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प्रधानमंत्री के नाम पर स्टेडियम का नाम, कितना उचित?

दिल्ली, एजेंसी। एक समय नरेंद्र नाम का एक राजा था। उसने बहुत बड़े साम्राज्य पर शासन किया, जहां अन्य चीजों के अलावा हिंदू धर्म का पवित्रतम स्थल स्थित था। अपने वंश और इस महान मंदिर का संरक्षक होने के नाते उसकी प्रजा उसे देवतुल्य मानती थी। हालांकि अपनी वंशानुगत हैसियत के आधार पर मिले पवित्र स्थान के बावजूद वह असंतुष्ट था। उसकी इच्छा थी कि वह खुद को निर्णायक रूप से उन लोगों से अलग रखे, जो उससे पहले सिंहासन पर बैठ चुके थे या उसके बाद सिंहासन पर बैठ सकते थे। तो हमारे इस अहंकारी राजा ने खुद के लिए और अपनी प्रजा के लिए एक नई राजधानी बनाई। उसने इसका नाम रखा, नरेंद्रनगर।

मैंने जो कहानी बताई वह न तो मिथक है और न ही प्राचीन है। यह सच है, और मैंने जिन घटनाक्रमों का जिक्र किया, वे महज एक शताब्दी पहले घटित हुए थे। यह राजा थे, टिहरी गढ़वाल स्टेट के राजा नरेंद्र शाह, जिनके परिवार का बदरीनाथ मंदिर पर नियंत्रण था। उनके नाम पर स्थापित की गई राजधानी 1919 में तैयार हुई। गढ़वाल की तराई में बड़ा होते हुए मैं अक्सर नरेंद्रनगर जाता था। उस जगह की स्मृति और इसके जन्म की कहानी मुझे तब याद आ गई, जब मैंने सुना कि अहमदाबाद के एक बड़े क्रिकेट स्टेडियम का नाम नरेंद्र मोदी कर दिया गया है। इस नाम के चयन से संबंधित पूरे ब्योरे तो शायद कभी सार्वजनिक नहीं होंगे। एक अंग्रेजी अखबार ने नरेंद्र मोदी रिनेम्स स्टेडियम आॅफ्टर हिमसेल्फ शीर्षक से खबर प्रकाशित की। इस बात की संभावना अधिक है कि यह विचार उस गुजराती राजनेता की उपज हो, जिसके मजबूत पारिवारिक हित भारतीय क्रिकेट प्रशासन से जुड़े हुए हैं, जिसके जरिये वह अपने बॉस को खुश करना और अपनी संतान की आलोचनाओं को चुप करवाना चाहते हों। जो भी हो, मौजूदा प्रधानमंत्री के लिए इस तरह नाम बदलने को प्रोत्साहित करना या शुरूआत करना दिखावा करने का स्तब्धकारी प्रदर्शन है और जैसा कि ट्विटरजनों ने तुरंत ही याद भी दिलाया कि यह एडोल्फ हिटलर से मेल खाता है, जिसने 1930 के दशक में स्टुटगार्ट में एक फुटबॉल स्टेडियम का नाम खुद पर रखने की इजाजत दी, या इसे प्रोत्साहित किया। एक गणराज्य में राजनेताओं को लोकतांत्रिक प्रक्रिया का महत्व समझना चाहिए और खुद को उस पद से बड़ा होने की इजाजत नहीं देनी चाहिए, जो वे संभाल रहे होते हैं। कोई राजा खुद को अपने साम्राज्य के बराबर समझ सकता है, लेकिन लोकतांत्रिक ढंग से चुने गए प्रधानमंत्री या राष्ट्रपति को खुद को देश का पर्याय नहीं समझना चाहिए। यह दुखद है कि दुनिया के सबसे पुराने गणराज्य के नेता कभी इस सबक को याद नहीं रखते। अमेरिकी इतिहासकार आर्थर स्लेसिंजर जूनियर ने अपने देश के उन राजनेताओं के लिए एक शब्द ईजाद किया, ‘इम्पिरीयल प्रेसिडेंसी'(शाही राष्ट्रपति), जिन्होंने लोकतांत्रिक राजनेता के बजाय राजा की तरह शासन किया।

हमारे अपने गणतंत्र के इतिहास में तीन शाही प्रधानमंत्री हुए हैं। ये हैं जवाहरलाल नेहरू, इंदिरा गांधी और नरेंद्र मोदी। इन सभी का कद पार्टी और सरकार में अपने सहयोगियों से काफी ऊपर हो गया। नेहरू और इंदिरा दोनों को पद पर रहते हुए ही देश के सर्वोच्च अलंकरण भारत रत्न से नवाजा गया। क्या मोदी भी आगे ऐसा कर सकते हैं? यह अजीब होने के साथ ही थोड़ा हैरत भरा भी था कि सरदार पटेल क्रिकेट स्टेडियम का नाम नरेंद्र मोदी के नाम पर करने के लिए हुए समारोह के मुख्य अतिथि राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद थे। क्या यह मोदी को 2022 या 2023 में कोविंद द्वारा भारत रत्न से नवाजे जाने की पृष्ठभूमि हो सकती है? मुझे दो कारणों से इसके आसार नहीं दिखते। पहला, मोदी ने सुनियोजित तरीके से अपने पूर्ववर्तियों से दूरी बनाई है और इस मामले में भी वह ऐसा करेंगे। दूसरा, खुद के बारे में उनकी महत्वाकांक्षाएं काफी बड़ी हैं। मोदी कहीं अधिक भव्य चीज कर सकते हैं। वह स्मारकों के वास्तुशिल्प से जुड़ी महंगी कवायद के जरिये भारत की राजधानी को ही नया रूप देंगे।

