- स्वराज्य मेरा जन्म सिद्ध अधिकार है
राकेश बिहारी शर्मा, सचिव।
राष्ट्रनायक न्यूज। देश के लोकप्रिय स्वतंत्रता संग्राम के वीर सेनानी गरम दल के क्रांतिकारी नेता बाल गंगाधर तिलक का जन्म महाराष्ट्र के कोंकण प्रदेश (रत्नागिरि) के चिक्कन गांव में 23 जुलाई 1856 को हुआ था। इनके पिता गंगाधर रामचंद्र तिलक एक धर्मनिष्ठ ब्राह्मण थे। लोकमान्य तिलक भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के उन अमर तथा श्रेष्ठ बलिदानियों में गिने जाते हैं, जो अपनी उग्रवादी चेतना, विचारधारा, साहस, बुद्धि व अटूट देशभक्ति के लिए जाने जाते हैं। उनका व्यक्तित्व एवं कृतित्व एक ऐसे संघर्ष की कहानी है, जिसने भारत में एक नए युग का निर्माण किया। भारतवासियों को एकता और संघर्ष का ऐसा पाठ सिखाया कि वे स्वराज्य के लिए संगठित हो उठे। बाल गंगाधर तिलक जी गणित और खगोल विज्ञान के प्रकांड विद्वान थे। वे एक राजनेता ही नहीं, महान् विद्वान, दार्शनिक भी थे। स्वराज्य मेरा जन्म सिद्ध अधिकार है का नारा बुलन्द करने वाले तिलक स्वाधीनता के पुजारी थे।
आज पुरे में गजानन विराजमान हैं, पूरा माहौल गणपति भक्ति में डूबा है। पर क्या आप जानते हैं कि गणपति उत्सव आरंभ कैसे हुआ? यह किसने शुरू किया और इसके पीछे क्या मंशा थी? देश में सबसे पहले मराठा पेशवाओं के द्वारा अपने पूज्य देवता गणेश को अपने घर में पूजा। जिसे गणपति उत्सव के रुप में 1893 में महाराष्ट्र से लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक ने की। वह 1893 के पहले भी गणपति उत्सव बनाया जाता था पर वह सिर्फ अपनेझ्रअपने घरों में ही। उस समय आज की तरह पंडाल नहीं बनाए जाते थे और ना ही सामूहिक गणपति विराजते थे।
भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की स्थापना 1885 में हुई, जिसका पहला अधिवेशन 28 दिसम्बर 1885 में बम्बई में हुआ, जिसके अध्यक्ष कलकत्ता हाईकोर्ट के बैरिस्टर व्योमेशचंद्र बनर्जी थे। 1892 में व्योमेशचंद्र बनर्जी से मिलने तथा ह्लस्वराजह्व की रणनीति तैयार करने के उद्देश्य से, बालगंगाधर तिलक अगस्त महीने के अंतिम सप्ताह में कलकत्ता गए। वहीं लोगों से मिलने पर पता चला कि बिहार में एक हिंदी सप्ताहिक पत्र ह्लबिहार बंधुह्व निकल रहा है, जिसका कर्ताधर्ता एक मराठी ब्राह्मण पंडित केशवराम भट्ट, मदन मोहन भट्ट तथा संपादक हसन अली हैं। उनसे मिलने की जिज्ञासा लिए पटना पहुंचे, पर पता चला भट्ट जी अपने पैतृक शहर बिहार में गणेश पूजा (26 अगस्त, मंगलवार) करने गए हैं। फिर वे मिलने के लिए पटना से बिहार आए। यहां पर उन्होंने 5 सितंबर (अनंत चतुर्दशी) को गणपति विसर्जन का उत्सव देखा, जिसमें हिन्दू मुस्लिम समुदाय के लोग एक साथ शामिल थे। मिलजुलकर रहने से ज्यादा महत्वपूर्ण बात है कि दोनों के घर के बीच एक साझी दीवार होती थी। आज भी उस की विरासत शेष है। बिहारशरीफ के मुहल्ले सलेमपुर, आशानगर, सोहसराय, भैसासुर, मोगलकुआँ, खासगंज इत्यादि जगहों पर मुस्लिम समुदाय और हिन्दू समाज आपस में मिल-जुल कर रहा करते थे। दोनों समुदाय के लोग मिलकर सभी धर्म के उत्सवों में भागीदारी सुनिश्चित कर आपस में मिलकर मनाते थे। ये बात उनके दिल को छू लिया। हिन्दू मुस्लिम एकता के गणपति पूजा की अवधारणा को उन्होंने अंगीकार कर महाराष्ट्र में विनायक चतुर्थी का पहली बार 14 सितंबर(भाद्रपद शुक्ल चतुर्थी तिथि दिन गुरुवार) 1893 से प्रारंभ किया, जिसका विसर्जन 24 सितंबर, अनंत चतुर्दशी को किया गया। यहां से इस परम्परा की शुरूआत गंगाधर तिलक के द्वारा किया गया।
