लेखक:- अजय कुमार सिंह।छपरा
शिक्षा की समस्याओं पर विचार करने के पूर्व यह आवश्यक है कि हम संक्षेप में यह जान लें कि शिक्षा क्या है और क्या नहीं है।यूँ तो शिक्षा की तमाम परिभाषाएं है किन्तु सबसे विस्तृत परिभाषा यह है कि शिक्षा बच्चों की अंतर्निहित शक्तियों का पूर्ण विकास है।विवेकानंद जी कहते है :- ” एजुकेशन ऑन इज दि मेनिफेस्टेशन ऑफ दि परफेक्शन ऑलरेडी इन दि चाइल्ड ” किन्तु शिक्षा मात्र सूचना नहीं है क्योंकि सूचना मुख्यतः क्या है ; सवाल जवाब देती है जबकि शिक्षा इससे कई कदम आगे,बढ़कर क्यों,कैसे,कहाँ,किसलिए,कब आदि सवालों का जवाब देने का प्रयास करती है।आधुनिक शिक्षा हमें केवल क्लर्क बनाने की दीक्षा है।वह हमारे मस्तिष्क को संकुचित बनाती है।इसलिये शिक्षा का उद्धेश्य केवल परीक्षा पास करके नौकरी करना रह जाता है।जीवन को सफल बनाने और कठिनाइयों से जूझने की शक्ति इस शिक्षा में नहीं है।व्यवहारिक दृष्टि से यह शिक्षा नितांत असफल है।शिक्षा के संदर्भ में भवानी प्रसाद की यह पंक्तियां बड़ी प्रभावित करती है- कि कुछ लिखकर सो,कुछ पढ़कर सो,जिस जगह जागा सवेरे,उस जगह से पढ़कर सो के विचार यानी कर्म प्रधानता को भरतीय शिक्षा के बुनियादी विचार से पूरी तरह अलग कर दिया गया।भारत में शिक्षा के चार स्तभ्य थे – धर्म,अर्थ,काम और मोक्ष।प्राचीन भारत की शिक्षा मोक्ष का मार्ग थी,लेकिन आज की शिक्षा भोग का मार्ग है।भोग का मार्ग बनने में कोई बुराई नहीं है,भोग का मार्ग किस तरह बनाया जा रहा है और किन शर्तों पर,यह सवाल जरूर खड़ा होता है।आइये पहले इस सवाल को समझते है।शिक्षा को लेकर एक बड़ा मशहूर जुमला है कि शिक्षे तेरा नाश हो जो तू नौकरी के हित बनी।भरतीय शिक्षा व्यवस्था के भीतर बुनियादी मुश्किलें यहीं से शुरु हुई जब शिक्षा और नौकरी दोनों को एक दूसरे के पूरक के तौर पर देखा जाने लगा।शिक्षण संस्थाए केवल डिग्रीधारक पैदा करने की मशीन हो गई और नौकरी पाने की शैक्षणिक योग्यता तय कर दी गई।आप ग्रेजुएट है ,तभी यह फॉर्म भर सकते हैं और पोस्ट ग्रेजुएट है तभी इस पद के योग्य है।शैक्षणिक योग्यता शब्द ने जो प्रतिस्पर्धा खड़ी की,उसकी वजह से शिक्षा के बुनियादी तत्व खतरे में पड़ गये।इस बात की क्या प्रमाण कि आपके पास यह डिग्री है तो आप इस पद के लिए योग्य ही है।आतंकवाद की तो कोई डिग्री नहीं होती और न ही कोई पढ़ाई,लेकिन दुनियाँ के सबसे बड़े आतंकवादियों और अपराधियों की बात करें तो उनकी शिक्षा और ज्ञान का स्तर आम शिक्षित लोगों से कहीं ज्यादा रहा है और उन्हें दुनियाभर की मालूमात थी।तो क्या यह माना जाए कि उन्हें जो शिक्षा दी गई वह आतंकवाद की थी।निश्चित तौर पर बुनियादी समझ विकसित करने में कमी रह गई।इसलिए कई बार यह साबित होता है कि शिक्षा की यह पद्धति बच्चों में कही से स्वतंत्र चेतना तो पैदा करती ही नहीं बल्कि भारतीय परिस्थितियों में आभाव के शिकार बचपन,समाज,परम्परा और अपने आस पास के पर्यावरण से अवलोकन कर बच्चा जो कुछ सीखता है,उसका भी गला घोंट देती है।