पाठक याद कर सकते हैं कि मई, 2014 में प्रधानमंत्री के रूप में शपथ ग्रहण करने के बाद नरेंद्र मोदी ने लोकसभा में कहा था कि उनका लक्ष्य बारह सौ साल की गुलामी को बदलना है। तब एक युवा लेखक ने मुझसे कहा था कि उनका यह बयान और कुल मिलाकर उनका पूरा भाषण मोदी की राजनीतिक और व्यक्तिगत महत्वाकांक्षाओं को उजागर करता है। मोदी ने कहा कि हिंदुओं को लंबे समय तक विदेशियों ने गुलाम बनाया या उन पर शासन किया। मेरे मित्र का कहना था कि इस तरह मोदी यह सुझा रहे थे कि वह पहले हिंदू राजा हैं, जिसने सफलतापूर्वक देश को एकजुट किया। अपनी सारी वीरता और उनसे संबंधित लोककथाओं के बावजूद शिवाजी और पृथ्वीराज इस उपमहाद्वीप के थोड़े से हिस्से को अपने नियंत्रण में ले सके थे। क्षेत्रीय या राजनीतिक संदर्भों में वे दूर तक भी (बौद्ध) अशोक या (मुस्लिम) मुगलों या फिर (ईसाई) अंग्रेजों की तरह सफल नहीं हुए। जो काम शिवाजी और पृथ्वीराज करने में नाकाम हो गए उसे पूरा कर आखिरकार प्रधानमंत्री मोदी हिंदुओं को हुए नुकसान की भरपाई करेंगे।

नरेंद्र शाह ने जब गढ़वाल में अपनी नई राजधानी बनाई थी, तब उन्होंने भारत और विदेश के कई राजाओं का ही अनुसरण किया था। वास्तव में नरेंद्रनगर की स्थापना करने के नरेंद्र शाह के फैसले से कुछ वर्ष पूर्व ऐसा ही कदम उठाते हुए इंग्लैंड के किंग जॉर्ज पंचम ने घोषणा की थी कि ब्रिटिश भारत को एक नई राजधानी की जरूरत है। सरकार का संचालन अब कलकत्ता से नहीं होगा। इस तरह दिल्ली के पुराने शहर के दक्षिण में स्थित गांवों से अधिगृहीत भूमि पर, ब्रिटिश साम्राज्यवादियों ने अपने स्वयं के उत्थान की भावना के साथ एक भव्य नए शहर का निर्माण किया। ब्रिटिश साम्राज्य के अपनी राजधानी को स्थानांतरित करने के तीन सदी पहले मुगल साम्राज्य ने भी ऐसा ही किया था। बाबर से शुरू हुए इस वंश के पांचवें शासक शाहजहां ने अपने साम्राज्य की राजधानी को आगरा से दिल्ली स्थानांतरित किया था। उसने अनेक भव्य इमारतों के निर्माण की खुद निगरानी की, जिनमें से कई आज भी खड़ी हैं। जब सब कुछ व्यवस्थित हो गया, तब उसने शहर का नाम खुद पर कर दिया। इसे शाहजहांनाबाद कहा गया।

प्रधानमंत्री के रूप में नरेंद्र मोदी का व्यवहार दंभपूर्ण है, जैसा कि राजनीतिक सहयोगियों और राजनीतिक प्रतिद्वंद्वियों के प्रति उनके व्यवहार, सार्वजनिक रूप से खुद की प्रस्तुति, संसद में बहस के प्रति असम्मान और प्रेस कॉन्फ्रेंस से उनके इन्कार से झलकता है। 21 वीं सदी के बावजूद ‘मन की बात’ कार्यक्रम मुगल फरमान की तरह लगता है। वह उनकी ही तरह राजनीतिक सत्ता के केंद्र के वास्तु को बदलकर खुद को यादगार बनाए रखना चाहते हैं। अहमदाबाद का एक क्रिकेट स्टेडियम या भारत रत्न से यह संभव नहीं होगा। यह विडंबना ही है कि ब्रिटिश और मुगल शासन की तीखी आलोचना के बावजूद नरेंद्र मोदी अपनी यादगार स्थायी विरासत दिल्ली में ब्रिटिश और मुगलों ने जो किया उसके मिश्रण से बनाना चाहते हैं।

हो सकता है वह उम्मीद करें कि तीन या चार सौ साल बाद, हिंदुत्व राष्ट्र की भावी जनता उनके भवनों को गर्व से देखे। लेकिन लगता नहीं कि ऐसा होगा। जिस वास्तुकार को चुना गया है, उसके बारे में और अतीत के उसके निमार्णों के बारे में जो जानते हैं, उन्हें नहीं लगता कि इस नई कवायद से कोई एक भवन भी ऐसा बन पाए, जो दूर से भी लाल किला या जामा मस्जिद, नॉर्थ या साउथ ब्लॉक्स जैसा सुंदर हो। आखिरी बात। नई दिल्ली को नया रूप देने के लिए बनाई गई योजना का नाम ‘सेंट्रल विस्टा प्रोजेक्ट’ है। एक बार नए स्मारकीय इमारतों वाले परिसर के बनने के बाद निश्चित रूप से इस औपनिवेशिक नाम की जगह कोई आत्मनिर्भर नाम आएगा। ‘नरेंद्रनगर’ तो एक शताब्दी पहले ही एक पहाड़ी साम्राज्य के शासक के नाम पर बन चुका है। शायद ‘नरेंद्र महानगर’? या फिर ‘मोदीबाद’?

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