तिलकजी ‘स्वराज’ के लिए संघर्ष कर रहे थे और वे अपनी बात को ज्यादा से ज्यादा लोगों तक पहुंचाना चाहते थे। इसके लिए उन्हें ऐसा सार्वजानिक मंच चाहिए था, जहां से उनके विचार अधिकांश लोगों तक पहुंच सके। इस काम को करने के लिए उन्होंने गणपति उत्सव को चुना जिसे आज हम देखते हैं। ‘बिहार बंधु’ के नाम से राज्य का पहला साप्ताहिक समाचार पत्र वर्ष 1872 में बिहारशरीफ से निकला था। इस पत्र के संचालक पण्डित केशवराम भट्ट, पण्डित मदन मोहन भट्ट, पण्डित गदाधर भट्ट तथा संपादक मुंशी हसन अली थे। साप्ताहिक पत्र ह्लबिहार बंधुह्व का प्रकाशन बिहारशरीफ और मुद्रण श्रीपुरण प्रकाश प्रेस कोलकाता से होता था। ये लोग बिहारशरीफ के रहनेवाले सहपाठी व मित्र थे। इसका प्रकाशन बिहार (बिहारशरीफ) तथा मुद्रण,श्रीपूरण प्रेस, कलकत्ता से होता था। 1875 में केशवराम भट्ट इसके संपादक बन गए तथा छापाखाना पटना में लग गया। ज्ञातव्य है कि मदनमोहन भट्ट व केशवराम भट्ट का परिवार मराठी मूल के ब्राह्मण थे। इनके पूर्वज मराठा सेना में थे और 1741 में बंगाल पर मराठा आक्रमण के दौरान बार्डर पर तैनात थे। लेकिन युद्ध के बाद वे यही रह गए थे। बिहारशरीफ के चौखंडी पर मुहल्ले में आज भी उनके भव्य परिसर के भग्नावशेष विद्यमान है। तत्कालीन समय में यह बिहारशरीफ का सबसे ज्यादा पढ़ालिखा परिवार था।
लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक जी जिज्ञासावश तथा आजादी की अलख जगाने के लिए ह्लबिहार बंधुह्व के सम्पादक से मिलने बिहारशरीफ आए और उसी दौरान गणेश पूजोत्सव को देखा और उस समारोह में शामिल हुए। ह्लस्वराज यह मेरा जन्मसिद्ध अधिकार है और मैं इसे लेकर ही रहूंगाह्व का नारा लगाने वाले लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक जी ने बिहार से जब गये तो मराठी युवाओं में जोश व आजादी के प्रति ललक और उमंग पैदा करने के लिए बिहारशरीफ-सोहसराय से एक गणेश की प्रतिमूर्ति ले गये थे, गणेश उत्सव मनाने के लिए। उनके द्वारा रखा गया महाराष्ट्र में गणेश पूजा कच्ची मिट्टी से गणेश की मूर्ति हर साल बनवाकर स्थापित होती है। तिलक जी ने वहीं गणेश उत्सव शुरू करवाया और युवाओं को एकत्र कर आजादी दिलाने के अभियान में जोड़ा, तब से आज तक लगातार गणेश पूजा का आयोजन हर साल किया जा रहा है। तिलक के इस कार्य से दो फायदे हुए, एक तो वह अपने विचारों को जन-जन तक पहुंचा पाए और दूसरा यह कि इस उत्सव ने आम जनता को भी स्वराज के लिए संघर्ष करने की प्रेरणा दी और उन्हें जोश से भर दिया। इस तरह से गणपति उत्सव ने भी आजादी की लड़ाई में एक अहम् भूमिका निभाई। लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक ने गणोत्सव को को जो स्वरूप दिया उससे गणेश राष्ट्रीय एकता के प्रतीक बन गये। तिलक के प्रयास से पहले गणेश पूजा परिवार तक ही सीमित थी। पूजा को सार्वजनिक महोत्सव का रूप देते समय उसे केवल धार्मिक कर्मकांड तक ही सीमित नहीं रखा, बल्कि आजादी की लड़ाई, छुआछूत दूर करने और समाज को संगठित करने तथा आम आदमी का ज्ञानवर्धन करने का उसे जरिया बनाया और उसे एक आंदोलन का स्वरूप दिया। इस आंदोलन ने ब्रिटिश साम्राज्य की नींव हिलाने में महत्वपूर्ण योगदान दिया।
तिलकजी ने मराठी में ह्लमराठा दर्पणह्व और ह्लकेसरीह्व नाम से दो दैनिक अखबार शुरू किए, जिसे लोगों ने खूब पसंद किया। तिलक अखबार में अंग्रेजी शासन की क्रूरता और भारतीय संस्कृति के प्रति हीन भावना की खूब आलोचना करते थे। भारत के लोगों की हालात में सुधार करने और उन्होंने पत्रिकाओं का प्रकाशन किया। वह चाहते थे कि लोग जागरुक हो। देशवासियों को शिक्षित करने के लिये शिक्षा केंद्रों की स्थापना की। अखबार केसरी में छपने वाले उनके लेखों की वजह से उन्हें 1857 में 6 वर्ष के लिए जेल भेजा गया। जेल में रहने के दौरान भारतीय राष्ट्र वादी आंदोलन को लेकर उनके विचारों ने आकार लिया और साथ ही उन्होंने 400 पन्नों की किताब गीता रहस्यल भी लिख डाली। जब वे रिहा हुए तो उन्होंने होम रूल लीग की शुरूआत की और नारा दिया ह्लस्वखराज मेरा जन्मतसिद्ध अधिकार है और मैं इसे लेकर रहूंगा।ह्व
तिलकजी उस समय एक युवा क्रांतिकारी और गर्म दल के नेता के रूप में जाने जाते थे। वे एक बहुत ही स्पष्ट वक्ता और प्रभावी ढंग से भाषण देने में माहिर थे। यह बात ब्रिटिश अफसर भी अच्छी तरह जानते थे कि अगर किसी मंच से तिलक भाषण देंगे तो वहां आग बरसना तय है।


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