ग्रामीण ठन-ठन, कंपनियां बम-बम
कोविड-19 महामारी पीड़ित अर्थव्यवस्था वृद्धि की राह पर तो लौट रही है, मगर कंपनियों के बढ़ते मुनाफे के मुकाबले ग्रामीण आबादी के हाथ खाली हैं। बजट में हालांकि ग्रामीण विकास योजनाओं के लिए डेढ़ लाख करोड़ से अधिक राशि का प्रावधान है, मगर गांवों में बेरोजगारी से लोग बेहाल हैं। दीवाली एवं छठ पर गरीब कल्याण योजना बंद होने से गांवों में गरीबों एवं निम्न मध्यवर्ग की आर्थिक हालत पतली है। इसके बरक्स देश की 2,485 कंपनियों ने अक्तूबर-दिसंबर तिमाही में पिछली 25 तिमाही से कहीं अधिक मुनाफा कमाया है। यह आंकड़ा महामारी में आम आदमी की मुफलिसी बढ़ने के बावजूद धन्नासेठों के मुनाफे में 35 फीसदी इजाफे से आर्थिक विषमता बढ़ने के दर्दनाक तथ्य की ही पुष्टि कर रहा है।
शेयर बाजार में अधिसूचित कंपनियों का मुनाफा बढ़ना हालांकि अर्थव्यवस्था में वृद्धि लौटने की खुशखबरी भी है। लॉकडाउन की अगली तिमाही में अर्थव्यवस्था शून्य से 24 फीसदी नीचे गिर गई, मगर कृषि क्षेत्र में 3.4 फीसदी वृद्धि के बावजूद गांवों में बेरोजगारी है। उस दौरान मनरेगा, गरीबों को मुफ्त अनाज, किसानों, बेसहारा बुजुर्गों, विधवाओं, शारीरिक कमी के शिकार लोगों को आर्थिक सहायता मिली थी, जिनमें से अधिकतर बंद हो चुकी हैं। लॉकडाउन के झटके से बंद हुए करीब एक-तिहाई लघु एवं सूक्ष्म उद्यमों तथा काम-धंधों के ठप होने के कारण बहुत से बेरोजगार प्रवासी मजदूर गांवों में ही रुके हैं। कृषि में नवंबर से मार्च के बीच अत्यल्प रोजगार मिलता है। इसलिए परिवार से मात्र एक व्यक्ति को साल में 100 दिन रोजगार देने वाले मनरेगा के अलावा उनके पास अन्य कोई रोजगार नहीं है। ऊपर से रोजमर्रा के उपभोग की वस्तु महंगी हो रही हैं। ग्रामीण मजदूरी मासिक सर्वेक्षण के अनुसार, शहरों में रोजगार घटने से गांवों में अक्तूबर, 2019 से नवंबर, 2020 के बीच मजदूरी की दर लगातार घटी है। जनवरी, 2021 के भारतीय रिजर्व बैंक के द्वैमासिक उपभोक्ता भरोसा सर्वेक्षण में भी लोगों ने बहुमत से पिछले साल दिसंबर-जनवरी के मुकाबले इस बार रोजगार एवं आमदनी घटने की पुष्टि की है।
सर्वेक्षण में देश के 13 महानगरों में रोजगार एवं आमदनी घटने से साफ है कि बेरोजगार प्रवासियों का गांवों पर दबाव बरकरार है। महामारी ने देश में करोड़ों लोगों को बेरोजगारी, गरीबी, अशिक्षा और बाल मजदूरी की तरफ धकेला है। संयुक्त राष्ट्र के अनुसार, भारत में 15 करोड़ लोगों के गरीबी रेखा से नीचे पहुंचने की आशंका है। इनमें भी स्त्रियों पर तो 13 फीसदी बेरोजगारी एवं भीषण घरेलू हिंसा की गाज गिरी है। बच्चों, गर्भवती एवं प्रसूता माताओं, बुजुर्गों, असाध्य बीमारीग्रस्त लोगों को इलाज, दवा, टीकाकरण एवं पोषण के भी लाले पड़े हुए हैं। महामारी से अर्थव्यवस्था अप्रैल-सितंबर की छमाही में औसतन 16 फीसदी टूट चुकी, मगर शेयर बाजार सूचकांक पहली बार 50,000 अंक की बुलंदी पर है। केंद्रीय बजट में बहुमूल्य सरकारी उद्यमों, बंदरगाहों, हवाई अड्डों, रेलवे स्टेशनों—ट्रेनों, बैंकों, एलआईसी तथा सरकारी जमीनों के निजीकरण की घोषणा ने शेयर बाजार को और सुर्खरू ही किया।
आर्थिक विषमता की भयावहता की तस्दीक राजधानी दिल्ली में 42.59 फीसदी परिवारों के मासिक 10 हजार रुपये से भी कम में गुजारे की मजबूरी भी कर रही है। दिल्ली सरकार के सर्वेक्षण के इन आंकड़ों में राजधानी दिल्ली के आधे बच्चे और गर्भवती माताएं पोषण एवं टीकाकरण की सुविधा से महरूम हैं। जब केंद्र और राज्य सरकारों की मेहरबानियों और निगरानी से लबरेज दिल्ली वालों की ऐसी दुर्गति है, तो उत्तर प्रदेश, बिहार, मध्य प्रदेश, राजस्थान, असम, ओडिशा एवं झारखंड जैसे अति पिछड़े राज्यों का कितना बुरा हाल होगा, यह सोचा जा सकता है। जाहिर है कि आर्थिक विषमता के लगातार फल-फूल रहे इस घातक वायरस से मुक्ति पाना भी उतना ही जरूरी है, जितना कोविड-19 महामारी से निजात के लिए टीकाकरण। यह दुनिया में दूसरी सबसे अधिक आबादी वाले देश भारत में अमन और सामाजिक भाईचारे के लिए भी जरूरी है।


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