पुलिस जुल्म की इन्तहा और हमारी खामोशी
लेखक: अहमद अली
पुलिस जुल्म और बर्बरता के किस्से तो आपने बहुत पढा़ सुना होगा , लेकिन तमिलनाडु में तूतीकोरिन की पुलिस जुल्म ने तो दरिंदगी की सारी हदे तोड़ दी।
आईये , पहले घटना पर नजर डालते हैं। घटना 18 जून के करीब 8 बजे रात की है जब लौकडाऊन के समय को पालन कराने तूतीकोरिन जिले के सांताकुलम थाने की पुलिस बाजार में गश्ती पर थी। शाम 7 बजे तक दूकानों को बन्द कर देने का प्रशासनिक ऐलान था।अन्य दूकानों की तरह एक मोबाईल की दूकान भी खुली थी।निर्धारित समय से मात्र 15 मिनट देर तक। जयराज (60) और उसका बेटा बेस्किन (32) , जो अपनी दूकान बन्द करने की प्रक्रिया में ही थे, पुलिस ने जयराज को उठा कर थाने ले गयी।बेटा बेस्किन बाप को छूराने पीछे से थाने पहुंचा।थाने पर दोनो की बडी़ बेरहमी से पीटाई की गयी। पर, मात्र यही कह देने से सच्चाई छुप जा रही है। तो सच्चाई यह है कि दोनों बाप बेटे को एक सी.सी.टी.वी. रहित कमरे में ले जाया गया। दोनों को पूरी तरह नंगा कर पहले मारते मारते लहूलूहान कर दिया गया। लेकिन पुलिस का इतना ही से मन नहीं भरा। दोनों को मुँह के बल दिवाल में सटा कर उनके मल द्वार में मोटा डांडा घुसेरा गया और दूसरे गुप्तांग को भी बूरी तरह छतिग्रस्त कर दिया गया।प्रत्यक्षदर्शियों के अनुसार खून बह चला था। दोनों को इस हाल में पहुँचाने बाद भी पुलिस को दया नहीं आई। और अस्पताल में भर्ती कराने की जगह उन्हें जेल भेज दिया गया।बाद में ईलाज भी हुआ लेकिन कुछ काम न आया।चार दिन के बाद दोनों ने दम तोड़ दिया।संक्षेप में घटना का विवरण यही है। यहाँ विचारणीय विषय जो है वो इस वीभत्स घटना से भी भवायह है, कि देश के दक्षिणी हिस्से की घटना पर उत्तर में कोई चर्चा नहीं है।यहीं पर अमेरिकी अश्वेत की श्वेत पुलिस द्वारा निर्मम हत्या का जिक्र करना उचित जान पड़ता है। हाँलांकि वो एक क्रूर हत्या थी।उसमें इस प्रकार की वेहयायी, वीभत्सता या सेक्सुअल टौचर नहीं था।फिर भी उस घटना ने पूरे अमेरिका को आक्रोशित कर दिया।आन्दोलन का ज्वार इतना तीखा था कि अमेरिकी राष्ट्रपति को बंकर में पनाह लेने पर मजबूर होना पडा़ था। श्वेत विरादनी और पुलिस ने माँफी भी माँगा लेकिन आज भी वहाँ आन्दोलन जारी है।वहीं हमारे देश में आये दिन सामांती या पुलिस जुल्म की श्रृंखलाएँ गुजरती रहती है और हम खामोशी मे घीरे रहते हैं।हम चुप हैं, क्या इसलिये कि यह घटना दक्षिण की है, उत्तर को इससे क्या लेना देना ? यही खामोशी और बर्दाश्त करने की प्रवृत्तियाँ उत्तर में भी किसी आन्दोलन से हमें रोकती हैं।सोचिये न, निर्भया के बाद हमारे यहाँ क्या कोई वैसा जन आन्दोलन हुआ है।हमारी यही उदासीनता जुल्म बढा़ने में खाद पानी मुहैया करती हैं।
मृतक नादर समुदाय से तआल्लुक रखते थे।बताते चलें कि दक्षिण में नादर समुदाय दलित के ही समकक्ष होता है। ये वही नादर समुदाय है, जिनकी औरतों को स्तन ढ़कने का अधिकार नहीं था, खास कर के ब्राह्मणों के सामने और मंदिरों में प्रवेश के समय।19 वीं सदी के प्रारम्भ में इस कुप्रथा के विरुद्ध नादर समुदाय ने काफी संघर्ष किया था जिससे उन्हे इस प्रथा से आजादी मीली थी।
विषयांतर को टालते हुए हम मूल विषय पर आते हुए यह कहना चाहेंगे कि उत्तर भारत,खास कर हिन्दी पट्टी में भी दलितों और कमजोर वर्ग पर आये दिन बर्बर अत्याचार होते रहते हैं।थोरा बहुत हील डोल के बाद मामला शांत हो जाता है।क्या वक्त का तकाजा नहीं है कि हम सहते रहने की प्रवृत्ति को त्याग दें ?
कुछ संतोष बख्श खबर है कि तूतीकोरिन में उक्त घटना के बाद आन्दोलन हुए। जिसके दबाव में सरकार ने कुछ राहत के कदम भी उठाई। मृतकों को मुआवजा के साथ पुलिस को दंडित भी किया गया है।पर सवाल है ऐसे जुल्म को विराम देने की।क्या एक अविराम जनान्दोलन के यह सम्भव है ?
- लेखक के अपना विचार है।
- लेखक का संपर्क सूत्र:- 9304996703
- ई-मेल:- cpmahamadali@gmail.com


More Stories
गणतंत्र दिवस सह संविधान रक्षा दिवस
यह तो संविधान का अपमान भी है
पाटलिपुत्र-छपरा पेसेंजर ट्रेन को रद्द करना जनहित के विपरीत