गुरुर्ब्रह्मा गुरुर्विष्णु गुरुदेर्वो महेश्वरा
गुरुर्साक्षात परब्रह्म तस्मै श्री गुरवे नम:
गुरुर ब्रह्मा: सृष्टिकर्ता के समान हैं गुरु ब्रह्मा।
गुरुर विष्णु: संरक्षक के समान हैं गुरु विष्णु ।
गुरुर देवो महेश्वरा: विनाशक के समान हैं गुरु प्रभु महेश्वर
गुरु साक्षात: सच्चा गुरु आंखों के समक्ष।
परब्रह्म: सर्वोच्च ब्रहम।
तस्मै: उन एकमात्र को
राष्ट्रनायक न्यूज।
स्वामी विवेकानंद ने कहा था कि न ही तुम्हें कोई पढ़ा नहीं सकता है, और न ही कोई तुम्हें आध्यात्मिक बना सकता है। तुमको सब कुछ खुद अंदर से सीखना है, क्योंकि आत्मा से अच्छा कोई शिक्षक नहीं है। स्वामी विवेकानंद की ये ही बातें अगर हम लोग दिल ओ दिमाग में बचपन से ही बिठा दें, उन बातों को समझें और अपने अंदर आत्मसात करने की कोशिश करें, तो हम भी एक अच्छे और सच्चा इंसान बन सकते हैं। दरअसल, हम सब जानते हैं कि अपने हित से पहले, समाज और देश के हित को देखना एक विवेक युक्त सच्चे नागरिक का धर्म होता है और हम सबको उसी धर्म का पालन नियम, निष्ठा, संस्कार और मोटिवेशन के रूप में कुछ इस तरह से करना चाहिए कि हम दूसरों के लिए एक नजीर और एक मिसाल बन सकें।
शिक्षक ही आदमी को पूर्ण मनुष्य बनाते हैं: शिक्षक दिवस के इस पावन अवसर पर सर जान एडम्स ने कहा था कि हमें अपने छात्रों में आदर्श, सच्चाई, आत्मबल, नैतिक बल, ईमानदारी, लगन और मेहनत की वह मशाल जलानी होगी, जो कि उसे पूर्ण मनुष्य बनाते हैं। सच तो ये ही है कि शिक्षकों के सामने नया भारत बनाने की एक चुनौती है। अध्यापकों को विवेक और रचनाशीलता की कसौटी अपने आपको पूरी तरह से तौलना होगा। एक शिक्षक की भूमिका बच्चों को साक्षर करने से ही खत्म नहीं हो जाती, बल्कि शिक्षक ही निमार्ता और नियंता हैं।
गुरु-गोविंद दोऊ खड़े काके लागूं पांय,
बलिहारी गुरु आपने गोविंद दियो मिलाये’
गुरु और गोविंद साथ खड़े हों, तो ऐसी स्थिति में गुरु के चरणों में शीश झुकाना उत्तम है, क्योंकि गुरु की कृपा से ही भगवान के दर्शन सम्भव हो पाते हैं। भारतीय संस्कृति के संवाहक कबीर दास प्रख्यात शिक्षक, महान दार्शनिक और आस्थावान हिन्दू विचारक थे। कबीरदास जी का यह दोहा अपने आप बहुत कुछ कहता है कि सच्चा गुरु ही भगवान तुल्य है, उनके प्रति समर्पित जीवन ही हमें ज्ञान और जीवन दर्शन के पथ पर चलते हुए ईश्वर की भक्ति की ओर एक अच्छे शिष्य की तरह ले जाता है।
शिक्षा बाजार का हिस्सा बन गयी है: उन्हीं के सम्मान में इस खास दिन को भारत में शिक्षकों को समर्पित दिवस के रूप में मनाये जाने का मकसद ‘शिक्षकों’ का हमारे जीवन में महत्व को बताना है। ठीक इसी तरह दुनिया भर में शिक्षक को आभार व्यक्त करने के लिए पांच अक्टूबर को शिक्षक दिवस मनाया जाता है। यदि यह कहें कि अब शिक्षा बाजार का हिस्सा बन गया है, जबकि भारतीय परंपरा में वह कभी गुरु के अधीन थी, समाज के अधीन थी, तो ऐसे समय में जब भारत अनेक क्षेत्रों में प्रगति की ओर अग्रसर है, हमारे अध्यापकों की जिम्मेदारी बहुत बढ़ जाती है, क्योंकि उनके जिम्मे ही श्रेष्ठ, संवेदनशील और देश भक्त युवा पीढ़ी के निर्माण का दायित्व है।
