राष्ट्रनायक न्यूज

Rashtranayaknews.com is a Hindi news website. Which publishes news related to different categories of sections of society such as local news, politics, health, sports, crime, national, entertainment, technology. The news published in Rashtranayak News.com is the personal opinion of the content writer. The author has full responsibility for disputes related to the facts given in the published news or material. The editor, publisher, manager, board of directors and editors will not be responsible for this. Settlement of any dispute

श्रीकृष्ण की धर्म नीति पर चलकर ही जीवन में हर कदम पर विजय मिलती है

राष्ट्रनायक न्यूज।
लोकजीवन में ‘धर्म’ शब्द जितना अधिक सुपरिचित है उसका अर्थ-बोध उतना ही अधिक व्यापक एवं गूढ़ है। अर्थ-विस्तार की दृष्टि से धर्म मानव-जीवन के उन समस्त पक्षों का सम्यक् संवहन करता है, जो जीवन को रचनात्मकता एवं सुंदरता की ओर अग्रसर करते हैं किंतु अर्थ-संकोच की दृष्टि से धर्म विशिष्ट विश्वास-प्रेरित पूजा-पद्धति के अर्थ में रुढ़ हो गया है। जनसामान्य धर्म को इसी रुढ़ अर्थ में ग्रहण करता है। धर्म लोक-व्यवहार, सदाचार और मानवीय-गरिमा की संरक्षक मयार्दाओं के निर्देशन एवं पालन की संज्ञा है। धर्म का मूल-तत्व लोकमंगल है। प्राय: विश्व के सभी धर्मों के मूल में लोकमंगल की प्रेरणा ही सक्रिय रही है किंतु मानव-सभ्यता के इतिहास में जब-जब व्यापक लोकमंगल की उपेक्षा करके मनुष्य ने निजी स्वार्थों और अपनी सहज दुर्बलताओं के तटबंधों में बंधकर धर्म की निर्मल जलधारा को रुढ़ियों के बंधन में बांधा है तब-तब धर्म अपनी सार्थकता खोकर समाज के पतन का कारण बना है और इतिहास के पृष्ठ कलंकित हुए हैं। भीष्म एवं द्रोण आदि महारथियों की रूढ़िबद्ध धार्मिकता ने द्रौपदी के चीर-हरण को चुपचाप सहकर समाज को महाभारत युद्ध की ओर धकेला। निहित स्वार्थों के लिए समर्पित धृतराष्ट्र की अंधी राज्य-लिप्सा और अपरिमित पुत्रमोह को बल भीष्म की प्रतिज्ञा-पालन की रुढ़ि को धर्म समझने और द्रोण के ‘नमक का मूल्य चुकाने की’ धार्मिक रुढ़ियुक्त अविवेकपूर्ण राजभक्ति’ से मिला। भागते हुए शत्रु पर प्रहार न करने को ही बिना विचार किए धर्म मान लेने की मूर्खतापूर्ण धर्मरुढ़ि आक्रांता मोहम्मद गोरी को प्राणदान दिलाकर अंतत: विजेता पृथ्वीराज के ही नाश का कारण नहीं बनी अपितु उसने समस्त भारतीय समाज के राजनीतिक-सांस्कृतिक जीवन को काँटों के पथ पर धकेल दिया। ‘हमारे विश्वास ही सर्वश्रेष्ठ हैं और समस्त विश्व के मानव समुदाय को हम अपने ही विश्वासों के रंग में रंग लेंगे’– इस कथित धर्मप्रियता के कारण आज के वैज्ञानिक दृष्टि संपन्न समाज में भी आतंकवाद और धर्मांतरण के काले कुचक्र चल रहे हैं और धर्म का मूल तत्व लोकमंगल घायल है।

जब-जब जीवन के धरातल पर धर्म अपने लोक मंगलकारी स्वरूप को खोकर मूर्खतापूर्ण अंधी-रूढ़ियों के मकड़जाल में जकड़ कर अपनी शक्ति खोने लगता है तब-तब समाज में कोई राम, कोई कृष्ण, कोई शंकराचार्य, कोई गोविंदसिंह अथवा विवेकानंद जन्म लेकर धर्म के मर्म को पुर्नव्ख्यायित करता है– समाज को दिशा देता है। यही ‘यदा यदा ही धर्मस्य…………’ का शाश्वत रहस्य है। जो व्यक्ति विवेक की कसौटी पर कसकर कर्तव्य-अकर्तव्य का विचार करके कर्म को लोक-कल्याण की दिशा में नियोजित करता है, वही सच्चा धार्मिक है; महापुरुष है; अवतार है, पूज्य है। श्री कृष्ण भी ऐसे ही लोकवन्द्य महापुरुष हैं। उन्होंने अपने युग में धर्म के नाम पर पल्लवित रूढ़ियों से संरक्षित शोषक-शक्तियों का विनाश कर मानवीय-गौरव को प्रतिष्ठित किया। उनके द्वारा उपदेशित गीता का ज्ञान मनुष्य के धार्मिक तत्व-चिंतन का वह उज्ज्वल आलोक है जिसका स्पर्श पाकर जटिल और गूढ़ धर्मतत्व से उत्पन्न भ्रांतियाँ स्वत: नष्ट हो जाती हैं तथा जीवन नैतिक-मानमूल्यों के अनुरूप भौतिक और आध्यात्मिक उन्नति प्राप्त कर लेता है।

