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मानसिक स्वास्थ्य की कीमत पर हो रहा है आर्थिक विकास

मानसिक स्वास्थ्य की कीमत पर हो रहा है आर्थिक विकास

कोविड महामारी ने मानसिक स्वास्थ्य के मुद्दे की तरफ दुनिया का ध्यान खींचा है और भारत भी अपवाद नहीं है। पर सरकार के पास कुल मानसिक स्वास्थ्य पेशवरों का कोई आंकड़ा उपलब्ध नहीं है। स्वास्थ्य और परिवार कल्याण मंत्रालय के राज्य मंत्री अश्विनी कुमार चौबे ने राज्यसभा में बताया है कि सरकारी और निजी क्षेत्रों में मानसिक स्वास्थ्य पेशेवरों के आंकड़े, जिसमें मनोचिकित्सक भी शामिल हैं, सरकार केंद्रीय रूप में नहीं रखती। एक स्वस्थ तन में ही स्वस्थ मस्तिष्क का वास होता है, पर अगर मस्तिष्क स्वस्थ नहीं होगा, तो तन भी बहुत जल्दी रोगी हो जाएगा।

विश्व स्वास्थ्य संगठन के 2019 के आंकड़ों के मुताबिक, भारत की 7.5 प्रतिशत जनसंख्या मानसिक स्वास्थ्य विकारों से पीड़ित है, जिनमें अवसाद प्रमुख है। कोविड के बाद निश्चित तौर पर इसमें वृद्धि हुई होगी। किसी भी देश के लिए ऐसे आंकड़े अच्छे नहीं कहे जाएंगे। अवसाद से पीड़ित व्यक्ति भीषण दुख और हताशा से गुजरते हैं। हृदय रोग और मधुमेह जैसे रोग अवसाद के जोखिम को तीन गुना तक बढ़ा देते हैं। समाजशास्त्रीय नजरिये से देखा जाए, तो यह प्रवृत्ति हमारे सामाजिक ताने-बाने के बिखरने की ओर इशारा कर रही है। बढ़ता शहरीकरण और एकल परिवारों की बढ़ती संख्या लोगों में अकेलापन बढ़ा रहे हैं और संबंधों की डोर कमजोर हो रही है। आर्थिक विकास से ही व्यक्ति की सफलता का आकलन किया जाता है, जबकि सामाजिक पक्ष की अनदेखी की जा रही है। शहरों में फ्लैट संस्कृति अपने साथ कई समस्याएं लाई हैं, जिसमें अकेलापन प्रमुख है।

इसका निदान लोग अधिक व्यस्तता में खोज रहे हैं। अधिक काम करना, कम सोना, टेक्नोलॉजी पर बढ़ती निर्भरता, सोशल नेटवर्किंग पर भीड़ और सेल्फी खींचने की सनक इसी संक्रमण की निशानी है, जहां हम के बजाय मैं पर जोर दिया जाता है। मानसिक स्वास्थ्य की कीमत पर आर्थिक विकास हो रहा है। इस तरह अवसाद के एक ऐसे दुश्चक्र का निर्माण होता है, जिससे निकल पाना लगभग असंभव होता है। अवसाद से निपटने के लिए नशीले पदार्थों का सेवन समस्या को और बढ़ा देता है। आर्थिक रूप से संपन्न लोगों में यह समस्या ज्यादा देखी जा रही है। जागरूकता की कमी भी एक बड़ा कारण है। मानसिक स्वास्थ्य कभी लोगों की प्राथमिकता में नहीं रहा और इसे गंभीरता से नहीं लिया जाता।

मेंटल हेल्थ केयर ऐक्ट, 2017 में इस बात का प्रावधान है कि एक केंद्रीय प्राधिकरण नैदानिक मनोचिकित्सकों, मनोरोग नर्सों और मनोरोगी की देखभाल करने वाले सामाजिक कार्यकतार्ओं का आंकड़ा रखेगा। सारे रजिस्टर्ड मानसिक स्वास्थ्य पेशवरों का आंकड़ा इस उद्देश्य से राज्यों द्वारा उपलब्ध कराया जाएगा कि इस सूची को इंटरनेट और अन्य जगहों पर प्रकाशित किया जाएगा। यह ऐक्ट मनोचिकित्सक, मनोरोगी की देखभाल वाले सामाजिक कार्यकर्ता और नैदानिक मनोचिकित्सक के बीच अंतर जरूर स्पष्ट करता है, पर आम तौर पर समझे जाने वाले शब्द साइको थेरपिस्ट और परामर्शदाता (काउंसिलर) के बीच के अंतर को परिभाषित नहीं करता। यह उलझन मंत्रालयों के बीच भी है, जहां नैदानिक मनोचिकित्सक को पुनर्वास पेशेवरों की तरह माना जाता है और उन्हें सामाजिक न्याय और सशक्तीकरण मंत्रालय के अधीन भारतीय पुनर्वास परिषद में अपना पंजीकरण करवाना होता है। देश में कोई भी नैदानिक मनोचिकित्सक भारतीय पुनर्वास परिषद के केंद्रीय पंजीकरण के बिना प्रैक्टिस नहीं कर सकता। जिस देश में मानसिक स्वास्थ्य की समस्या लगातार गहराती जा रही है और जहां दस हजार की आबादी में मात्र दो मानसिक स्वास्थ्य बिस्तर उपलब्ध हों, वहां मेंटल हेल्थ सोशल वर्कर, थेरेपिस्ट और काउंसिलर सामुदायिक स्वास्थ्य में पुल की भूमिका निभा सकते हैं। कहा जाता है कि किसी भी रोग का आधा निदान उसकी सही पहचान होने से हो जाता है। रोग की पहचान हो चुकी है। भारत इसका निदान कैसे करेगा, इसका फैसला होना अभी बाकी है।

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