राष्ट्रनायक न्यूज

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राम मंदिर आंदोलन के नायक: कल्याण सिंह भाजपा में मंडल और कमंडल के गठजोड़ थे

राष्ट्रनायक न्यूज।
कल्याण सिंह भाजपा में मंडल और कमंडल के गठजोड़ थे। उन्होंने भाजपा को नया आधार दिया था। उनके इस प्रयोग से भाजपा सत्ता के राजपथ पर आई। कल्याण सिंह भाजपा के अकेले नेता थे, जिन्हें बाबरी ढांचा ढहाए जाने की सजा अदालत ने दी, जबकि पार्टी के बाकी सब नेता बरी हो गए। मंडल-कमंडल के इस रसायन से ही कल्याण सिंह हिंदुत्व के पहले, प्रबल और प्रमुख चेहरा बने। राम मंदिर पर कुर्बान होने वाले वह पहले मुख्यमंत्री थे। वह पहले नेता थे, जिसने भाजपा को ब्राह्मण-बनिया पार्टी के खोल से बाहर निकाल पिछड़ी राजनीति में व्यापक आधार दिया। दरअसल राम मंदिर आंदोलन के कल्याण सिंह ‘पोस्टर बॉय’ थे। अति पिछड़ी जातियों की पहचान और उनमें पार्टी की पैठ बनवाने के वह शिल्पकार थे। भाजपा की आरक्षण नीति कैसी हो-वह उसके रणनीतिकार थे। भोपाल अधिवेशन में कल्याण सिंह ने ही पार्टी की आरक्षण नीति रखी और संगठन में भी पिछड़ों को हिस्सेदारी देने की हिमायत की। राजनीति में धैर्य जरूरी होता है।

कल्याण सिंह अधीर न होते, तो आडवाणी के बाद भाजपा के कप्तान होते। पर कल्याण सिंह का अहं भाजपा के सबसे बड़े नेता अटल जी से टकराया। इस अधीरता ने उनसे दो बार पार्टी छुड़वाई और इस ताकतवर नेता की गाड़ी बेपटरी हुई। उनके मुख्यमंत्रित्व काल के दूसरे हिस्से को छोड़ दिया जाए, तो वह जनता की नब्ज पकड़ने वाले, ईमानदार, सिद्धांतवादी और मुद्दों पर अड़ने वाले मुख्यमंत्री थे। पहली बार मुख्यमंत्री का पद संभालने से पहले वह अयोध्या गए और राम मंदिर बनाने की शपथ ली, जिसे उन्होंने राम मंदिर के सवाल पर अपनी सरकार की बर्खास्तगी तक निभाया पर उनके मुख्यमंत्रित्व काल का दूसरा दौर उनकी सिद्धांतनिष्ठ राजनीति के अवसान की शुरूआत था। उन्हें अपने ही बनाए सिद्धांतों से समझौते करने पड़े। पहले कार्यकाल में उन्होंने जिस माफिया राजनीति के अंत की शुरूआत की थी, दूसरे कार्यकाल में वही सारे माफिया उनके मंत्रिमंडल में थे। उनके विश्वास और भरोसे की डोर संघ और अटल बिहारी वाजपेयी, दोनों से कमजोर हुई। वह इस भ्रम में रहे कि संघ और अटल जी ने उनके खिलाफ कोई साजिश रची, जो सही नहीं था। संघ से वह इस बात पर हमेशा नाराज रहे कि उन्हें धोखे में रख ढांचा गिराया गया और अटल जी से वह हमेशा असुरक्षित महसूस करते रहे। कल्याण सिंह की पिछड़ी राजनीति उन्हें बार-बार मुलायम सिंह की तरफ ले जाती और उनके व्यक्तित्व में हिंदुत्व का कोर तत्व उन्हें भाजपा में खींचता।

