हिमालयी त्रासदी से उठे सवाल, कैसे मिली बांध बनाने की अनुमति
उत्तराखंड के नंदा देवी बायोस्फियर (जैवमंडल) में जहां किसी गांव को एक पत्ता भी छूने की अनुमति नहीं है, वहां पर ऋषिगंगा में एक बांध बनाने की अनुमति मिल जाती है। यह कैसी विडंबना है कि एक तरफ गांव, घर, जंगल और जमीन को बचाने वाले उस बायोस्फियर में कोई अधिकार नहीं रखते, लेकिन दूसरी तरफ एक बांध बनाकर हम इतनी बड़ी तबाही को जन्म दे देते हैं। अब समय इसका मंथन करने का भी है कि उत्तराखंड में बनने वाले बांधों की सीमा आखिर कब तय की जाएगी।
यह समय इस प्रश्न पर विचार करने का भी है कि वर्तमान में जो तमाम बांध हमारे बीच में हैं, उनकी सुरक्षा की कितनी गारंटी है। अगर आज हमने इन सवालों के उत्तर नहीं ढूंढे और कोई ठोस निर्णय नहीं लिया, तो ऋषिगंगा जैसे हालात फिर खड़े हो जाएंगे। उत्तराखंड राज्य बनने के समय मन में यह उत्साह था कि यहां विकास की शैली ऐसी हो, जो इसके स्वभाव से जुड़ी हो, ताकि यह राज्य दुनिया में अपने आप को नए सिरे से स्थापित करे। यहां के लोग निश्चित रूप से दूसरे पहाड़ी राज्यों और देशों से अपनी तुलना का सपना संजोए हुए थे। इस पहाड़ की तुलना हम स्विट्जरलैंड से करने जा रहे थे या अपने आप को भूटान जैसा देश बनाने के पक्ष में थे। लेकिन यह सब कुछ आज धराशायी होता हुआ दिखाई देता है।इससे इन्कार नहीं किया जा सकता कि हमें विकास चाहिए, लेकिन इस सिलसिले में इस पर जोर देने में हम बार-बार चूक जाते हैं कि हमारे विकास में पारिस्थितिकीय समावेश होना चाहिए। चाहे कोई बांध बनाना हो, सड़क का निर्माण करना हो या फिर कोई अन्य ढांचागत विकास, अगर इन सब में पारिस्थितिकी का जुड़ाव नहीं होगा, तो उसके वही परिणाम हमारे सामने होंगे, जो आज हमें ऋषिगंगा में दिखाई देता है।
एक बार फिर उत्तराखंड अपनी लापरवाही के कारण एक बड़ी आपदा की चपेट में आ फंसा है। यह आपदा इस बार शायद इस ओर साफ इशारा करती है कि हम कहीं बड़ी भूल कर रहे हैं। दूरस्थ पहाड़ियों के बीच में से निकलती ग्लेशियर पोषित ऋषिगंगा नदी पर बांध बना लेना हमारी गलती इसलिए भी था कि ग्लेशियर के नजदीक बांध बनाने की सोच ठीक नहीं कही जा सकती। इसके निर्माण के समय शायद हमारी महत्वाकांक्षा ने इस बात को महत्व नहीं दिया कि प्राकृतिक दृष्टिकोण से यह फैसला भविष्य में बहुत घातक सिद्ध हो सकता है और यही हुआ।
पिछले कुछ समय से उत्तराखंड तमाम तरह की आपदाओं के बीच में घिरा रहा है। एक बड़ी आपदा जो वर्ष 2013 में आई थी और जिसने पूरे देश और दुनिया को हिला दिया था, वह केदारनाथ त्रासदी थी। उस आपदा के दस साल भी पूरे नहीं हुए कि फिर वैसी ही एक आपदा हमारे सामने आई। दोनों ही आपदाओं में एक बात सामान्य थी कि इन जलजले का कारण पहाड़ की चोटियों के ग्लेशियर से जुड़ा हुआ रहा है। वर्ष 2013 में जून के महीने की तपती धूप के बीच आकस्मिक वर्षा ने उस बड़ी त्रासदी को जन्म दिया था। जबकि विगत रविवार को हुई दूसरी त्रासदी में ग्लेशियर के टूटने से ऋषिगंगा के मुहाने पर बना बांध जलप्रलय की चपेट में आ गया।
