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कर्बला: मानवता के लिए इमाम हुसैन ने दिया बलिदान

कर्बला: मानवता के लिए इमाम हुसैन ने दिया बलिदान

डॉ इक़बाल इमाम की कलम से
असिस्टेंट प्रोफेसर, राजेन्द्र कॉलेज (जय प्रकाश विश्विद्यालय छपरा)

राष्ट्रनायक प्रतिनिधि।

छपरा(सारण)। मोहर्रम अरबी कैलेंडर के प्रथम महीने का नाम है। इसकी असल पहचान कर्बला से है। कर्बला की घटना आज से चौदह सौ वर्ष पूर्व इराक़ में घटी थी। वही स्थान आज दुनिया के सबसे बड़े धार्मिक स्थलों में से एक कर्बला के नाम से विख्यात है। सन् 61 हिजरी में घटी इस घटना में पैगंबर मोहम्मद साहब के नवासे इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम और उनके बहत्तर साथियों को एक बर्बर, अत्याचारी, भ्रष्ट और निरशंस शासक यज़ीद के आदेश पर बर्बरतापूर्वक मार दिया गया था। शंकर कैमूरी ने इसका सुन्दर चित्रण किया है: नबी का दीन मोअत्तर रहे न क्यों हरदम, नबी के दीन में ख़ूने जिगर हुसैन का है।कर्बला की दिल दहला देने वाली घटना की पृष्ठभूमि तब तैयार हुई जब शाम की गद्दी पर सत्तासीन होते ही यजीद ने पैगंबर मोहम्मद साहब के सिद्धांतों और मानवता के बुनियादी मूल्यों को अपने बर्बर कुकृत्यों से रौंदना शुरू किया। अपने दुष्कर्मों को बेरोकटोक जारी रखने और इसे उचित सिद्ध करने के लिए उसने आसुरी शक्तियों से इस्लामी जगत की बड़ी-बड़ी हस्तियों को अपनी बैअत (अधीनता) स्वीकार करने के लिए बाध्य किया। यजीद ने धर्म की जगह अधर्म, शरीयत की जगह बिदअत, न्याय की जगह अन्याय, नैतिकता की जगह अनैतिकता और मानवता की जगह बर्बरता को स्थापित करने में कोई कोर- कसर नहीं छोड़ी। वह अपनी अधीनता स्वीकार नहीं करने वालों को आतंकित करने लगा। उसने नवासा ए रसूल इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम को अपनी अधीनता (बैअत) स्वीकार करने के लिए साम, दाम, दंड और भेद का बारम्बार प्रयोग करने की कोशिश की ।

इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम पैगंबर मोहम्मद साहब के वास्तविक धार्मिक उत्तराधिकारी थे। वे जानते थे कि अगर वे यजीद की अधीनता स्वीकार कर लेंगे, तो उनके नाना पैगंबर साहब की सारी मेहनत बर्बाद हो जाएगी। इस्लामी शरीयत, न्याय, सत्य और मानवता के उसूल तार-तार हो जाएंगे। यज़ीद इमाम हुसैन की हत्या का षडयंत्र करने लगा । उसने हज के दौरान मक्का में हत्या की योजना बनाई । लेकिन इमाम हुसैन उसके नापाक इरादों को समझ चुके थे वह जानते थे। वे जानते थे कि अगर यजीद के कुकृत्यों का प्रतिरोध किए बगैर वे शहीद हो गए तो अनर्थ हो जाएगा ।दीन, शरीयत, इंसाफ और इंसानियत के बुनियादी उसूल तार-तार हो जायेंगे। इमाम ने अपने पूर्वजों की भांति अधर्म और अत्याचार के विरुद्ध प्रतिरोध का संकल्प लिया। शांति और सौहार्द की पावन भूमि खान ए काबा की पवित्रता को खून खराबा से बचाने के इरादे से अपने हज के निर्णय को परिवर्तित कर वे परिजनों और अपने साथियों के साथ इराक़ की दिशा में चल पड़े। रास्ते में यज़ीद के लश्कर ने उन्हें कर्बला के बयाबान में घेर लिया। यहीं पर वह ऐतिहासिक जंग हुई जिसकी मिसाल कहीं नहीं मिलती ।कर्बला की जंग किसी दो सेना के बीच जंग नहीं थी। इसमें एक तरफ़ असलहों से लैस यजीद की बहुत बड़ी सेना थी। दूसरी तरफ़ पैगम्बर मोहम्मद साहब के नवासे इमाम हुसैन के साथ परिजन और साथियों को मिला कर कुल 72 लोग थे । इनमें छह माह के बच्चे से लेकर सत्तर साल के वृद्ध तक शामिल थे। अल्प संख्या में होकर भी इनके हौसले और संकल्प बहुत बुलंद थे । वे इमाम हुसैन से बेपनाह मोहब्बत करते थे और उनके लिए सर्वस्व न्योछावर करने वाले लोग थे।

10 मोहर्रम को, जिसे रोज़ ए आशूरा कहते हैं, यह जंग शुरु हुई । तीन दिनों से भूखे और प्यासे इमाम हुसैन के साथियों ने एक-एक कर अपनी शहादत देनी शुरू की ।अदम्य साहस और पराक्रम से युद्ध लड़ते हुए वे वीरगति को प्राप्त करते रहे। कर्बला के रेगिस्तान की तपती धूप और भूख प्यास के बावजूद अदम्य साहस के साथ लड़ते हुए एक-एक कर सभी शहीद हुए। अंत में इमाम हुसैन अपने छह माह के बेटे अली असगर, जो प्यास से मूर्छित हो रहे थे, को लेकर यज़ीद के लश्कर की तरफ़ बढ़े। नज़दीक पहुंचकर बेटे को हाथ से ऊपर उठाया और यज़ीदी लश्कर को संबोधित किया, कहा कि अगर तुम लोगों की नज़र में, मैं दोषी हूं, तो इस छह माह के बच्चे का क्या जुर्म है, जो तीन दिनों से भूखा प्यासा है। उसे पानी पिला दो। बर्बर यज़ीदी लश्कर ने बच्चे को पानी तो नहीं दिया बल्कि एक त्रिशूल (तीन फलों वाला तीर) चला जो बच्चे के गले पर आर-पार हो गया । इस तरह यह मासूम बच्चा भी भूखा प्यासा तपते रेगिस्तान में शहीद हो गया । सबसे अंत में इमाम हुसैन जो वीरगति प्राप्त कर चुके अपने साथियों और परिजनों के शवों को ला-ला कर पूरी तरह से थक चुके थे, इसके बावजूद बड़े पराक्रम और साहस से शत्रुओं से लड़ते हुए वीरगति को प्राप्त हो गए। किसी शायर ने इन पंक्तियों के माध्यम से कर्बला के शहीदों को श्रद्धांजलि अर्पित की है: वो जिसने नाना का वादा वफ़ा कर दिया, घर का घर सुपर्द-ए-खुदा कर दिया, नोश कर लिया जिसने शहादत का जाम, उस हुसैन इब्ने-हैदर पर लाखों सलाम।

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