राष्ट्रनायक न्यूज। आंदोलन के बढ़ते दिनों के साथ किसानों की बोली में बढ़ती उग्रता चिंता बढ़ाने लगी है। संसद को चालीस लाख ट्रैक्टर के जोर पर घेरने की चेतावनी, इंडिया गेट के पास के पार्कों में जुताई और फसल उगाने की चेतावनी कतई हल्की नहीं है। चेतावनी की पूरी गंभीरता का अंदाजा सरकार को जरूर होगा। एक ट्रैक्टर रैली राष्ट्रीय राजधानी 26 जनवरी को देख चुकी है, किस तरह से उपद्रव की स्थिति बनी, अराजकता हुई। राष्ट्र के लिए अपमान के दृश्य उपस्थित हुए, भला कौन भूल सकता है? क्या आंदोलनकारी किसान वैसा ही कोई दुखद मौका फिर पैदा करना चाहते हैं? हम देख चुके हैं, शांति और अनुशासन के हलफनामों का विशेष अर्थ नहीं है। इसके पहले की ऐसी अतिरेकी योजनाओं पर कुछ किसान नेता अमल करें, सरकार को सावधानीपूर्वक ऐसे कदम उठाने चाहिए, ताकि राष्ट्रीय राजधानी और देश को फिर अपमान न झेलना पड़े। इधर, आंदोलन के मंच से उग्रता बढ़ी है, तो तरह-तरह के अतिवादी बयान सामने आने लगे हैं। किसानों को संयम नहीं खोना चाहिए। संयम खोकर वे देश के दूसरे लोगों का समर्थन ही गंवाएंगे। संसद, इंडिया गेट, राष्ट्रीय राजधानी पर पूरे देश का हक है। आंदोलन कोई भी हो, दूसरों को होने वाली तकलीफ के बारे में भी सोचना चाहिए, इस दिशा में सुप्रीम कोर्ट भी अनेक बार इशारा कर चुका है।
वैसे आंदोलनकारी नेताओं को भी पता है, संसद को निशाना बनाना जघन्य अपराध है और वे दस-पंद्रह साल के लिए जेल जाने को भी तैयार दिख रहे हैं। लेकिन यह नौबत ही क्यों आए? किसानों को यह सोचना चाहिए कि क्या राष्ट्रपिता महात्मा गांधी भी यही करते? क्या वह कभी यह बोल सकते थे कि किसान निजी गोदामों पर हमला बोल दें? क्या वह किसानों को यह कह सकते थे कि अपनी खड़ी फसल को अपने हाथों बर्बाद कर दो, जला दो? आंदोलन के उग्र तौर-तरीकों के बजाय किसानों को ज्यादा संतुलित और स्वीकार्य तरीकों से अपनी मांग रखनी चाहिए। किसी भी आंदोलन के लिए अनुशासन जरूरी है। आह्वान वही करना चाहिए, जिससे राष्ट्र और राष्ट्रीय प्रतीक आहत न होते हों। उग्र आंदोलनों की परंपरा को मजबूत करने से पहले भविष्य में होने वाले आंदोलनों के बारे में सोच लेना चाहिए। आज की स्थिति में केवल किसान ही नहीं, समाज के अनेक वर्गों की अलग-अलग मांगें होंगी।
क्या हर आंदोलन राष्ट्रीय राजधानी और संसद को निशाना बनाने लगेगा? आज देश के बारे में सोचना पहले से भी कहीं ज्यादा जरूरी हो गया है। आंदोलन की आंच पर देश या सरकार विरोधी तत्व अपनी रोटियां सेंक लेना चाहते हैं। यह आंच जितनी जल्दी बुझे, सरकार के लिए उतना ही अच्छा है। अत: सरकार को पूरी तन्मयता के साथ इस समस्या को सुलझाना है। इस पर एक फैसला सुप्रीम कोर्ट से भी आएगा, लेकिन उससे पहले किसानों को समझाना सरकार की ही जिम्मेदारी है। सरकार और किसान संगठनों के बीच अंतिम बैठक 22 जनवरी को हुई थी, तो उसके बाद बातचीत क्यों बंद है? क्या बातचीत बंद करने से समाधान निकल आएगा? आंदोलन छोड़ किसानों के यूं ही लौट जाने के इतिहास से ज्यादा उम्मीद नहीं रखनी चाहिए। यह नए दौर के नए किसान और नए किसान नेता हैं, उनके भय और भाव को समझना होगा। देश और उसके आंदोलनों को किसी नए दाग से बचाना होगा।
More Stories
हर घर दस्तक देंगी आशा कार्यकर्ता, कालाजार के रोगियों की होगी खोज
लैटरल ऐंट्री” आरक्षण समाप्त करने की एक और साजिश है, वर्ष 2018 में 9 लैटरल भर्तियों के जरिए अबतक हो चूका 60-62 बहाली
गड़खा में भारत बंद के समर्थन में एआईएसएफ, बहुजन दलित एकता, भीम आर्मी सहित विभिन्न संगठनों ने सड़क पर उतरकर किया उग्र प्रदर्शन