किसान आंदोलन चर्चा के केंद्र में, लेकिन हाशिये पर महिला किसान
दिल्ली (एजेंसी)। इन दिनों देश में कृषि और किसान आंदोलन चर्चा के केंद्र में है, लेकिन इन चचार्ओं में महिला किसानों की बात हाशिये पर आ गई है। उनकी कोई सुधि भी नहीं लेता, जबकि खेती-किसानी में होने वाले हादसे और नुकसान की कीमत ज्यादातर महिला किसानों को ही चुकानी पड़ती है। ‘महिला किसान अधिकार मंच’ के मुताबिक, खेती-किसानी से जुड़े 75 फीसदी काम महिलाएं ही करती हैं, लेकिन उनके नाम पर केवल 12 फीसदी जमीन ही है। जब देश की आर्थिक रूप से सक्रिय 80 प्रतिशत महिलाएं खेती-किसानी में लगी हैं, तो जाहिर है, खेती-किसानी की जिम्मेदारी धीरे-धीरे महिला किसानों पर बढ़ती जा रही है। फिर भी उनकी अलग से न कोई पहचान है और न ही कोई श्रेणी तय की जा रही है। ऐसे में वे सरकारी सहयोग से भी वंचित हो रही हैं।
किसान आंदोलन के दौरान कृषि कानूनों की बातें जोर-शोर से की जा रही हैं। हकीकत यह है कि पिछले सत्तर वर्षों में किसानों को उनकी जमीन पर टिकाए रखकर उनके समग्र विकास के लिए कोई पहल नहीं की गई। अनेक किसान आंदोलन हुए, खेती में कई नवाचार हुए, ‘हरित क्रांति’ भी हुई। कृषि के नाम पर कॉलेज-यूनिवर्सिटी खोले गए। देश अनाज के मामले में आत्मनिर्भर भी हो गया, लेकिन आए दिन किसान आत्महत्या कर रहे हैं। अपना वजूद बचाने के लिए उन्हें लंबे आंदोलन करने पड़ रहे हैं। उनकी उपेक्षा का आलम यह है कि सरकार कृषि कानून बनाती है, तो उनसे परामर्श लेना भी जरूरी नहीं समझती। अभी जब किसान आंदोलन कर रहे हैं, तो मौजूदा खेती-किसानी का काम महिलाओं के कंधे पर आ गया है। वे घरेलू काम के साथ खेती की देखभाल कर रही हैं और समय निकाल कर आंदोलनों में भी शरीक हो रही हैं। महिलाएं खेती-किसानी में बरसों से अपना योगदान देती आई हैं, लेकिन उनको हम कम करके आंकते हैं।
संयुक्त राष्ट्र के मुताबिक, खेती-किसानी के क्षेत्र में 43 फीसदी महिलाओं का योगदान होता है, लेकिन महिलाएं किसान नहीं, मजदूर कही जाती हैं। वर्ष 2011 की जनगणना के मुताबिक, पूरे देश में छह करोड़ महिला किसान थीं, जबकि वास्तव में महिला किसानों की संख्या इससे कई गुना ज्यादा है। पिछले एक-दो दशकों में ग्रामीण युवा खेती-किसानी से कटते जा रहे हैं। उनका रुझान शहरों में जाकर नौकरी या व्यापार करने की ओर बढ़ता जा रहा है। नतीजतन खेती की जिम्मेदारी महिला किसानों के कंधों पर आती जा रही है। इसके अलावा, जिन मध्यम और सीमांत किसान परिवारों के पुरुष खेती छोड़कर दूसरे काम-धंधों से जुड़ रहे हैं, उनकी जगह भी महिलाएं ही खेती संभाल रही हैं। आत्महत्या करने वाले किसानों के परिवार की महिलाओं पर ही खेती की जिम्मेदारी आती है। इन सबके बावजूद उनका कोई सम्मान नहीं है। उन महिला किसानों को भी किसान का दर्जा नहीं मिलता, जिन्होंने अपने दम पर कृषि क्षेत्र में पुरुषों के मुकाबले बेहतर मुकाम हासिल किया है।
महिलाओं को किसान का दर्जा मिले, इसके लिए जनसंगठन ‘एकता परिषद’ की महिला कार्यकतार्ओं ने राष्ट्रव्यापी जागरण यात्रा निकाली थी। अनेक प्रदर्शन भी किए। ‘एकता परिषद’ महिला किसानों को बढ़ावा देने के लिए विभिन्न परियोजनाओं का संचालन भी कर रही है। इसके पहले बिहार में ‘भूदान यज्ञ बोर्ड’ ने हजारों महिला किसानों को जमीन आवंटित कर उन्हें महिला किसान होने का एहसास कराया था। आजादी के बाद से अब तक महिला किसानों के नाम पर कोई योजना नहीं बनी है। योजना तो दूर, उनके वजूद की पहचान तक नहीं की जाती। वे लगातार उपेक्षा की शिकार होती रही हैं। अभी हाल में केंद्र सरकार ने ‘महिला किसान सशक्तीकरण योजना’ की शुरूआत की है। योजना के तहत 24 राज्यों और केंद्र-शासित प्रदेशों में 84 परियोजनाओं के लिए 847 करोड़ रुपये आवंटित किए गए हैं। देश में खेती-किसानी से जुड़ी महिलाओं को सशक्त बनाने के लिए शुरू की गई इस योजना के तहत महिला किसानों को खेती के लिए कर्ज के साथ खाद और सब्सिडी देने का प्रावधान है। दुर्भाग्यपूर्ण है कि सरकार की इस योजना के बारे में ज्यादातर महिलाओं को जानकारी ही नहीं है।


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