उनका उत्तरार्द्ध इसी दुविधा में बीता। यह दुविधा उनकी जिंदगी के सबसे बड़े और चर्चित घटनाक्रम में भी दिखाई दी। छह दिसंबर, 92 को जिस वक्त बाबरी ढांचे पर कारसेवकों ने हल्ला बोला, दिल्ली से लेकर लखनऊ तक राजनीति बेहद सरगर्म थी। अयोध्या के कंट्रोल रूम से जब उन्हें ढांचे पर चढ़े कारसेवकों द्वारा तोड़-फोड़ की सूचना दी गई, तो वह अचंभित थे। वह विवादित परिसर की सुरक्षा और कारसेवकों को कोई खरोंच न आने देने के दो अलग-अलग छोरों के बीच उलझे थे। कल्याण सिंह ने बिना गोली चलाए परिसर खाली कराने को कहा। हालांकि वह इससे नाराज थे कि अगर विहिप की ऐसी कोई योजना थी, तो उन्हें भी बताना चाहिए था। दिल्ली से गृहमंत्री एस बी चव्हाण का उनके पास फोन आ रहा था। प्रधानमंत्री के निजी सचिव ने भी फोन कर फैजाबाद के कमिश्नर से स्थिति नियंत्रित करने और केंद्रीय बलों का इस्तेमाल करने को कहा, पर कल्याण सिंह ने दो टूक कह दिया, ‘कोशिश कर रहा हूं कि कारसेवक वापस आएं, पर गोली नहीं चलाऊंगा।’

बाबरी ढांचे के ध्वंस से जितने आहत नरसिंह राव थे, उतने ही आहत और धोखा खाए कल्याण सिंह भी लग रहे थे। हालांकि कल्याण सिंह को कुछ-कुछ अंदेशा था। पांच दिसंबर की रात जिला प्रशासन ने गृह सचिव को जो रिपोर्ट भेजी, उसमें कहा गया था कि कारसेवकों का एक वर्ग है, जो कारसेवा का स्वरूप बदलने से नाराज है। यानी प्रतीकात्मक कारसेवा उनके गले नहीं उतर रही है। मौके की नजाकत भांप कल्याण सिंह ने भाजपा अध्यक्ष मुरली मनोहर जोशी और लालकृष्ण आडवाणी को उसी रात अयोध्या भेज दिया था, जबकि उन दोनों को छह दिसंबर की सुबह अयोध्या जाना था। ध्वंस के बाद शाम में उन्होंने मुख्य सचिव, गृह सचिव और पुलिस महानिदेशक के साथ बड़े अफसरों की मीटिंग बुलाई। फाइल मंगा उस पर गोली न चलाने के लिखित आदेश दिए, ताकि बाद में किसी अफसर की जवाबदेही न तय हो।

समय बीतने के साथ कल्याण सिंह ने लाइन बदली। वह पहले तो अचंभित थे, अपने को छला गया बता रहे थे। पर जनता की नब्ज भांप ढांचा गिरने की जिम्मेदारी अपने ऊपर ले ली। इस्तीफे के बाद उनका दो टूक एलान था कि ‘यह प्रबल हिंदू भावनाओं का विस्फोट था, क्योंकि मामले को लटकाए रखने में कार्यपालिका, विधायिका और न्यायपालिका, तीनों बराबर की जिम्मेदार हैं। उन्होंने कहा कि यह सही है कि ढांचे की सुरक्षा की जिम्मेदारी मैंने ली थी, पर मैंने यह भी कहा था कि मेरी सरकार संतों और कारसेवकों पर गोली नहीं चलाएगी। जब मैंने रास्ता निकाला था, तब किसी ने मेरी सुनी नहीं।

मैं विवादित इमारत और कारसेवा की जगह को अलग करना चाहता था। यह ‘सेफ्टी वॉल्व’ था। उससे छह दिसंबर की घटना टाली जा सकती थी। पर मेरी बात नहीं सुनी गई। गैर-भाजपा दलों ने इसमें रुकावट डाली। अदालत के कंधे पर रखकर बंदूक चलाई गई।’ बाबरी ढांचा गिरने के तीसरे दिन जब मैंने उनका इंटरव्यू किया था, तो उन्होंने मुझसे कहा था, ‘मुझे धोखे में रखा गया। मेरे साथ छल हुआ। अगर कोई योजना थी, तो मुझे भी बतानी चाहिए थी।’ शायद यह कसक कल्याण सिंह के सीने में आखिरी वक्त तक रही हो! कल्याण सिंह अपने पीछे एक ऐसा इतिहास छोड़ गए हैं, जो उन्हें राजनीति और समाज की नजरों में हमेशा जीवित रखेगा। वह उन दुर्लभ राजनेताओं में एक थे, जिनकी छाप राजनीति, समाज, धर्म, आस्था और लोकाचार समेत जीवन के तमाम पहलुओं पर समान रूप से अंकित है। वक्त ने बड़ी निर्ममता के साथ उनका मूल्यांकन किया है। वह जिन फैसलों से आहत थे, दुखी थे, स्तब्ध थे, उन फैसलों की चार्जशीट भी उनके ही माथे मढ़ दी गई। उनका मूल्यांकन अधूरा है। शायद इतिहास ही एक रोज उनका सही मूल्यांकन करे।

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