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निजी अस्पताल से मिली निराशा, सरकारी अस्पताल ने लौटायी मुस्कान

निजी अस्पताल से मिली निराशा, सरकारी अस्पताल ने लौटायी मुस्कान

  • मशरक के कामेंद्र ने टीबी को दिया मात
  • छह माह के नियमित दवा सेवन से मिली जीवनदान
  • क्षेत्र की आशा कार्यकर्ता बनी सूत्रधार
  • अब पूरी तरह से स्वस्थ है कामेंद्र राम

छपरा (सारण)। हौसला बुलंद हो तो कठिन लक्ष्य को हासिल  करने में सिर्फ़ मदद नहीं करता, बल्कि चुनौतियों से लड़ने की समझ भी पैदा करता है. टीबी जैसे संक्रामक रोग को मात देने के लिए भी हौसले की जरूरत होती है.   ऐसी ही मिसाल पेश की है सारण जिले के मशरक प्रखंड के गंगौली गांव निवासी कामेंद्र राम ने। वर्ष 2019 में कामेंद्र राम को खांसी शुरू  हुयी। लगातार एक सप्ताह तक  उन्हें  खांसी की समस्या थी। इस बात को घर वालों ने यह कहते हुए नजर अंदाज कर दिया कि टॉन्सिल बढ़ गया है, इसलिए खांसी हो रही है। खांसी रही तो सांस लेने में भी दिक्कत होने लगी। जिसके बाद वह पटना के एक निजी अस्पताल में चिकित्सकीय सलाह लिया । चिकित्सक ने दवा लेने के सलाह दी। करीब 15 दिनों तक दवा खाने के बाद कामेंद्र राम के सेहत में कोई सुधार नहीं हुआ। तभी इसकी जानकारी क्षेत्र की आशा कार्यकर्ता लक्ष्मी देवी को मिली। आशा कार्यकर्ता कामेंद्र के घर पहुंची और उसे जांच के लिए सरकारी अस्पताल में ले गयी। जहां पर जांच में पता चला कि  उन्हें  टीबी है। उसके बाद चिकित्सक ने दवा सेवन करने की सलाह दी। उन्होंने सरकारी दवा पर भरोसा किया और पूरा इलाज भी किया।  करीब  6 माह तक नियमिति दवा के सेवन करके कामेंद्र टीबी जैसे गंभीर  बीमारी को मात देने में सफल हुए.

36 किलोग्राम हो गया था वजन:

कामेंद्र राम बताते हैं “जब मुझे टीबी हुआ तो लगातार मुझे कमजोरी होने  लगी. , मेरा वजन घटकर 36 किलोग्राम हो गया था। लेकिन हमने हिम्म्त नहीं हारी। तय समय पर दवा लेने और स्वास्थ्य संबंधी डॉक्टरों के दिशा-निर्देशों का पालन पूरी तरह से पालन किया। जिसकी बदौलत उन्होंने महज 6 महीने के अंदर ही टीबी पर जीत दर्ज कर ली। अब मैं पूरी तरह से स्वस्थ हूं। मेरा वजन बढ़कर 52 किलोग्राम हो गया है”।

सरकारी अस्पताल ने लौटायी मुस्कान:

गरीब परिवार से  संबंध रखने वाले कामेंद्र राम ने बताया कि  वह  जागरूकता के अभाव में पहले निजी अस्पताल में अपना इलाज कराने चले गये। वहां के चिकित्सक के अनुसार 15 दिनों तक दवा सेवन भी किया। जो दवा काफी महंगा  थी। जिसका वहन करना  उनके  परिवार के लिए काफी मुश्किल था। उन्होंने बताया 15 दिनों की दवा लेने के बाद भी उन्हें  इसका कोई फायदा नहीं हुआ। सरकारी अस्पताल ही  उनके  लिए जीवनदायनी साबित हुआ। सरकारी अस्पताल से टीबी की सभी दवाएं  उन्हें निःशुल्क मिली.  समय-समय पर चिकित्सकों की सलाह भी मिलता रहा है। उन्होंने बताया दवा के साथ उन्हें  पोषाहार के लिए प्रति माह स्वास्थ्य विभाग के द्वारा 500 रूपये भी मिलते रहे.

अब दूसरों को कर रहें प्रेरित:

टीबी जैसे गंभीर  बीमारी  से जंग जीतने के बाद कामेंद्र राम अपने गांव के लोगों को भी इस  बीमारी से बचाव के लिए जागरूक करते हैं। कामेंद्र  कहते हैं ‘‘मेरा कर्तव्य है कि अच्छी जानकारी लोगों को दूं। ताकि मुझे जो परेशानी हुई वो किसी और व्यक्ति को नहीं हो।  टीबी लाइलाज बीमारी  नहीं है। नियमित दवाओं के सेवन से इसे हराना आसान है’’।

छुआछूत का व्यवहार गलत:

टीबी विजेता कामेंद्र राम कहते है टीबी से ग्रसित बीमारी के साथ हमारे समाज में लोग छुआछूत का व्यवहार करते हैं। लोग उससे बातचीत करना तक बंद कर देते हैं, जो गलत है। उन्होने ने कहा  उनके  साथ तो इस तरह का व्यवहार नहीं हुआ। इसी तरह किसी अन्य टीबी के मरीज से भी छूआछूत का व्यवहार नहीं करना चाहिए। टीबी की दवाई हर सरकारी अस्पताल में मुफ्त मिलती है तथा  चिकित्सक द्वारा रोगी की निरंतर मॉनिटरिंग भी की जाती है।

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