इस तरह लगातार आने वाली आपदाओं से, चाहे ऐसी आपदा उत्तराखंड में आई हो या अन्य हिमालयी राज्यों में, सवाल तो जरूर उठ खड़े होते हैं कि बांधों के बारे में हमारी नीतियां क्या हैं। हमारे ढांचागत विकास या अन्य महत्वाकांक्षी योजनाओं में हिमालयी क्षेत्रों की संवेदनशीलता को आखिर कितना समझा गया है? इसके साथ-साथ हमें यह भी स्वीकार कर लेना होगा कि हम हिमालय से संबंधित अपनी पर्यावरणीय नीतियां अभी तक तय नहीं कर पाए हैं और न ही इस दिशा में सोच पाए हैं कि हमारी सीमाएं क्या होनी चाहिए। इस आपदा के बारे में यह सोचना भी ठीक नहीं कि हहराते पानी का सफर सिर्फ सौ-दो सौ किलोमीटर तक ही सीमित था।
इसे इस तरह से सोचना चाहिए कि अगर यह बांध एक बड़ा बांध होता, जिसमें करोड़ों-अरबों लीटर पानी जमा होता और वह बांध इसी तरह के किसी कारण से टूट जाता, तो उससे शायद पूरे उत्तराखंड के बड़े हिस्से और हरिद्वार समेत उससे आगे का बड़ा भूभाग भी तबाही की चपेट में आ सकता था। और यह आपदा भी कोई छोटी नहीं है, जिसमें बीस या उससे भी अधिक लोगों के शव मिले हैं तथा करीब दो सौ लोग गायब बताए जा रहे हैं। लगभग 4,000 करोड़ से अधिक के नुकसान का आंकड़ा फिलहाल बताया जा रहा है। इसके बारे में सटीक आकलन तो आने वाले दिनों में ही हो सकेगा। जिस जगह यह हादसा हुआ, वह पूरा इलाका अलग-थलग पड़ चुका है। कई पुलों के ध्वस्त होने की खबरें है। हालांकि निचले इलाके में कोई भय या आशंका नहीं है, क्योंकि इस नदी पर आगे बने बांधों में इकट्ठा पानी को खोल दिया गया था। यही कारण है कि इस पानी ने निचले इलाकों में ज्यादा तबाही नहीं मचाई।
इस आपदा से जुड़े कई अन्य मुद्दों पर भी विमर्श करने की जरूरत है। पहला यह कि हमें राज्य या फिर हिमालय के अन्य बांधों के प्रति पारिस्थितिकीय सुरक्षा की नए सिरे से चिंता करनी होगी। वर्तमान में बने हुए बांधों की सुरक्षा के बारे में सोचने के साथ-साथ नए प्रस्तावित बांधों की भी नए सिरे से विवेचना करनी होगी। साथ ही, हमें मात्र हिमालय की जल संपदा या जल शक्ति का ही आकलन नहीं करना चाहिए, बल्कि हिमालय के इस तरह के बांधों की पारिस्थिकीय वहन क्षमता का भी आकलन करना होगा। इतना ही नहीं, अब हिमालय में विकास की भी सीमा बनानी होगी। हिमालयी राज्यों की स्थापना में कहीं यह शर्त भी थी कि विकास की इनकी शैली ऐसी होगी, जो इनके स्वभाव से मेल खाए। लेकिन दुर्भाग्य से ऐसा नहीं हुआ। आज ज्यादातर हिमालयी राज्य शोषण का हिस्सा बने हुए हैं। हिमालय पूरे देश की आवश्यकता है, इसलिए सबको इसकी चिंता से जुड़ना होगा। वर्तमान त्रासदी को शायद हम जल्दी ही भूल जाएंगे। लेकिन प्रकृति अब शायद हमें भूलने नहीं देगी, क्योंकि हमारी सोच बदलती नहीं दिखाई देती। इस तरह की घटनाएं मनुष्य के अंत की शुरूआत के भी संकेत हो सकते हैं। ईश्वर तो एक बार फिर भी हमें माफ कर सकते हैं, पर शायद प्रकृति माफ नहीं करेगी, क्योंकि अपने बार-बार हमने सीमाएं तोड़ी हैं। इसलिए हम क्षमा के योग्य नहीं है।


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