राष्ट्रनायक न्यूज।
छपरा (सारण)। आईये, मार्क्स के जन्म दिन (5 मई) पर दलित नेताओं से कुछ विमर्श किया जाय। आज बहुत से दलित नेता जो अपने आप को अम्बेडकरवादी भी कहते हैं, लेकिन मनुवादी सत्ता के गोद में बैठे हुए नज़र आते हैं, वो मार्क्स और मार्क्सवाद की आलोचना करने में अपनी शान समझते हैं। उनसे ही आज मैं मुखातिब हूँ। डा० भीमराव अम्बेडकर की रचनाओं, अभियानों, भाषणों तथा चिंतन को यदि सम्पूर्णता के साथ विश्लेषणात्मक तौर पर अध्ययन किया जाय तो इस निष्कर्ष पर पहुंचने में कोई बाधा न होगी कि डा० अम्बेडकर कुछ मतभेदों के बावजूद मार्क्सवाद के मूल सिद्धांत से अपने आप को कभी भी अलग नहीं किये।
कुछ तथ्य का़बिले गौर हैं –
वर्ग के बारे में अम्बेडर की समझ स्पष्टत थी, वो अपने अंदाज में कहते हैं ; देखा जाय को दुनिया में दो ही जातियाँ हैं- पहली अमीरों की और दूसरी गरीबों की। फिर वो आगे बढ़ते हुए अपने आप को जोड़ते भी हैं कि ” मेहनतकशों के वर्गसंघर्ष के मुद्दे पर मैं कम्युनिस्ट दर्शन को अपने बेहद करीब महसूस करता हूँ”।
यह ऐतिहासिक सच है कि डा० अम्बेडकर का समूचा अभियान दलित और सामाजिक उत्पीड़न पर ही केन्द्रित था, जो शोषण के समग्रता में ही अन्तर्निहित है। फिर मार्क्सवाद के विपरीत जाने का प्रश्न ही कहाँ पैदा होता है! हाँ कार्य के दौरान कार्य शैली में मत भिन्नता होना स्वभाविक है।
अम्बेडकर को वर्ग संघर्ष के सिद्धांत पर मतभेद के बावजूद वर्ग के अस्तित्व में पूरा यकीन था। कहते हैं, समाज हमेशा वर्गों के आधार पर ही र्निमित है। प्रत्येक व्यक्ति किसी न किसी वर्ग का हिमायती अवश्य होता है (कास्ट इन इन्डिया- बी आर अम्बेडकर) दर असल डा० अम्बेडकर जिस मनुवाद के विरुद्ध खडे़ थे, मार्क्स ने भी कालजयी रचना ‘ पूँजी ‘ में उसकी हिमायत किया है।लिखते हैं-” मनु के मतानुसार जिस समाज व्यवस्था में समानता एक अभिशाप रहा हो, उस समाज के सापेक्ष समानता का विचार”लोकमत की नापसंद” बन गया था। भारत की धरती को साम्यवाद के अनुकूल बनाने की अवश्यकता है।यह मनुवाद की वजह से बंजर है और मार्क्सवाद के लिये एक अवरोधक है”। कार्ल मार्क्स के कथन का विश्लेषण करते हुए 1979 में ई. एम.एस. नम्बूदरीपाद ने वर्ग संघर्ष के एक हिस्से के रुप में जातीय चेतना और जातीय उत्पीड़न के विरुद्ध संघर्ष हेतु मार्क्सवादी दृष्टिकोण को स्पष्ट किया है:-
प्रत्येक व्यक्ति को यह समझना होगा कि आधुनिक लोकतंत्र और धर्मनिरपेक्षता के आधार पर भारत के निर्माण के लिए जाति आधारित हिंदू समाज और इसकी संस्कृति के खिलाफ एक समझौता विहीन संघर्ष की आवश्यकता है जब तक कि भारत की युगों पुरानी सभ्यता और संस्कृति का किला समझी जाने वाली जातियों के सोपानक्रम के आधार पर हुए विभाजन ढहा नहीं दिया जाता तब तक समाजवाद की तो बात ही छोड़ दें एक धर्मनिरपेक्ष लोकतंत्र भी संभव नहीं है। दूसरे शब्दों में क्रांतिकारी लोकतंत्र और समाजवाद के लिए संघर्ष को, जातीय समाज के खिलाफ संघर्ष से अलग नहीं किया जा सकता। बी.टी.आर ने भी अपनी पुस्तक जाति और वर्ग में ई. एम. एस. के उक्त कथन का हिमायत किया है।
डा० अम्बेडकर के बारे में यह दुष्प्रचार एक बकवास के सिवा और कुछ भी नहीं है कि वो साम्यवाद से दुश्मनागत भाव रखते थे।यदि ऐसा होता तो 1952 और 1953 में गायकवाड़ को लिखे पत्र में यह नहीं लिखते: ” यदि हमारे लोगों को यह लगता है कि कम्युनिस्टों में शामिल होने से उन्हें राहत मिल सकती है, मैं यह मानने को तैयार हूँ कि हमारे लोग कम्युनिस्टों में शामिल हो सकते हैं”।जी हाँ यह बात भी सही है कि साम्यवाद को भारत में उतारने के प्रति उनको कई प्रकार के मतभेद थे, फिर भी इसे एक मुक्तिकामी दर्शन मानने में उन्हें कोई हिचक नहीं थी।
सारतः आज अम्बेडकर को पढ़ने की आवश्यकता
कहीं अधिक सामयिक है।वर्तमान राजनैतिक परिवेश में हम देख रहे हैं कि घोर मनुवादी भी उनके प्रति श्रद्धा भाव प्रदर्शित कर रहे हैं।यह नीरा वोट की राजनीति के सिवा और कुछ भी नहीं है।वो तो गाँधी को भी पुष्प अर्पित करते हैं फिर गोडसे के सामने सर नवाते हैं।ये सब सत्ता लालसा की हरकते हैं।
आज दलित नेताओं को कम से कम वैसी कार्रवाइयों से सतर्क रहने की आवश्यकता है। मैं वैसे दलित नेताओं से विनम्रर आग्रह करना चाहूँगा कि डा०अम्बेकडर के साथ ही कार्ल मार्क्स को भी समझें, तभी शोषित पीड़ित अवाम,दलित जिसका एक बडा़ हिस्सा है, मुक्ति मार्ग सुगम हो सकती है। साथ ही यह वास्तविकता भी नज़र आने लगेगी कि कम्युनिस्ट ही दलितों के स्वभाविक मित्र हैं।


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