राष्ट्रनायक न्यूज

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आजादी का अमृत महोत्सव: भारतीय सिनेमा किसी से पीछे नहीं

राष्ट्रनायक न्यूज।
भारत में सिनेमा का उदय होने से पहले मनोरंजन का बड़ा साधन शहरों में होने वाले नाटक या गांव देहातों में आयोजित होने वाली नौटंकी होता था। उनमें संगीत की बड़ी भूमिका होती थी। साथ ही एक दृश्य से दूसरे दृश्य में जाने के बीच में छोटा इंटरवल होता था जिसमें नाच-गाना आयोजित किया जाता था, जिससे दर्शकों का मन लगा रहे और वे नाटक का स्थल छोड़कर बाहर न जाएं। भारत में सिनेमा का आरंभ शहरी नाटकों के तौर पर ही हुआ। उसमें वे सारी विधाएं थीं, जो शहरी नाटकों में होती थीं। इसीलिए उनमें गाने और संगीत एक आवश्यक अवयव था। उन फिल्मों में भी जहां इसकी जरूरत नहीं होती थी। यह बदला नए सिनेमा के उदय से। यह थिएटर या नाटकों से निकला सिनेमा नहीं था। यह शुद्ध सिनेमैटिक अनुभव था। इसके जनक महान फिल्मकार सत्यजीत राय थे। उनके काम की तुलना किसी भी देश के श्रेष्ठतम फिल्मकार से की जा सकती है। फिर पुणे फिल्म इंस्टीट्यूट से निकले नौजवानों ने अपनी विधा खुद बनाई। इसे ही नए सिनेमा का नाम दिया गया।

लेकिन यह अपने आप में कोई अलग जॉनर (विधा) नहीं था। जॉनर होता है, ऐतिहासिक फिल्में, धार्मिक फिल्में, हास्य फिल्में। लेकिन समानांतर सिनेमा या आर्ट फिल्मों का जिसे नाम दिया गया वह कोई अलग जॉनर नहीं था, बल्कि अधिक रियलिस्टिक सिनेमा था। इसमें संगीत का होना जरूरी नहीं था। किरदार और कहानियां आपके इर्द-गिर्द के थे। लेकिन इसे व्यवसायिक सिनेमा से अलग नहीं किया जा सकता, क्योंकि हर फिल्म बनाने में बहुत धन लगता है और यदि फिल्म अपनी लागत नहीं निकाल पाती, तो फिल्मकार को बहुत नुकसान होता है। मैं खुद कभी पुणे फिल्म इंस्टीट्यूट नहीं गया, लेकिन मुझे थीएट्रिकल सिनेमा के बजाय शुद्ध सिनेमा अधिक भाता था, इसीलिए मुझे भारतीय फिल्मों या हॉलीवुड की फिल्मों के बजाय इटली, फ्रांस और जापान जैसे देशों की फिल्में अधिक पसंद थी।

1970 के दशक में पुणे फिल्म इंस्टीट्यूट से निकले फिल्मकारों ने भी फिल्म निर्माण के कई नए आयाम स्थापित किए। यही सिनेमा धीरे-धीरे टेलीविजन की दुनिया में भी प्रवेश कर गया। आज जिसे हम टेलीविजन पर देखते हैं, वह नाटक नौटंकी या थीएट्रिकल सिनेमा नहीं है। वह पूरी तरीके से सिनेमा का अनुभव देने वाला मनोरंजन है। जब मैंने दूरदर्शन के लिए भारत एक खोज जैसा सीरियल बनाया, तब तक देश में केवल दिल्ली, मुंबई और कोलकाता जैसे बड़े शहरों में ही टीवी स्टेशन होते थे। टेलीविजन तब आम आदमी का नहीं, बल्कि शहरी खास आदमी का मनोरंजन करता था। भारत एक खोज यदि एक यादगार कार्यक्रम बना इसके निर्माण से अधिक इसलिए कि यह इतिहास, संस्कृति, साहित्य और संगीत के बारे में लिखी एक अद्भुत पुस्तक पर आधारित था।
ब्लैक एंड वाइट से कलर, मूक सिनेमा से बोलती फिल्मों तक, 35 एमएम से 70 एमएम और सिनेमास्कोप, और टीवी से लेकर मोबाइल की स्क्रीन तक सिनेमा का एक लंबा सफल रहा है। इस सबके बीच शुद्ध सिनेमा कहीं दरकिनार कर दिया गया। अब फिल्मों के सामने बड़ी चुनौती है। घर के आरामदेह माहौल में मुफ्त मिलते मनोरंजन से लोगों को निकालकर थिएटर तक लाने के लिए फिल्मकारों को अब कुछ नया और कुछ विशेष करना पड़ रहा है। यदि फिल्मों वाला अनुभव लोगों को टीवी या मोबाइल पर मिल रहा हो, तो वे थिएटर क्यों आएंगे? इस सब में तेजी से तरक्की करती तकनीक का योगदान तो है ही लेकिन कंटेंट सर्वोपरि है। अब यह सिद्ध हो चुका है कि आप भले ही कितने भी गिमिक और तड़क-भड़क वाली महंगी फिल्म क्यों न बनाएं, लेकिन यदि वह कंटेंट के मामले में कमजोर है, तो लोग उसे पसंद नहीं करते।

सिनेमा के विकास के साथ लोगों की अपेक्षाएं और उम्मीद है भी बढ़ गई हैं। अर्थव्यवस्था के साथ सिनेमा का भी वैश्वीकरण हो गया है। पहले विदेशों में रिलीज हुई फिल्म को भारत में आने में वर्षों लग जाते थे। अब हॉलीवुड की कोई भी फिल्म पूरी दुनिया के साथ ही भारत में भी रिलीज होती है। यह भी तकनीक का ही कमाल है। कई बार लोग मुझसे पूछते हैं कि सिनेमा में आगे क्या बड़ा बदलाव आने वाला है। मेरा उत्तर होता है कि यह तो मुझे भी नहीं पता। जो पता है वह यह कि कंटेंट हमेशा प्रासंगिक रहने वाला है। संतुष्टि अब इस बात की भी है कि अब भारत की फिल्में विदेश की किसी भी फिल्मों से किसी भी मामले में पीछे नहीं हैं। चाहे वह तकनीक हो या कंटेंट। कई बार मुझसे लोग यह भी पूछते हैं कि क्या अब भी मुझे कोई ऐसी फिल्म बनाने की चाह रह गई जो मैं बनाना चाहता था और नहीं बना पाया। मेरा उत्तर होता है कि मैं अभी कोई रिटायर थोड़े ही हुआ हूं। मैं अभी भी फिल्में बना रहा हूं। फिलहाल मैं बांग्लादेश के पहले राष्ट्रपति और प्रधानमंत्री रहे शेख मुजीबुर रहमान के जीवन पर आधारित फिल्म पर काम कर रहा हूं।

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