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चीनी घुसपैठ के एक साल बाद, ड्रैगन की मंशा जानना जरूरी

दिल्ली, एजेंसी। चीनी सेना (पीएलए) ने वास्तविक नियंत्रण रेखा (एलएसी) के पार जिन इलाकों में घुसपैठ की थी, वहां से उसे वापस भेजने के लिए बातचीत शुरू किए एक साल हो गए हैं। लेकिन अब भी किसी को अंदाजा नहीं है कि क्या चीन अपने सैनिकों को वापस वहीं बुलाएगा, जहां से वे आए थे। सैन्य कमांडरों की ग्यारह दौर की वार्ता के बावजूद, बहुचर्चित विघटन प्रक्रिया (डिसएंगेजमेंट) ने यथास्थिति बहाल नहीं की है। जैसा कि आलोचकों ने रेखांकित किया था, पेंगोंग त्से से सटे अपने पूर्व ठिकानों पर पीएलए की वापसी केवल तभी संभव हुई, जब भारतीय सैनिक कैलाश पर्वतमाला में हासिल की गई बढ़त से पीछे हटे। पिछले साल 29-30 अगस्त को एक त्वरित सैन्य अभियान के दौरान इन पर कब्जा किया गया था, जिसने चीन की स्थिति को कमजोर बना दिया।

लेकिन तब से लद्दाख की नदियों में काफी पानी बह चुका है। हालांकि, गोगरा और हॉट स्प्रिंग्स जैसे अन्य क्षेत्रों में, जहां चीनी सैनिकों ने घुसपैठ की थी, और अधिक हासिल करने की उम्मीद कम है। देपसांग के ज्यादातर इलाकों में पीएलए ने 2013 में घुसपैठ की थी, तो फिर से उसने घुसपैठ क्यों की? इसका पहला कारण शायद कोविड-19 को ठीक से नहीं संभालने और उसके प्रसार को लेकर वैश्विक मीडिया में हो रही आलोचना को नजरंदाज करना था। इसके साथ-साथ हांगकांग में हुए दंगों का मामला भी था, जिसने चीनी नेतृत्व को अपने स्थानीय निवासियों और दुनिया भर में फैले विशाल प्रवासियों की नजर में अयोग्य बना दिया। चीनी राष्ट्रपति शी जिनपिंग ने  चीनी कम्युनिस्ट पार्टी (2021) की स्थापना की सौवीं वर्षगांठ से पहले प्रमुख आर्थिक उपलब्धियों की घोषणा करने की उम्मीद की थी। पर वैश्विक अर्थव्यवस्था के महामारी की चपेट में आने के कारण उन्हें एक और उपलब्धि की  आवश्यकता थी।

इसके अलावा, जिस तरह गुटनिरपेक्ष आंदोलन (नाम) और ऐसी ही अन्य पहलों के नेता के रूप में पंडित नेहरू के बढ़ते वैश्विक कद को नहीं पचा पाने के कारण माओ त्से तुंग ने 1962 में नेहरू को सबक सिखाने का फैसला किया था, लगता है उसी तरह शी जिनपिंग ने घुसपैठ के जरिये मोदी को मुश्किल में डालने का फैसला किया। दूसरी बात यह है कि चीन यथास्थितिवादी राष्ट्र नहीं है, जो भारत की तरह सीमाओं का सम्मान करेगा, बल्कि उसका एक विस्तारवादी एजेंडा है, जो न केवल अक्साइ चिन, बल्कि लद्दाख, सियाचिन ग्लेशियर, पीओके और उसके कुछ उत्तरी हिस्सों पर कब्जा जमाना चाहता है। चीन का दीर्घकालिक रणनीतिक उद्देश्य भारत के उदय को सीमित करना और भारत के साथ सीमा को अपने लाभ के लिए निर्धारित करना है।

