
लेखक:- अहमद अली।छपरा
चुनाव आयोग ही यदि लोकतंत्र का हत्यारा बन बैठे, तो फिर देश को कौन बचाएगा? इस प्रश्न ने आज हर संविधान एवं लोकतंत्र प्रेमी नागरिकों की नींद हराम कर दी है। पुरानी कहावत है— “चोर की बुद्धि पुलिस से कहीं अधिक होती है।” बिहार में हालिया चुनावी घटनाक्रम ने इस कहावत को पूरी तरह सिद्ध कर दिया है। आइए समझते हैं—
जब वोट-चोरी का खुलासा हुआ और SIR के माध्यम से सामने आए तथ्यों ने यह सिद्ध कर दिया कि किस तरह लोकतांत्रिक प्रणालियों, सिद्धांतों और मर्यादाओं को रौंदकर चुनाव आयोग निर्लज्जता से शासक वर्ग के पक्ष में खड़ा है, तब बिहार में विपक्ष ने एक व्यापक और शक्तिशाली जनजागरण अभियान छेड़ दिया। इस अभियान ने जनता के दिल-दिमाग में शासक वर्ग के प्रति गहरा आक्रोश और असंतोष भर दिया। फलतः एन.डी.ए. इतनी भयभीत हुई कि उसको अब एक ही विकल्प नज़र आया और वह था “चुनावी भ्रष्टाचार”। इसी कड़ी में जीविका योजना से जुड़ी महिलाओं को साधन बनाया गया। चुनाव से ठीक पहले “महिला रोजगार योजना” के नाम पर लगभग 1.40 करोड़ जीविका दीदियों के खातों में दस-दस हजार रुपये ट्रांसफर कर दिए गए, जबकि आदर्श आचार संहिता 6 अक्टूबर 2025 से ही लागू हो गई थी। पैसा 17, 24, 31 अक्टूबर और 7 नवंबर को भी डिलीवर किया गया, जबकि प्रथम चरण का मतदान 6 नवंबर और दूसरे चरण का 11 नवंबर को था। चुनाव आयोग से इस चुनावी भ्रष्टाचार के विरुद्ध विपक्ष कार्रवाई की गुहार लगाता रह गया, परंतु आयोग ने मानो कुछ सुना ही नहीं, उसके कानों में जूँ तक नहीं रेंगी। यानी आदर्श आचार संहिता का चीर-हरण चुनाव आयोग की बेशर्म निगाहों के सामने ही हुआ।
हम यहाँ उसी मुद्दे का विश्लेषण कर रहे हैं
गौरतलब है,’ रिप्रेजेंटेटिव ऑफ पीपुल्स ऐक्ट ‘ स्पष्ट रूप से निर्देशित करता है कि— “कल्याणकारी योजनाओं और कार्यों के लिए कोई नई धनराशि जारी नहीं की जाएगी, न ही राज्य के किसी भी हिस्से में, जहाँ चुनाव चल रहा हो, पहले से स्वीकृत कार्यों के लिए कोई नया अनुबंध दिया जाएगा—जब तक कि आयोग से पूर्व अनुमति न ली जाए। इसमें सांसदों (राज्यसभा सदस्य सहित) के सांसद स्थानीय क्षेत्र विकास निधि तथा विधायक/परिषद सदस्य स्थानीय क्षेत्र विकास निधि के अंतर्गत होने वाले कार्य भी शामिल हैं, यदि ऐसी कोई योजना राज्य में संचालित हो रही हो।” जब हम चुनावी ईतिहास के पिछले पन्नों को उलटते हैं तो पाते हैं कि पहले भी कई राज्य सरकारों ने चुनाव को प्रभावित करने की नियत से किसी योजना के तहत जनता को लाभान्वित करना चाहा, लेकिन चुनाव आयोग ने इजाज़त नहीं दी। याद करें— टी. एन. शेषन ने तो तीन माह पहले तक भी रोक लगा दी थी। यहाँ तक कि सेवानिवृत्त लोगों को पेंशन देने के लिये भी आयोग से अनुमति ली गई थी।
सत्ता समर्थकों का तर्क भी वास्तविकता से परे है कि योजना, आदर्श आचार संहिता लागू होने के पूर्व शुरू थी। पर पिछले आदेश कुछ और बयाँ करते हैं। उदाहरणार्थ :—
⚫ मार्च 2004 में तमिलनाडु की जयललिता सरकार ने किसानों को जब पैसा देना चाहा, चुनाव आयोग ने रोक दिया, जबकि चुनाव एक साल बाद होना था। उस समय मुख्य निर्वाचन आयुक्त टी. एस. कृष्णमूर्ति थे।
⚫ मार्च 2011 में भी तमिलनाडु सरकार को कलर टीवी देने पर रोक लगा दी गई, जबकि यह स्कीम सितंबर 2006 से ही चल रही थी। उस वक्त मुख्य चुनाव आयुक्त एस. वाई. कुरैशी थे।
⚫ नवंबर 2023 को तेलंगाना सरकार को भी इजाज़त नहीं दी गई जब इसने किसानों को प्रति एकड़ 5000 रु अनुदान देने की पेशकश की थी।
⚫ 2024 में आंध्रप्रदेश की सरकार को एक स्कीम के तहत 14000 करोड़ रुपये ट्रांसफर पर रोक लगा दी गई।
⚫ 2024 में चुनाव के पहले KALIA (Krushak Assistance for Livelihood and Income Augmentation) Scheme पर भी रोक लगा दिया था, जो किसानों और भूमिहीन कृषि मजदूरों को आय और मदद देने वाली थी।
⚫ 2023 में, जब राजस्थान चुनाव हुए थे, चुनाव आयोग ने काँग्रेस द्वारा प्रस्तावित 7 गारंटियों (7 guarantees) के विज्ञापन पर रोक लगा दी। आयोग ने स्पष्ट कहा कि यह आदर्श आचार संहिता का उल्लंघन है।
⚫ हिमाचल प्रदेश में, 2024 में “इन्दिरा गाँधी प्यारी बहना सुख सम्मान निधि योजना” के तहत नए लाभार्थी बनाने पर चुनाव आयोग ने रोक लगा दिया था।
प्रश्न उठता है, बिहार में इसे क्यों नहीं रोका गया? इसे समझने के लिये चुनाव आयोग के क्रिया कलाप पर गौर करना होगा। मुख्य चुनाव आयुक्त ज्ञानेश गुप्ता के संवाददाता सम्मेलन में जिस प्रकार उनके द्वारा एक तरफा बेतुका तर्क दिया जा रहा था, उसी से उनकी नियत स्पष्ट थी। अतः एन.डी.ए. के राष्ट्रीय या प्रांतीय नेता चाहे जितना भी जन समर्थन की दावेदारी कर लें, सच्चाई यही है कि वोट के लिये तथाकथित महिला रोजगार योजना लाई गई और पैसों से वोट खरीदा गया। वर्तमान बिहार सरकार जन समर्थन से नहीं, बल्कि चुनावी भ्रष्टाचार के बदौलत वजूद में आई है। लोकतंत्र को धनतंत्र से ढक दिया गया।


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