राष्ट्रनायक न्यूज।
पटना (बिहार)। हिंदू राष्ट्रवाद की कल्पना भारत के संदर्भ में बेईमानी पूर्ण सोच का ही नतीजा है ।आखिर इस देश के अंदर हिंदू राष्ट्र की सोच और उसकी आधारशिला रखने की जरूरत क्यों एक खास जमात की जरूरत बनती जा रही है? भारतीय स्वतंत्रता के लिए साम्राज्यवाद विरोधी आंदोलन को आमतौर से भारतीय राष्ट्रीय आंदोलन के रूप में व्याख्यायित किया जाता रहा है। तथा उसी के अनुरूप विभिन्न भाषा भाषी लोगों व राष्ट्रीयताओं को एक भारतीय राष्ट्र के रूप में परिभाषित किया गया है। भारत उपमहाद्वीप व भारतीय संघ में कहलाने से पहले तथा इसके बाद में भी भारत एक विशाल महादेश रहा है जहां विभिन्न भाषाएं बोलने वाले ,विभिन्न क्षेत्रों में बसे हुए तथा विभिन्न जातीय नस्ली और सांस्कृतिक समूह के लोग रहते हैं। भारत के लिए यूरोपीय तर्ज का एकल राष्ट्र बन पाना संभव नहीं और ऐसी कोई भी कोशिश आत्मघाती साबित होगी क्योंकि ऐसी कोशिश भारत के ऐतिहासिक अनुभव के नकार पर टिकी होगी। संविधान में भारतीय राज्य को भारतीय संघ के रूप में परिभाषित किया गया है तथा इसका चरित्र बहुभाषी और बहुराष्ट्रीय है। इस मुद्दे पर बिना स्पष्ट सोच के ना तो भारतीय एकता व अखंडता की रक्षा के लिए सचेतन कार्य करना संभव है और न बिखराव व विखंडन की ताकतों से प्रभावशाली ढंग से संघर्ष किया जा सकता है।
शैलेन्द्र यादव, राज्याध्यक्ष, एसएफआई (बिहार)।
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