टी में टूट और खुद ओली के निष्कासन से जहां उनके द्वारा अपनी पार्टी सीपीएन (मार्क्सवादी-लेनिनवादी) को फिर से खड़ा करने की बात कही जा रही है, वहीं सड़कों पर हिंसा की आशंका भी जताई जा रही है। संसद भंग कर देने के बाद से वहां चीजें तेजी से बदली हैं। प्रचंड का आरोप है कि ओली ने भारत के कहने पर इन घटनाओं को अंजाम दिया है और भारत अपने हित में नेपाल में राजनीतिक अस्थिरता चाहता है। अब ओली भारत समर्थक दिखना चाहते हैं।
विवादास्पद नक्शा वापस ले लिया गया है। विगत 15 जनवरी को नई दिल्ली में हुई भारत-नेपाल संयुक्त आयोग की बैठक में नेपाल के सुर भी अलग थे। नेपाली विदेश मंत्री प्रदीप कुमार ग्यावली ने कहा कि उनकी सरकार किसी विदेशी शक्ति के चंगुल में नहीं है। यही नहीं, महामारी के खिलाफ चीनी टीके के बजाय उन्होंने भारतीय टीके को तरजीह दी। इसकी एक वजह यह भी है कि चीनी वैक्सीन अभी तैयार नहीं हैं। नई दिल्ली ने टीके का एक लाख डोज नेपाल को भेजा, जिस पर प्रधानमंत्री ओली ने भारतीय प्रधानमंत्री का शुक्रिया अदा किया। जबकि यही ओली सत्ता में आने के बाद लगातार भारत-विरोधी रुख अपनाए हुए थे। उन्होंने यह तक आरोप लगाया था कि भारत उन्हें सत्ता से बाहर करना चाहता है। कोविड-19 के कारण करीब दस महीने से बंद भारत-नेपाल सीमा को भी नेपाल सरकार ने पिछले सप्ताह खोल दिया, जिससे आवाजाही के साथ पर्यटन की बहाली की उम्मीद बढ़ी है। फिलहाल भारत-विरोध की हवा खत्म होने के बाद नेपाल में अब चुनाव का माहौल है। यह देखना होगा कि कौन किसके साथ गठजोड़ करता है। पिछली बार ओली ने माओवादियों के साथ गठजोड़ करने में जल्दी दिखाई थी, क्योंकि उन्हें डर था कि ढिलाई बरतने पर नेपाली कांग्रेस का माओवादियों से गठजोड़ हो जाएगा। इन दिनों चर्चा है कि ओली नेपाली कांग्रेस के साथ गठजोड़ कर सत्ता में बने रहने के बारे में सोच रहे हैं। काठमांडू से आ रही रिपोर्टें बताती हैं कि नेपाल की राजनीति में महत्वपर्ू्ण भूमिका निभाने वाली नेपाली सेना आने वाले चुनाव में तटस्थ रहेगी। हालांकि यह देखना होगा कि वह आनेवाले दिनों में सरकार-विरोधी प्रदर्शनों को तितर-बितर करने का ओली का अनुरोध मानती है या नहीं। कोविड-19 के कारण पर्यटन क्षेत्र के पूरी तरह बंद रहने के बाद, जो नेपाल की आय का एक बड़ा स्रोत है, आने वाली गर्मी में चुनाव के कारण नेपाल में राजनीतिक सरगर्मी तेज रहने की स्वाभाविक ही उम्मीद की जानी चाहिए।


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