आज जब हर रिश्ते को बाजारवाद की नजर लग गयी है, तब गुरु-शिष्य के रिश्तों पर इसका असर न हो, ऐसा सोचना ही बेमानी होगी। नए जमाने के, नए मूल्यों ने हर रिश्ते पर बनावट, नकलीपन और स्वार्थों की एक ऐसी अदृश्य चादर ओढ़ दी है, जिसमें असली सूरत नजर ही नहीं आती। शिक्षा के हर स्तर के बाजार भारत में चहुंओर दिख रहे हैं। दरअसल आज हम जिस आर्थिक और सामाजिक व्यवस्था में सांस ले रहे हैं, वहां विकास के नाम पर बदलते सभी क्षेत्रों ने प्रगति की है। उसी तरह शिक्षा के क्षेत्र में अत्याधुनिक तकनीकी विस्फोटक विस्तार और प्रगति के कारणवश गुरुकुल प्रणाली की पैरवी करना तर्कसंगत नहीं लगता है। आज नई पीढ़ी में जो भ्रमित जानकारी या कच्चापन दिखता है, उसका कारण शिक्षक ही हैं, क्योंकि सच यह भी है कि अपने सीमित ज्ञान, कमजोर समझ और पक्षपातपूर्ण विचारों के कारण वे बच्चों में सही समझ विकसित नहीं कर पाते।
वर्तमान में बढ़ गयी है शिक्षक की जिम्मेदारी: ऐसे कठिन समय में शिक्षक समुदाय की जिम्मेदारी बहुत बढ़ जाती है, क्योंकि वह ही अपने विद्यार्थियों में मूल्य व संस्कृति प्रवाहित करता है। इसके कारण गुरु के प्रति सम्मान भी घट रहा है। आम आदमी जिस तरह शिक्षा के प्रति जागरूक हो रहा है और अपने बच्चों को शिक्षा दिलाने के आगे आ रहा है, वे आकांक्षांए विराट हैं। उनको नजरंदाज करके हम देश का भविष्य नहीं गढ़ सकते। सबसे बड़ा संकट आज यह है कि गुरु-शिष्य के संबंध आज बाजार के मानकों पर तौले जा रहे हैं। युवाओं का भविष्य जिन हाथों में है, उनका बाजार तंत्र किस तरह शोषण कर रहा है इसे समझना जरूरी है। इसके चलते योग्य लोग शिक्षा क्षेत्र से पलायन कर रहे हैं। उन्हें लगता है कि जीवन को ठीक से जीने के लिए यह व्यवसाय उचित नहीं है। सबसे महत्वपूर्ण यह है कि भौतिकता को जीवन का आधार न बनने दें, चरित्रवान और निष्ठावान बने रहने की पुरजोर कोशिश करें। गुरु-शिष्य रिश्तों में मयार्दाएं और वर्जनाएं टूट रही हैं, केवल ये ही नहीं, अनुशासन भी भंग होता दिख रहा है। नए जमाने के शिक्षक भी विद्यार्थियों में अपनी लोकप्रियता के लिए कुछ ऐसे काम कर बैठते हैं, जो उन्हें लांछित ही करते हैं। सीखने की प्रक्रिया का मर्यादित होना भी जरूरी है। आध्यात्मिक ज्ञान और योग साधना को अपनी जीवनशैली में अपनाने में कंजूसी न करें… गुरुओं के प्रति सच्ची भक्ति का सार यही है। हमारे युवा भारत में इस समय दरअसल शिक्षकों का विवेक, रचनाशीलता और कल्पनाशीलता भी कसौटी पर है, क्योंकि देश को बनाने की इस परीक्षा में हमारे छात्र अगर फेल हो रहे हैं, तो इसका मतलब ये ही है कि शिक्षक भी फेल हो रहे हैं। अंग्रेजी के चलते हिंदी और अन्य भारतीय भाषाओं के छात्रों की हीनभावना तो चुनौती है ही। नई पीढ़ी बहुत जल्दी और ज्यादा पाने की होड़ में है, इसीलिए उसके सामने एक अध्यापक की भूमिका बहुत सीमित हो गयी है। नए जमाने ने श्रद्धाभाव भी कम किया है। परीक्षा को पास करना और एक नौकरी पाना इस दौर की सबसे बड़ी प्राथमिकता बन गयी है।
गुरु हैं सर्वोपरि: सनातन परम्परा में गुरु को ईश्वर से भी ऊंचा स्थान दिया गया है। सभी धर्मों ने ‘गुरु शिष्य’ की परम्पराओं और व्यवस्थाओं के महत्व को स्वीकार करके रेखांकित किया हुआ है। चूंकि भारत में ज्ञान और शिक्षा आदिकाल से ऋषि-मुनियों या संतों द्वारा दी गई ‘गुरु शिष्य’ परम्परा पर आधारित थी, इसलिए आज भी उस परम्परा को संजोने की कोशिश चल रही है, जोकि देश की संस्कृति का अहम हिस्सा है। वैसे, इस परम्परा की कीर्ति और भूमिका का पूरा वर्णन हमारे शास्त्रों में मिलता है।
क्यों है टीचर्स डे का खास महत्व?
