राष्ट्रनायक न्यूज। आगामी टोक्यो ओलंपिक खेलों में भाग लेने के लिए भारत के 122 खिलाड़ियों के नामों की घोषणा हो गई है। कोरोना काल ने ओलंपिक खेलों का मजा किरकिरा कर दिया है, फिर भी भारत की जनता अपने खिलाड़ियों के श्रेष्ठ प्रदर्शन की उम्मीद तो करेगी ही। ये सारे खिलाड़ी पिछले चार साल से कड़ी मेहनत कर रहे थे। अब समय आया है, अपनी प्रतिभा दिखाने का। भारतीय दल में सबसे अधिक 30 खिलाड़ी हरियाणा से हैं। इसके बाद पंजाब से 16 खिलाड़ी ओलंपिक में भारत की नुमाइंदगी करेंगे। तीसरे स्थान पर 12 खिलाड़ियों के साथ तमिलनाडु है। उत्तर प्रदेश से आठ, दिल्ली से पांच, केरल से आठ, मणिपुर से पांच और महाराष्ट्र से छह खिलाड़ी टीम में शामिल हैं। पर अफसोस की बात है कि देश के सात राज्यों से एक भी खिलाड़ी इस विशालकाय भारतीय दल में नहीं है। इनमें बिहार के अलावा छत्तीसगढ़, गोवा, मेघालय, नगालैंड और त्रिपुरा भी शामिल है।
सबको पता है कि बिहार देश के ज्ञान की राजधानी के रूप में प्रसिद्ध है। लेकिन बिहार खेलेगा कब? पिछले रियो ओलंपिक खेलों में भी 10 करोड़ की आबादी वाला यह विशाल प्रदेश भारतीय टोली में एक भी खिलाड़ी नहीं भेज सका था। आखिर क्यों? क्यों बिहारी खेलते नहीं हैं? औसत बिहारी तो क्रिकेट संसार से लेकर टेनिस, फुटबॉल और अन्य सभी खेलों पर लंबी गंभीर बहस कर सकता है। उसे खेलों की दुनिया की हलचल का पता तो रहता है। पर चाणक्य, चन्द्रगुप्त और सम्राट अशोक की संतानें खेलने से बचती क्यों हैं?
बात राष्ट्रीय खेल हॉकी से ही शुरू करना चाहेंगे। समूचे बिहार में गिनती के एक-दो एस्ट्रो टर्फ से ज्यादा सुसज्जित हॉकी मैदान भी नहीं होंगे। जरा सोचिए कि राष्ट्रीय नायक दादा ध्यानचंद के देश में इस तरह के राज्य भी हैं, जहां पर एस्ट्रो टर्फ के मैदान नहीं हैं। जिला केंद्रों में भी खिलाड़ियों के प्रशिक्षण केंद्र नहीं हैं। आपको समूचे बिहार में एक भी कायदे का स्वीमिंग पूल मिल जाए, तो गनीमत होगी। सेना और अर्ध सैनिक बलों के कुछ स्वीमिंग पूल हैं। पर उनका तो सैन्यकर्मी ही इस्तेमाल करते हैं। इस पृष्ठभूमि में कहां से तैयार होंगे खिलाड़ी बिहार में?
सच बात तो यह है कि बिहार में खेलकूद को बढ़ावा देने की कभी कोई ईमानदार कोशिश ही नहीं हुई है। राज्य में खेलों की संस्कृति विकसित न हो पाने के लिए सरकारें, सभी दलों के राजनेता और नौकरशाह दोषी माने जाएंगे। अभिभावक भी अपनी जिम्मेदारी से बच नहीं सकते। उनका सारा फोकस बच्चों की पढ़ाई और उसके बाद उनके बच्चों का किसी प्रतियोगी परीक्षा को क्रैक करने-कराने तक ही रहता है। रियो खेलों में कांस्य पदक विजेता साक्षी मलिक के पिता दिल्ली परिवहन निगम में मामूली बस कंडक्टर थे। उनकी आर्थिक दृष्टि से कोई हैसियत नहीं थी। फिर भी उन्होंने अपनी पुत्री को खेलों में आगे बढ़ने के लिए प्रेरित किया।
हरेक बिहारी अभिभावक चाहता है कि उसका बच्चा सिविल सेवा परीक्षा पास करके डीएम बन जाए! परंतु वह यह सोचता भी नहीं है कि उसके बच्चे के लिए खेलों में भी करिअर हो सकता है। यह इसलिए भी है कि सरकारों की नीतियां खिलाड़ियों को जितनी प्रोत्साहन देने वाली होनी चाहिए, उतनी हैं नहीं। इस पर पुनर्विचार की जरूरत है। बिहार में खेलों के विकास की दृष्टि से एक बड़ा कदम यह हो सकता है कि राज्य कोरोना काल के नेशनल गेम्स की मेजबानी करे। इससे राज्य में कई स्तरीय स्टेडियम बन जाएंगे।
मुझे याद है कि मेरे बचपन के दिनों में बिहार का शायद ही कोई अभागा गांव होगा, जहां फुटबाल की एक अच्छी टीम नहीं होती होगी। यह स्थिति सारे सरकारी स्कूलों की थी। अब मणिपुर देश के फुटबॉल गढ़ के रूप में उभर रहा है। पिछले अंडर 17 विश्वकप फुटबॉल चैंपियनशिप में खेली भारतीय टीम में आठ खिलाड़ी मणिपुर से थे। मणिपुर से देश को मेरी कॉम तथा डिंको सिंह जैसे महान मुक्केबाज मिल रहे हैं। क्या मणिपुर बहुत विकसित राज्य है? जब छोटा-सा अविकसित राज्य मणिपुर देश को श्रेष्ठ खिलाड़ी दे सकता है, तो बिहार क्यों नहीं? क्या देश बिहार से सिर्फ बाढ़, प्राकृतिक आपदा, स्तरविहीन राजनीति और अपराध जैसी तमाम नकारात्मक ही खबरें सुनता रहेगा?


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