श्रीकृष्ण ने बाल्यकाल से ही धार्मिक-रूढ़ियों पर प्रहार कर लोकजीवन को प्राकृतिक सहज-पथ की ओर निर्देशित किया। इंद्र-पूजा से गोवर्धन-पूजन की परम्परा का प्रारंभ जीवन के पोषक प्राकृतिक-तत्वों के प्रति कृतज्ञता-ज्ञापन का पुनप्रर्तिष्ठापन है। सामाजिक-जीवन में श्रीकृष्ण पग-पग पर नए लोकमंगलकारी धर्म के असंख्य अनुकरणीय उदाहरण प्रस्तुत करते हैं। जन-सामान्य की दृष्टि में अपने से बड़े पद पर आसीन व्यक्ति अथवा संबंधी पर प्रहार अधर्म हो सकता है किन्तु कृष्ण की दृष्टि में यदि ऐसा व्यक्ति अपने धर्म का पालन नहीं करता और समाज के लिए संकट उत्पन्न करता है तो सर्वथा वध्य है। कंस ने अपने पिता महाराजा उग्रसेन को बंदी बनाकर पुत्रधर्म के विरुद्ध आचरण किया। बहिन देवकी और बहनोई वसुदेव को त्रास देते हुए अपने भान्जों का वध करके सामाजिक सम्बंधों की मयार्दा तार-तार कर दी और मथुरा की प्रजा को आतंकित कर राजधर्म का अनादर किया। ऐसा कंस कृष्ण की धर्म-दृष्टि के अनुसार सर्वथा वध्य बन गया जबकि राजा और मामा होने के कारण वह कृष्ण के लिए धर्मरूढ़ि से सर्वथा अवध्य और सेव्य सिद्ध होता है। श्रीकृष्ण की क्रांतिकारिणी लोकमंगलमुखी धर्मदृष्टि विवेकानुसार निर्णय कर उनके द्वारा कंस का वध कराती है और लोकहित को रक्त सम्बंधों पर वरीयता देती है।

प्रचलित सामाजिक मान्यता के अनुसार युद्ध में पीठ दिखाना अधर्म है, कायरता है और निन्दनीय कृत्य है। स्वयं श्रीकृष्ण भी युद्ध से पलायन को अधर्म और अनुचित कार्य कहते हैं- ‘क्लैव्यं मा स्मगम: पार्थ’–हे अर्जुन ! क्लीवता (नपुंसकता) को प्राप्त मत हो। यह तुम्हारे लिए उचित नहीं है। इस प्रकार वे युद्ध से विरत अर्जुन को युद्ध में नियोजित करते हैं किन्तु स्वयं युद्ध से पलायन करके एक नयी धर्म-दृष्टि प्रस्तुत करते हैं। युद्ध को यशरूप स्वर्ग का खुला द्वार बताने वाले श्रीकृष्ण मथुरा पर जरासंध के बार-बार होने वाले आक्रमणों के निवारण के लिए स्वयं ‘रणछोड़’ बन जाते हैं। युद्ध कहां करना है और कहां टालना है, युद्ध कब अपरिहार्य-अनिवार्य है और कहां परिहार्य, वह कब धर्म है और कब अधर्म– इसका निर्णय कृष्ण की सतर्क और सचेत धर्मबुद्धि मानवीय-अस्मिता तथा व्यापक लोकहित की दृष्टि से करती है। व्यक्तिगत स्वार्थों और निजी महत्वाकांक्षाओं की पूर्ति के लिए युद्ध अधर्म है, पाप है किन्तु यदि नैतिक-मूल्यों की रक्षा के लिए, शोषक-शक्तियों के विनाश के लिए युद्ध करना पड़े तो वह निश्चय ही धर्म बन जाता है। कृष्ण की यह धर्म दृष्टि सर्वथा अभिनव है, स्तुत्य है क्योंकि उसमें मनुष्य का व्यापक हित सन्निहित है।