भारत के इतिहास में पांच सितम्बर (टीचर्स डे) का खास महत्व इसलिए है, क्योंकि यह दिन देश के द्वितीय राष्ट्रपति डॉ. सर्वपल्ली राधाकृष्णन का जन्मदिन है। हर दौर में यह स्वीकार किया गया है.. गुरु या शिक्षक के दिशानिदेर्शों के बिना लक्ष्य तक पहुंच पाना संभव नहीं है। भारतीय जीवन दर्शन में गुरुओं को दिव्य अवतार का रूप में स्थान प्राप्त है अर्थात भक्ति युग में गुरु शिष्य संबंध सबसे प्रसिद्ध रूप् में से है। हर शिष्य गुरुओं के आदेशों को प्रतिबद्धता के साथ स्वीकारते हुए बड़ी ईमानदारी से उनका पालन करते हैं एवं सूक्ष्म या उन्नत ज्ञान में महारत हासिल करने के लिए पूरी तरह समर्पित रहते थे, जो गुरुओं द्वारा निहित कराया जाते थे। गुरु के प्रति शिष्य की भक्ति की यही भावना दशार्ती है। ईश्वर या गुरु के प्रति शिष्य का विश्वास और प्रेम समर्पण को आसानी से समझा जा सकता है।
वेद व्यास जी थे प्रथम गुरु: गुरु होते हैं पिता के समान, इसलिए चाणक्य नीति के अनुसार हमें हमेशा गुरु का सम्मान करना चाहिए। जिस तरह पिता कभी भी अपने बच्चों के लिए बुरा नहीं सोच सकते हैं, ठीक उसी तरह गुरु भी अपने शिष्य के लिए कभी गलत नहीं सोच सकता है। भारतीय समाज में गुरु परंपरा हजारों वर्षों से चली आ रही है। हिंदू धर्म में वेद व्यास जी को प्रथम गुरु माना जाता है। वेद व्यास जी के जन्मोत्सव को ही गुरु पूर्णिमा के रूप में मनाया जाता है। आषाढ़ माह की पूर्णिमा के दिन ही वेद व्यास जी का जन्म हुआ था। आचार्य चाणक्य ने भी गुरु के महत्व को बताया है। आचार्य चाणक्य की नीतियों का पालन कर लोगों जीवन में सफलता प्राप्त करते हैं। आज के समय में भी आचार्य चाणक्य की नीतियां कारगर साबित होती हैं। आचार्य चाणक्य के अनुसार गुरु का स्थान पिता के समान होता है। दोस्ती और प्यार के लिए किसी भी हद तक जा सकते हैं ये राशि वाले, करते हैं लोगों के दिलों में राज। आचार्य चाणक्य के अनुसार व्यक्ति का भविष्य गुरु ही संवारते हैं। गुरु हमेशा अपने शिष्यों को सही मार्ग दिखाते हैं। गुरु के कदमों पर चलने वाला व्यक्ति जीवन में कभी भी असफल नहीं हो सकता है, क्योंकि सही और गलत की पहचान भी गुरु ही कराते हैं।
निर्मलेंदु


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