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तनातनी: अमेरिका-चीन के बीच दरार और भारत के लिए अवसर

हिंदू पुराण की एक कहानी समकालीन भू-राजनीति के लिए प्रासंगिक है। भस्मासुर नामक दानव भगवान शिव का भक्त था। उसकी भक्ति और तपस्या के लिए उसे भगवान शिव ने एक वरदान दिया कि वह जिसके भी सिर पर हाथ रखेगा, वह जलकर भस्म हो जाएगा। उस दानव ने फैसला किया कि वह भगवान शिव पर ही अपनी शक्तियों का परीक्षण करेगा। शिव को अपनी रक्षा के लिए भगवान विष्णु के पास जाना पड़ा, जिन्होंने एक नर्तकी के रूप में भस्मासुर को अपना ही सिर छूने का लालच दिया। पिछले हफ्ते अमेरिका और चीन के अधिकारियों ने दुनिया के सबसे महत्वपूर्ण द्विपक्षीय रिश्ते को फिर से बहाल करने के लिए अलास्का में मुलाकात की। अमेरिकी विदेश मंत्री एंटनी ब्लिंकन ने हांगकांग में लोकतंत्र के हनन, ताइवान को स्वतंत्र देश का दर्जा न देने, उइगरों के उत्पीड़न, साइबर हमले और अपने सहयोगियों पर आर्थिक दबाव सहित कई आरोपों को दोहराया।

चीन के शीर्ष राजनयिक यांग जेइची ने अमेरिका को चेतावनी देते हुए कहा कि ‘वह चीन के आंतरिक मामलों में दखल न दे’ और अमेरिका के वैश्विक कद को चुनौती देते हुए कहा कि ‘अमेरिका दुनिया का प्रतिनिधित्व नहीं करता है, वह केवल अमेरिकी सरकार का प्रतिनिधित्व करता है।’ कहा जा सकता है कि अमेरिका अपने भस्मासुर का सामना करने के लिए अतीत से जूझ रहा है। पांच दशक पहले अमेरिका ने निक्सन सिद्धांत के तहत कम्युनिस्ट चीन के साथ संबंध स्थापित किए, जिससे वास्तव में चीन को वरदान मिला। वर्ष 1954 में जेनेवा सम्मेलन में अमेरिकी विदेश मंत्री जॉन फोस्टर डलेस ने चाउ एन लाई के साथ हाथ मिलाने से इन्कार कर दिया था। लेकिन 1971 में हेनरी किंसिजर ने कुख्यात निकोलाय चाउसेस्कु तथा तानाशाह या‘ा खान से मदद मांगी और चाउ एन लाई के साथ दोस्ती की। इस तरह अमेरिका ने माओ के शासन वाले चीन को गले लगाने के लिए स्वतंत्र दुनिया के नेताओं के लिए मार्ग प्रशस्त किया।

यह अमेरिका ही है, जिसने 1971 में वीटो अधिकार प्राप्त सदस्य के रूप में संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद में चीन के प्रवेश को सक्षम बनाया, चीन की तरफ व्यापार और निवेश का प्रवाह खोला, 1979 में उसे सबसे पसंदीदा राष्ट्र का दर्जा दिया, तीन नकारात्मक नीति (कोई संपर्क नहीं, कोई बातचीत नहीं, कोई समझौता नहीं) के तहत ताइवान को अधर में छोड़ दिया, मिच मैककोनेल द्वारा लिखित विधेयक के जरिये ब्रिटेन से हांगकांग के हस्तांतरण की सुविधा प्रदान की और 2001 में विश्व व्यापार संगठन में उसकी सदस्यता सुनिश्चित की। चीन ने अमेरिकी वरदान का पूरा लाभ उठाया। 1971 से बाद से चीन का सकल घरेलू उत्पाद 99 अरब डॉलर से बढ़कर 150 खरब डॉलर तक पहुंच गया है। 200 अरब डॉलर से अधिक का इसका रक्षा बजट अमेरिका के बाद दुनिया में दूसरा सबसे बड़ा रक्षा बजट है। यह सबसे बड़ा प्रत्यक्ष विदेशी निवेश (एफडीआई) हासिल करने वाला देश है, जिसने पिछले साल 140 अरब डॉलर से ज्यादा का एफडीआई प्राप्त किया। चीन सबसे बड़ी अर्थव्यवस्थाओं का सबसे बड़ा व्यापार भागीदार है, यह दुनिया का सबसे बड़ा निर्यातक है, जो 25 खरब डॉलर का निर्यात करता है, यह 32 खरब डॉलर से अधिक विदेशी मुद्रा भंडार और 10.9 खरब के अमेरिकी ट्रेजरी बॉन्ड होने का दावा करता है। 50 साल पहले अमेरिका ने उसे जो वरदान दिया था, वही अब अमेरिका को परेशान कर रहा है।