अतः हम साफ तौर पर कह सकते है कि है हमारी शिक्षस व्यवस्था रोजगार नहीं,बेरोजगार पैदा कर रही है।एक लम्बा वक्त और बड़ी मात्रा में पैसा खर्च करने के बाद अगर यह शिक्षा व्यवस्था शिक्षित बेरोजगार पैदा कर रही है तो ऐसी निर्गुण शिक्षा के क्या मायने..? आज शिक्षाशास्त्री,शिक्षक,शिक्षा नीति और शिक्षा प्रणाली के सामने एक प्रश्न है कि बौद्धिक विकास के साथ व्यक्ति के चरित्र का विकास क्यों नहीं हो पा रहा है? समाज को ऐसा व्यक्तित्व क्यों नहीं मिल पा रहा है जो अव्यवस्था की पट्टी को व्यवस्था की पट्टी पर ला सके।मस्तिष्क का संतुलन केवल पढ़ने से नहीं हो सकता।केवल बुद्धि के द्वारा नहीं हो सकता, बुद्धि का कार्य है विश्लेषण करना,निर्धारण और निश्चय करना।चरित्र का निर्माण बुद्धि का काम नहीं है।मस्तिष्क में अनेक केंद्र है।बुद्धि का केंद्र भिन्न है और चरित्र निर्माण का केंद्र भिन्न है।मस्तिष्क विद्या के आधार पर मस्तिष्क के केंद्रों का निर्धारण कर लिया गया है कि कौन सा केंद्र किसके लिए उतरदायी है।कौन से रासायनों के द्वारा कैसे विधुत संवेग पैदा होते है।किस रासायन के द्वारा उनका नियंत्रण होता है और किस केंद्र से कौन सी प्रवृति होती है।एक ओर महाविधालयों की संख्या लगातार उधर्वामुखी है,दूसरी ओर गुणात्मकता मे अविच्छिन्न गिरावट हो रही है।येन केन प्रकारेण अंको को जुटा लेना या जुगाड़ कर लेना ही,लगता है,उच्च शिक्षा का एकमात्र मकसद रह गया है।दोषी कौन है? यह प्रश्न ही बेमानी है क्योंकि बीमारी तो जड़ में पैठ बनाये हुए है। ऐसे समय में सभ्य लोगों का यह नैतिक कर्तव्य हो जाता है कि वे उच्च शिक्षा के क्षेत्र में व्याप्त बुराइयों को दूर करें।वे जन जागरण के माध्यम से यह संदेश हर व्यक्ति को पहुँचाये कि शिक्षा का मतलब व्यक्तित्व का विकास होता है।शिक्षित व्यक्ति उच्च चेतनायुक्त प्राणी होता है जो अपने चतुर्दिक नवीनता बिखेरता रहता है।सामाजिक कुरीतियों से लड़ने के लिए लोगों को प्रेरित करता है तथा अपने उदाहरण द्वारा समाज में एक नई मशाल जलाता है।शिक्षा के आकांक्षी छात्र छात्राओं को भी अपनी मानसिकता में परिवर्तन लाने की आवश्यकता है।वे किताबी ज्ञान को ही सर्वस्व समझने की भूल कर बैठते है।वह शिक्षा जो सतह पर ही चमकती है,उस कौवे के समान है जिसने हंस की पोशाक पहन रखी है।हम सबको समवेत उच्च शिक्षा के स्तर को बढ़ाने के लिए प्रयास करने की आवश्यकता है,जिससे सुखी समृद्ध भारत की नींव मजबूत हो सके तथा आम आदमी को किस्मत बदल सकें।प्रश्न यह है कि छात्रों को कैसी शिक्षा दी जाए? इस प्रश्न का संबंध इस बात से है कि छात्रों को हम कैसा नागरिक बनाना चाहते है, उन्हें कैसा मनुष्य बनाना चाहते है,उनके व्यक्तित्व को किस तरह गढ़ना और विकसित करना चाहते है? शिक्षा का संबंध इस बात से भी है कि आप देश को किस रूप में,किस रास्ते से किस मंजिल की ओर ले जाना चाहते है? हिंदी साहित्य में नयी राष्ट्रीयता को मुखरित करने वाले प्रथम वैतालिक हुए भारतेन्दु हरिश्चन्द्र।उन्होंने अपने समय की नयी पीढ़ी को आह्वान किया था कि विज्ञान पढो,नयी तकनीक सीखो,देश को आगे बढ़ाओ,क्योंकि इस युग में एक कदम पीछे हो जाने का मतलब है एक युग पीछे हो जाना।