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करमा धरमा व्रत वनवासियों व ग्रामवासियों के बीच का संतरण सेतु

करमा धरमा व्रत वनवासियों व ग्रामवासियों के बीच का संतरण सेतु

  • उत्तरी मध्य, पूर्वी व पश्चिमी बिहार में प्रचलित है भाई-बहन का पर्व
  • झारखंड, मप्र, छत्तीसगढ़, ओडिशा में वनवासियों के बीच सर्वशक्तिमान प्रकृति की उपासना व व्रत का है विधान

राणा परमार अखिलेश।दिघवारा
लाॅक फ्री कालावधि में सारण जिले के बाजारों में सेब, केले,अमरूद, गागल, संतरा, अनानास से लेकर कपड़े की दुकानों में कतार बद्ध भीड़ ही बता रही है कि क्यों है और कैसी है भीड़? जी हाँ शनिवार को करमा धरमा है और बहन के यहाँ करमा भैया ये पूजन सामग्री व नए वस्त्र लेकर जाएँगे । बहरहाल, करमा धरमा जैसा लोक व्रत वनवासियों व ग्रामवासियों के बीच का संतरण सेतु है ।
क्या है करमा धरमा व्रत यद्यपि भाद्रपद एकादशी का यह पावन व्रत वैदिक कर्मा एकादशी के रूप वैष्णव मतावलंबियों में प्रचलित है । किंतु लोक जीवन में भाई-बहन के अटूट संबंधों को मजबूत करने वाला ‘करमा धरमा’ बिहार, झारखंड, मप्र, छत्तीसगढ़, ओडिशा का प्रमुख व्रत है।
विवाहिता बहन के यहाँ भाई जाते हैं, पूजन सामग्रियों व नए वस्त्र लेकर सारण प्रमंडल सहित पूर्वी पश्चिमी, उत्तरी बिहार में लोक व्रत ‘करम धरमा’ का श्रीगणेश विवाहिता बहने भाई द्वारा लायी गयी, पूजन सामग्रियों व नए वस्त्रों से करती है। भाद्रपद एकादशी को होने वाले इस व्रत में बहनें कास (झूर) को धरमा प्रतीक स्वीकार कर करमा भैया द्वारा लाए गए फल, फूल व नए वस्त्र धारण कर पूजन करती है और करमा धरमा गीत गाती है। निराहार रहकर अपने भाई के दीर्घ जीवन की कामना करती हुई निशा-जागरण करती है और द्वादशी को प्रातः काल में धरमा (झूर) को नदियों में प्रवाहित कर स्नानादि से निवृत्त हो कर व्रत का ‘पारन’ करती है।
वनवासियों में विशेष उमंग व उत्साह पूर्वक मनाए जाते हैं, ये व्रतोत्सव झारखंड, मप्र, छत्तीसगढ़, ओडिशा जैसे प्रदेशों में वनवासियों का यह लोक व्रतोत्सव भाई-बहनों के अटूट स्नेह व प्रकृति की उपासना है। सात अन्नो के बीज, सात प्रकार के फलों की व्यवस्था की जाती है,करमा वृक्ष की कोमल डाली एक ही वार में भाई काटकर लाता है,झर के बीच विधिवत स्थापित कर अंकुरित बीजों व फसलों को सजाया जाता है, चारों ओर से व्रती बहने बैठती है और बैगा( वनवासी- पुजारी) करमा-धरमा कथा कहता हैं । उपवास व्रत है यह कथा श्रवण के बाद वनवासी लोक गीत, नृत्य में पखावज, बेहला, चंज ,डफली, नगाड़े की ताल व स्वर में वन प्रान्त संगीतमय होकर नर्तन कर उठता है। सूर्य अर्घ्य अर्पण व दूसरे दिन नदी में धरमा विसर्जन के साथ संपन्न होता है यह व्रत ।
न मंदिर और न प्रतिमा की आवश्यकता इस पावन लोक व्रतोत्सव में सिर्फ और सिर्फ सर्वशक्तिमान प्रकृति की ही पूजा, उपासना व व्रत का विधान है। बहरहाल, इस व्रत में न मंदिर न प्रतिमा की आवश्यकता है न बलि की। प्रकृति से निकटता और पर्यावरण की रक्षा ही इस व्रत का मूल उद्देश्य है।
मसीही संप्रदाय में भी उतना ही लोकप्रिय वनवासियों का मतांतण यद्यपि हुए हैं वनांचलों में चाहे कैथोलिक हों या प्रोटेस्टेंट ही क्यों न हों आम वनवासियों सनातनियों की तरह यह व्रत मसीही मतावलंबियों भी उतना ही लोकप्रिय है जितना हिंदुओं में । बहरहाल, मोहम्मदी मतावलंबियों को छोड़ सभी मनाते हैं, यह व्रतोत्सव ।

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