तीसरी बात, चीन हमेशा के लिए लद्दाख क्षेत्र में अधिक जल संसाधनों की तलाश  कर रहा है, क्योंकि सिंधु नदी प्रणाली तिब्बत से निकलती है और लद्दाख से पाकिस्तान के उत्तरी क्षेत्रों तक जाती है, जिसे हम पीओके कहते हैं। चीनी एजेंडा इस क्षेत्र में अधिक से अधिक पानी तक पहुंच बनाना है, क्योंकि चीन को माइक्रोचिप्स बनाने के लिए पानी की प्रचुरता की आवश्यकता है। सिलिकॉन वेफर्स के उत्पादन के लिए काफी पानी की आवश्यकता होती है, और इसलिए चीन सिंधु नदी का पानी चाहता है और उसे उम्मीद है कि पाकिस्तान अपने भू-रणनीतिक और आर्थिक एजेंडे के लिए उसे पानी दे सकता है। असल में कश्मीर के पानी पर चीन की नजर 1950 के दशक से ही है, इसलिए उसने 1954 में अक्साइ चिन पर कब्जा किया था। अब चीन पीओके में सिंधु नदी पर पांच प्रमुख बांधों को वित्तपोषित करने और इन बांधों में 25 अरब डॉलर से अधिक का निवेश करने पर सहमत हो गया  है। इसलिए ये चीनी घुसपैठ एक बड़ी रणनीतिक योजना का हिस्सा थे, और चीन उन्हें खाली करने के लिए तैयार नहीं होगा।

यह मान लेना कि चीनी एलएसी पर जहां हम चाहते हैं, वहां वापस चले जाएंगे, हमारा आशावाद है। एलएसी की तरह सभी अनिर्धारित सीमाओं पर (अरुणाचल प्रदेश के साथ लगी मैकमोहन लाइन के विपरीत) जब तक पूरी तरह से अंतिम समझौता नहीं हो जाता है, तब तक आप जितने पर कब्जा करते हैं, उसे रखते हैं। इसलिए नई दिल्ली के वार्ता और शांति बहाली मॉडल के कूटनीतिक दृष्टिकोण की समीक्षा की जानी चाहिए। सीमा निर्धारित करने के मामले में, विशेष रूप से लद्दाख मोर्चे पर इससे हमें कोई फायदा नहीं होने वाला है, क्योंकि किस मार्ग का अनुसरण करना है, इसको लेकर अलग-अलग धारणाएं हैं। पिछले साल की बातचीत का एक सबक यह रहा है कि सीमा मुद्दे पर किसी भी बातचीत में भारतीय सैन्य कमांडरों को शामिल होना चाहिए, जो जमीन की स्थिति जानते हैं। जैसा कि हमने हाल ही में देखा है, एक भी पहाड़ी चोटी छोड़ने से बड़ा अंतर आ सकता है। फिर भी भारत ने कैलाश पर्वतमाला में अपना लाभ छोड़ दिया। लेकिन चीन ने उन चोटियों को हासिल कर लिया है, और अब वे इस बारे में चुप हैं कि उन्होंने बदले में एलएसी पर कोई जगह छोड़ने का वादा किया था!

हालांकि चीनी घुसपैठ ने भारत के सैन्य प्रतिष्ठान को जगा दिया था और दो मोर्चे (चीन-पाकिस्तान) पर खतरे की वास्तविकता पर ध्यान केंद्रित कर खुद को उसी के अनुसार तैयार किया। इस घटना ने सैन्य खरीद की झड़ी लगा दी, जिसने हमारे सशस्त्र बलों को अब कई नए हथियार दिए हैं। लेकिन कारगिल संघर्ष का एक और सबक था कि हमारे पैदल सैनिकों को उन बफीर्ली ऊंचाइयों पर लड़ने के लिए हवाई और तोपखाने के समर्थन के साथ अच्छी तरह से लैस करने की आवश्यकता थी। भारत को अपनी मौजूदा जनशक्ति को बेहतर ढंग से विभाजित करके दो चीन केंद्रित ‘स्ट्राइक कोर’ तैनात करने की आवश्यकता है-एक को नेपाल के उत्तर-पश्चिम में एलएसी पर और दूसरे को भूटान के पूर्व में कहीं भी तैनात किया जा सकता है, ताकि चीन के पश्चिमी थिएटर कमांड का ध्यान बंटाया जा सके, जो भारत के साथ अपनी पूरी जमीनी सीमाओं के लिए जिम्मेदार है। सेना के इन ‘स्ट्राइक कोर’ को उच्च हिमालय में संघर्ष के लिए तैयार करने के लिए पुन: बजटीय आवंटन करना होगा। युद्ध महंगे होते हैं और हमेशा समाधान नहीं होते। अब समय आ गया है कि हम सीमा चुनौतियों को निपटाने के लिए एक नया तंत्र तैयार करें, क्योंकि विशेष प्रतिनिधियों की 22 दौर की वार्ता से कोई हल नहीं निकला है। अगर आप मजबूत होकर बात करते हैं, तभी चीन सम्मान करेगा।

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