शिक्षक नेता ही नहीं बल्कि सामाजिक क्रांति के मजबूत हस्ताक्षर थे स्व. रमाशंकर गिरि
राष्ट्रनायक प्रतिनिधि।
छपरा (वीरेंद्र कुमार यादव/के. के. सिंह सेंगर)। बिहार राजकीयकृत प्राथमिक शिक्षक संघ के संस्थापक व सामाजिक कुरीतियों के खिलाफ आवाज बुलंद करनेवाले सामाजिक चिन्तक, शिक्षविद्, क्रांतिकारी विचारधारा के समर्थक व बिहार के ग्रामीण इलाकों मे शिक्षा एवं जनसंस्कृति की मशाल जलाने वाले जन-नायकों का स्मरण करें, तो रमाशंकर गिरि का नाम उन अग्रिम कतारों मे लिखा जाएगा। जिन्होंने जनमानस की चेतना को झकझोरने और अंधेरे से उजाले की ओर ले जाने में अपनी अप्रतिम भूमिका का निर्वाह किया। वे सदैव साधारण ग्रामीण की तरह रहे। लेकिन उन्होंने जनहित और जनसाधारण के असाधारण काम किये। उनके द्वारा सामाजिक परिवर्तन के लिए किये गए प्रयासों की अनुगुंज केवल बिहार तक सीमित नहीं रही। वे देश के उन गिने-चुने लोगों मे थे, जिन्होंने कथित ‘आजादी’ के छद्म को अपनी किशोरावस्था में ही पहचान लिया था। शनैः शनैः आजादी के इस छद्म से मुक्ति और एक सच्ची आजादी के साथ ही तमाम सामाजिक कुरीतियों के खिलाफ संघर्ष उनके जीवन का लक्ष्य बनता चला गया। गिरि जी सारण जिले के मांझी अंचल अंतर्गत दाउदपुर से सटे गांव बलोखड़ा में 8 सितंबर 1945 को वे महातम गिरि के घर पैदा हुए थे। आर्थिक बदहाली को झेलते हुए उन्होंने स्नातकोत्तर तक की शिक्षा पूरी की। जहां 21 वर्ष की उम्र में सारण जिले के मांझी अंचल में स्थित कन्या प्राथमिक विद्यालय महम्मदपुर में शिक्षक के रूप में योगदान किया। अपनी 26 वर्षों तक लगातार सेवा के दौरान अनेक सामाजिक कार्यों को महती अंजाम दिया। कुलीन गोस्वामी ब्राह्मण परिवार के होते हुए भी समाज में व्याप्त छुआछूत, जातीय विद्वेष एवं मानवीय भेदभाव, दलितों, पिछड़ों सहित उपेक्षित जनसमुदाय के लिए “समाजोद्धार संघ” की उन्होंने 1968 में स्थापना की। उनके इस क्रांतिकारी कदम से तथाकथित बड़े लोगों में भूचाल आ गया। फलस्वरूप गिरि जी को अपने मनुवादी विरोधी विचारों एवं महिलाओं पर किए जा रहे अत्याचारों के विरुद्ध संघर्षों एवं जन-जागरण अभियानों के कारण न केवल अपने स्वजातीय बंधुओं, बल्कि सत्ताधारी वर्ग का भी कोपभाजन बनना पड़ा। लेकिन गिरि जी चट्टान की तरह अडिग रहकर धार्मिक अंधविश्वास, आडम्बर एवं जातिगत विद्वेष के खिलाफ संघर्ष करते हुए आजीवन ऐतिहासिक अग्रणी भूमिका निभाते रहे। बिना तिलक-दहेज के हिन्दू समाज में शादी-ब्याह की कल्पना तक नहीं की जा सकती थी। उस समय इस अनथक योद्धा ने इस प्रथा का प्रबल विरोध कर कन्याओं के उद्धार का संकल्प पूरा किया। उनके शिक्षक सेवा ने सही अर्थों में मात्र कक्षा तक ही अपना दायित्व नहीं समझा, बल्कि पूरे समाज को ही पाठशाला का व्यापक स्वरूप प्रदान कर दिया। उन्होंने सिखलाया कि शिक्षक समाज का मार्गदर्शक व नेता भी होता है। वह चाहे तो परिवर्तन का शंखनाद कर सकता है। वे इस बात को भली भांति समझते थे कि अपने विचारों को जन-जन तक ले जाने के लिए शिक्षा एक उपयोगी माध्यम है। इसलिए उन्होंने शिक्षा और संघर्ष को एक साथ जोड़ते हुए प्रारंभिक शिक्षा में लगे शिक्षकों को संगठित कर वर्ष 1977 में राजकीयकृत प्राथमिक शिक्षक संघ की स्थापना की। जिसे वे आजीवन संवारते रहे। वहीं “शिक्षा-प्रहरी” पत्रिका का संपादन करते हुए पूरी निष्ठा के साथ प्रगतिशील विचारों का पोषण किया। संघर्ष के दौरान वे कई बार जेल भी गए। वर्ष 1980 में उनके विरुद्ध देशद्रोह का मुकदमा भी दर्ज हुआ। जिस व्यक्ति का स्वयं का कोई स्वार्थ न हो जिसने अपना पूरा जीवन सामाजिक, सांस्कृतिक, शैक्षणिक व राजनैतिक परिवर्तन की लड़ाई में झोंक दिया हो। इतिहास गवाह है कि ऐसे मुक्ति योद्धा को बड़े से बड़े तानाशाह भी पराजित नहीं कर सके। रमाशंकर गिरि भी उसी कोटि के जन-प्रिय योद्धा थे. जिन्हें सामंती सत्ता-व्यवस्था भी उनके उद्देश्यों से विचलित नहीं कर सकी। साम्यवाद की शिक्षा को उन्होंने अपने जीवन मे उतार कर अपने आचरण में शामिल किया था। शोषण विहीन समाज की स्थापना को शहीदे आजम भगत सिंह की तरह ही वे अपने जीवन की सबसे बड़ी सामाजिक व राजनैतिक जरूरत समझते थे। डॉ राममनोहर लोहिया और लोकनायक जयप्रकाश जैसे समाजवादी नेताओं से भी इनका आत्मीय संबंध था। वे उनकी मुक्ति चेतना के प्रशंसकों में से एक थे। सच तो यह है कि रमाशंकर गिरि की विचार यात्रा आज भी जारी है।बहरहाल, जरूरत इस बात की है कि आनेवाली पीढियां उनके विचारों के आलोक में जलती हुई मशाल के साथ मंजिल का वाहक बन कर अपने दायित्व को पूरा कर सके। यही उनके प्रति सच्ची श्रद्धांजलि होगी। आज के इस दौर में भी बिहार राजकीयकृत प्राथमिक शिक्षक संघ के प्रदेश प्रदेश अध्यक्ष व रमाशंकर गिरि के पुत्र उदय शंकर गुड्डू अपनी पिता द्वारा दी गई नसीहतों के दीपक से क्षेत्र को आलोकित कर रहे हैं।


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