स्वामी विवेकानन्द जी ने कहा था भारत को जिस चीज जरूरत है,वह धर्म नहीं है,क्योंकि यहाँ धर्म तो बहुत है।भारत को जरूरत है ऐसे नौवजवानों की जो समुद्र में गोता लगा सके,अंतरिक्ष में उड़ान भर सके,जो क्रांति की दीप जला सकें आदि – आदि।विकसित देश आज भारत को एक विशाल बाजार के रूप में देख रहे है।वैश्विक अर्थव्यवस्था में आज शिक्षा बहुत बड़ा बाजार है।इसीलिए अमेरिका और ब्रिटेन जैसे देश अपने संस्थानों की ब्रांडिग में लगे है।इसी सोची समझी रणनीति के तहत विकसित देशों की प्रायोजित संस्थाएं विश्व स्तर पर रैकिंग कर उच्च शिक्षा में ज्ञान के नए बाजारावाद को जन्म दें रही है।
आज शिक्षा के मानदंड लड़खड़ा गये है।कक्षा बहिष्कार,हड़ताल,अनुशासनहीनता आदि का विशेष स्थान शिक्षा केन्द्रों से मिल रहा है,जिसकी जिम्मेदारी न केवल छात्र वर्ग पर है बल्कि पूरी व्यवस्था ही इसके प्रति जिम्मेदार है,शिक्षा के उद्धेश्य पर प्रश्नचिन्ह लगा है, वह एक भटकाव से गुजर रही है।कोई भी छात्र कैसे सामाजिक स्थितियों का विश्लेषण कर अपने कर्तव्य का निर्वहन कर सके,यह शिक्षा जगत के समक्ष यक्ष प्रश्न बन गया है।आज की वर्तमान शिक्षा पद्धति उन्हें विश्वास दिलाने में असमर्थ है कि विधार्थी स्वयं को दहेज,नग्न शोषण एवं समाज में व्याप्त आर्थिक विषमता जैसे लाइलाज बीमारियों के विरुद्ध खड़ा कर सके।किसी व्यक्ति में आरामतलबी जीवन जीने की भावना क्यों पनपती है? इसलिए कि बचपन से ही विधार्थी में समाजिक मूल्यों के प्रति निष्ठा उत्पन्न नहीं की जाती।अधिक संग्रह की भावना भी इसी निष्ठा के अभाव में पनपती है।व्यक्ति में अहम की मनोवृति सहज होती है।उसे निष्ठा के द्वारा परिष्कृत किये बिना वह श्रम और संतुलित व्यवस्था का समर्धन नहीं कर पाती।हम अपनी शिक्षा व्यवस्था का पतन अपनी आँखों के सामने ही होते हुए देखते रहे,उसके लिए कोई लड़ाई नहीं लड़ी कभी क्रांति के हालात नहीं पैदा किये।प्रगतिवादी समाज में एक नारा दिया जाता है -लड़ो लड़ाई लड़ने को,पढो समाज बदलने को।इस सोच में सुधार की जरूरत है।शिक्षा व्यवस्था को मजबूत बनाना है तो लड़ो लड़ाई पढ़ने को और पढो समाज बदलने को।लेकिन वर्तमान दौर में कुछ लोगों ने चन्द मार्क्सवादी किताबें पढ़ डाली हैं और वे अपने को काफी विद्वान समझने लगे हैं; लेकिन जो कुछ उन्होंने पढ़ा है वह उनके दिमाग में घुसा नहीं, उनके दिमाग में जड़ें नहीं जमा पाया और इस प्रकार उन्हें इसका इस्तेमाल करना नहीं आता तथा उनकी वर्ग-भावना पहले की ही तरह बनी रहती है। कुछ अन्य लोग घमण्ड में चूर हो जाते हैं और थोड़ा-सा किताबी ज्ञान प्राप्त करके ही अपने आप को धुरंधर विद्वान समझने लगते हैं और बड़ी-बड़ी डींगें हांकने लगते हैं; लेकिन जब भी कोई तूफान आता है, तो वे मज़दूरों और बहुसंख्यक मेहनतक़श किसानों के रुख से बिल्कुल भिन्न रुख अपना लेते हैं। ऐसे लोग ढुलमुलपन दिखाते हैं जबकि मज़दूर किसान मज़बूती से खड़े रहते हैं, ऐसे लोग गोलमोल बात करते हैं जबकि मज़दूर किसान साफ-साफ दो टूक बात करते हैं।
(लेखक के अपने विचार है।)


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