शोषक एवं अत्याचारी सत्ता द्वारा प्रताड़ित पीड़ित की रक्षा करना समर्थ मनुष्य का सबसे बड़ा धर्म है। सर्वथा असहाय द्रोपदी की अप्रत्यक्ष रूप से रक्षा करके श्री कृष्ण धर्म का यह पक्ष प्रतिष्ठित करते हैं। कुरुराज सभा के बड़े-बड़े धर्मज्ञ जब दुर्योधन की निरंकुश दुरभिलाषाओं और निर्बाध ईर्ष्या की पुष्टि में मौनधारण को ही धर्म मान लेते हैं तब श्रीकृष्ण की अप्रत्यक्ष सहायता धर्म की सर्वोत्तम परिभाषा ‘परहित सरिस धर्म नहिं भाई’ को सशक्त आधार प्रदान करती हुई निर्दोष पीड़ित पक्ष को संरक्षण देती है। धर्म की रूढ़ियाँ धृतराष्ट्र और दुर्योधन आदि के लिए दृढ़-कवच प्रदान करती हैं; ढाल बनती हैं। वे यह भली-भांति जानते हैं कि धर्मपालन की स्वनिर्मित रूढ़ियों में बंधे भीष्म और द्रोण जैसे महारथी प्रत्येक परिस्थिति में उनका ही साथ देंगे और इन महावीरों के रहते प्रतिपक्षी पाण्डवों की विजय के लिए कोई संभावना शेष नहीं रह जाती। कदाचित उन्हें यह भी विश्वास था कि धर्म-पालन के रुढ़ फंदे में फंसे पाण्डव–

विशेषत: युधिष्ठिर कथित एवं प्रचलित युद्धनीति से अलग हटकर कभी युद्ध नहीं करेंगे; वे गुरुजनों पर शस्त्र कभी नहीं उठाएंगे और युद्ध कभी होगा ही नहीं। शकुनि के प्रपंचों से उन्हें अनन्तकाल तक अधिकार-वंचित और अपमानित जीवन जीने को विवश बनाया जा सकता है। कौरव और उनके हितैषी यह अनुमान लगाने में विफल रहे कि युगपुरुष महामानव श्री कृष्ण युद्ध की प्रचलित तथाकथित धर्मनीतियों से अलग हटकर भी धर्म के नए प्रतिमान रच सकते हैं। श्रीकृष्ण ने भीष्म-द्रोण-कर्ण और दुर्योधन के संदर्भ में युद्ध के धर्म को नयी दिशा दी क्योंकि उसके बिना अधर्म, अन्याय और अपराध का अंत असंभव था। महाकवि दिनकर ने ‘रश्मिरथी’ में कर्ण-वध के अवसर पर कृष्ण-अर्जुन संवाद में धर्म के इस नए रूप को सशक्त स्वर दिया है। धरती में धंसे रथ-चक्र को निकालने में व्यस्त निशस्त्र कर्ण पर वाण-संधान करने का निर्देश पाकर अर्जुन हिचक जाते हैं और कृष्ण से पूछते हैं-

‘‘नरोचित किन्तु क्या यह कर्म होगा ?
नहीं इससे मलिन क्या धर्म होगा ?’’

अर्जुन की इस जिज्ञासा पर कृष्ण का उत्तर विस्मयजनक है; अद्भुत है-

‘‘हंसे केशव, वृथा हठ ठानता है,
अभी तू धर्म को क्या जानता है ?
कहूँ जो पाल उसको धर्म है यह।
हनन कर शत्रु का सदधर्म है यह।।
क्रिया को छोड़, चिंतन में फंसेगा,
उलटकर काल तुझको ही ग्रसेगा।।’’

श्रीकृष्ण की यह नयी धर्मनीति ही महाभारत में पाण्डवों की विजय का कारण बनती है। जीवन गतिशील है, इसीलिए जीवन से जुड़े सभी पक्ष– धर्म, राजनीति, दर्शन आदि निरंतर पुर्नव्याख्या और संशोधन की अपेक्षा करते हैं। मानवीय मूल्य दया, क्षमा आदि अपरिवर्तित होने योग्य हैं किंतु यदि कहीं वे मनुष्यता के प्रतिपक्ष में उपस्थित होकर मानवमंगल का पथ अवरुद्ध करने लगें तो उनको यथोचित पुर्नव्याख्यायित करके ग्रहण किया जाना ही उचित है। रूढ़ि कभी धर्म नहीं हो सकती और धर्म कभी रूढ़ नहीं होना चाहिए। धर्म को लोकमंगल की धुरी पर ही घूमना होगा। जहाँ वह लोकमंगल को परिधि पर धकेल कर निजी स्वार्थों को केंद्र में प्रतिष्ठित करेगा वहाँ वह धर्म नहीं रह जाएगा, वहाँ वह धर्म का शव मात्र होगा, जिसकी दुर्गंध मनुष्यता के स्वास्थ्य के लिए सर्वथा घातक होगी। लोकमंगल के निर्मल-जल में ही धर्म का कमल खिल सकता है। कृष्ण की धर्मदृष्टि इसी दर्शन से अनुप्राणित है। इसीलिए धर्म के संदर्भ में शाश्वत है, सार्वभौमिक है।

डॉ. कृष्णगोपाल मिश्र

You may have missed