राष्ट्रनायक न्यूज

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बड़ा सवाल: आखिर अफगानिस्तान में अमेरिका ने क्यों हार मानी?

राष्ट्रनायक न्यूज। शक्तिशाली साम्राज्य क्यों, कैसे और कब विफल, ढहने और विघटित होने लगते हैं? इतिहास से दो सबक मिलते हैं। पहला, खुद को जरूरत से अधिक दबाव देना और लालच में अपनी हदों से पार चले जाना। दूसरा तब जब वे सत्य, न्याय और मानव जीवन के प्रति सम्मान को लेकर बिना किसी प्रतिबद्धता के अंतहीन युद्ध थोपने लगते हैं।  दो उदाहरण, जिनमें से एक अतीत से है और दूसरा वर्तमान से, इसे सच करते हैं। ये हैं, ईसा पूर्व 326 में सम्राट सिकंदर (एलेक्जेंडर) का भारत को फतह करने का जुनून और 1979 में सोवियत संघ के कम्युनिस्ट साम्राज्य का अफगानिस्तान पर हमला। एक कहानी है। जैसे ही सिकंदर की सेना महान शहर तक्षशिला की ओर बढ़ रही थी, सिकंदर का सामना साधुओं के ?एक समूह से हुआ, जिन्होंने उसके सामने अपने पैर अड़ा दिए। इस अजीब व्यवहार के बारे में जब पूछा गया, तो उन्होंने कहा, ‘हे सम्राट, प्रत्येक मनुष्य धरती की सिर्फ उतनी ही जगह का मालिक हो सकता है, जितने में तुम और हम खड़े हैं। तुम्हारी जल्द मौत हो जाएगी और तुम धरती की उतनी ही जगह के मालिक होगे, जितने में तुम्हें दफनाया जाएगा।’ सिकंदर के थके-हारे और खिन्न सैनिक घर लौटने को बेताब थे, लेकिन वे ग्रीस नहीं लौट सके। बेबीलोन (इराक) में उसकी मौत हो गई। तब वह सिर्फ 32 साल का था।

जहां तक सोवियत संघ के पीछे हटने की बात है, तो मैं इसका चश्मदीद था। मैं तब द संडे ऑब्जर्वर में पत्रकार के रूप में काम करता था और 1988 तथा 1989 में दो बार मेरा अफगानिस्तान जाना हुआ। फरवरी, 1989 में मैंने युद्ध से लथपथ देश से आखिरी सोवियत सैनिक की वापसी को कवर किया था। मैं काबुल के नजदीक स्थित विशाल कब्रिस्तान भी गया था, जहां हजारों अफगान सैनिकों को दफनाया गया था। सोवियत नेता लियोनाद ब्रेझनेव अमेरिका को अफगानिस्तान में मात देना चाहते थे, इसलिए उन्होंने 1978 में वहां बगावत में मदद की, जिसके बाद वहां सोवियत समर्थक वामपंथी सरकार काबिज हो सकी। जल्द ही वहां हालात बेकाबू हो गए और मिखाइल गोबार्चेव ने अपनी फौज की वापसी का आदेश दे दिया। इस ‘दूसरी महाशक्ति’ का नाम अब इतिहास की किताबों में ही मिलता है।

काबुल में मैंने अफगानिस्तान के तत्कालीन राष्ट्रपति डॉ. मोहम्मद नजीबुल्ला का इंटरव्यू भी लिया था, जो भारत के दोस्त थे। उन्होंने भरोसा जताया था कि वह अपने देश में अमन कायम कर पाएंगे। पर 1992 में मुजाहिदीन ने उनकी सरकार को उखाड़ फेंका और चार साल बाद बेहद बर्बर तरीके से उनकी हत्या कर दी। मैं अतीत की ये दुखद कहानियां क्यों सुना रहा हूं? इसलिए क्योंकि जो लोग इतिहास से सबक नहीं लेते, वे उसे दोहराने को अभिशप्त होते हैं।

14 अप्रैल को अमेरिकी राष्ट्रपति जो बाइडन ने एलान किया कि 11 सितंबर से पहले जब अल कायदा के अमेरिका पर किए गए भीषण हमले की बीसवीं बरसी होगी, अफगानिस्तान से उनकी फौज की पूरी वापसी हो जाएगी। अक्तूबर, 2001 में जब अमेरिकी बलों ने अफगानिस्तान पर हमला किया था, तो उनका मकसद था सत्ता से तालिबान को बेदखल करना, क्योंकि उन्होंने ओसामा बिन लादेन को पनाह दी थी। दस साल बाद दो मई, 2011 को अमेरिका की विशेष फौज ने पाकिस्तान के एबोटाबाद में लादेन को मार गिराया। पर क्या अमेरिका तालिबान को पराजित कर पाया? नहीं। अहम सवाल है : बीस साल लंबे युद्ध से अमेरिका ने क्या हासिल किया? अमेरिका ने 2,400 सैनिक खो दिए। मरने वाले अफगान सैनिकों, लड़ाकों और नागरिकों की संख्या है दो लाख से अधिक। ब्राउन यूनिवर्सिटी के अध्ययन के मुताबिक, अमेरिका ने 9/11 के हमले के बाद अफगानिस्तान, इराक, सीरिया और अन्य जगह 64 खरब डॉलर यानी (384 लाख करोड़ रुपये) खर्च किए। हमें नहीं भूलना चाहिए कि अमेरिका ने इराक पर हमले के लिए सद्दाम हुसैन के कथित जनसंहारक हथियारों को कारण बताया था, जो बाद में झूठा साबित हुआ।ये सारे तथ्य क्या बताते हैं? अमेरिकन ड्रीम दुनिया भर के लोगों को आकर्षित करता है, क्योंकि यह एक समृद्ध देश है और मु्क्त तथा उदार समाज है। अमेरिका का सैन्य परिसर दूसरे विश्व युद्ध के बाद से हमेशा दुनिया के किसी न किसी कोने में युद्ध लड़ते रहता है। दूसरा, सैन्य ताकत युद्ध में जीत की गारंटी नहीं। वह वियतनाम, अफगानिस्तान या इराक में युद्ध नहीं जीत सका। तीसरा, इस बेतहाशा सैन्य खर्च से अमेरिका में असमानता, गरीबी और सामाजिक टकराव बढ़ रहे हैं।

चौथा, इनका असर अमेरिकी लोकतंत्र पर नकारात्मक ढंग से पड़ा है। पांचवां, एशिया खासतौर से चीन और भारत के उभार के बाद अमेरिका वैसी वैश्विक महाशक्ति नहीं रहा। अमेरिका के अफगान युद्ध ने मुस्लिम विश्व को भी महत्वपूर्ण संदेश दिया है। अमेरिका ही नहीं, बल्कि मुस्लिम विश्व को भी ईमानदारी से आत्ममंथन करने की जरूरत है। आखिरी बात, अफगान युद्ध का भारत और पाकिस्तान के लिए भी सबक है। हमारे ये तीन देश इतिहास, संस्कृति धर्म और सामाजिक साहचर्य के मजबूत बंधन का साझा करते हैं। इसलिए अफगानिस्तान में शांति कायम करने और उसके पुनर्निर्माण में भारत और पाकिस्तान, दोनों की अहम भूमिका है।

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