अमेरिका-चीन के बीच तकरार भारत के लिए दीर्घकालीन अवसर भी प्रदान करता है। भारत की रणनीतिक स्वायत्तता की निर्मिति भौगोलिक वास्तविकता और व्यावहारिक विचारधारा पर आधारित है। भारत के सबसे बड़े व्यापारिक भागीदार अमेरिका और चीन हैं और आर्थिक परस्पर निर्भरता जटिल तथा लागत क्षमता पर निर्भर है। जरा भू-राजनीतिक परिदृश्य पर विचार कीजिए। इस बात की संभावना बहुत कम है कि चीन हांगकांग या ताइवान में अपने आधिपत्य खत्म करने या दक्षिण चीन सागर में अपनी महत्वाकांक्षाओं को घटाने या उइगरों के प्रति रवैया बदलने या अन्य देशों के खिलाफ साइबर जासूसी या हमले करने से बाज आएगा। जब ब्लिंकन ने कहा कि जब जरूरी होगा, संबंध प्रतिस्पर्धी और सहयोगात्मक होंगे तथा जब जरूरत पड़ेगी, संबंध निश्चित रूप से प्रतिकूल भी होंगे, तो इसका मतलब है कि आगे की राह आसान नहीं है। महामारी के बाद दुनिया जिसे वैश्विक आपूर्ति शृंखला कहती है, वह व्यापक रूप से चीनी आपूर्ति शृंखला है। महामारी के बाद और चीन की नई आक्रामक कूटनीति के मद्देनजर दुनिया भर के लोकतांत्रिक देशों में चीन से बाहर अपनी निर्भरता स्थांतरित करने के बारे में सोच उभर रही है।

नए अध्ययन बताते हैं कि कुल 40 खरब डॉलर के वैश्विक व्यापार का लगभग एक चौथाई 2025 तक आपूर्तिकर्ता आधार को स्थानांतरित कर देगा। यह पहले से ही जापान और कोरिया में और विनिर्माण की कई आपूर्ति शृंखलाओं में चल रहा है। इसके अलावा, विभिन्न देश अपनी अर्थव्यवस्थाओं को ऐसे किसी भी झटके से बचाने के लिए रास्ते तलाशेंगे, जो इच्छित और अनपेक्षित परिणामों का पालन कर सकें। तथ्य यह है कि बड़े घरेलू बाजार और कौशल व श्रम के प्रवाह का समर्थन करने वाली जनसांख्यिकी के साथ भारत एक विशाल लोकतंत्र है, जिसके पास विकल्प के रूप में खुद को पेश करने का अवसर है। मैंने पहले भी अपने कॉलम में रणनीतिक स्वायत्तता बनाए रखने के लिए समान विचारधारा वाले लोकतंत्रों और बीस खरब डॉलर वाली अर्थव्यवस्था (जीटी 2) के समूह का सुझाव दिया था। सवाल यह है कि क्या भारत फिर से अपनी नीतियों को आकार देने के लिए लंबे और धीमे कदम उठाने के साथ छोटे और त्वरित कदम उठा सकता है।

माहौल भारत के पक्ष में है। पहले से ही कई कारक हैं-कोरोना के टीके की आपूर्ति में भारत की भूमिका ने दुनिया का भरोसा जीता है, क्वाड में इसकी उपस्थिति विश्वसनीयता प्रदान करती है। तथ्य यह है कि बर्लिन की दीवार गिरने के बाद भू-राजनीति में एक बड़ा बदलाव हो रहा है, जिसे भारत के राजनीतिक वर्ग द्वारा नहीं गंवाया जाना चाहिए। हमेशा की तरह विवाद का विषय यह है कि क्या राष्ट्रीय सुरक्षा अनिवार्यताओं की तरह अर्थव्यवस्था पर भी राष्ट्रीय सहमति बन सकती है।

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

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