राष्ट्रनायक न्यूज।
दिल्ली एजेंसी।देश की राजनीति में ऐसा वादा जिसको पूरा करते ही महिलाओं के जीवन में क्रांतिकारी परिवर्तन आ सकता है। साथ ही महिला सशक्तिकरण की राह में आने वाली कई रूकावटें स्वयं ही अपना रास्ता बदल सकती हैं। कमल हसन की पार्टी मक्कल नीधि मैयम ने तमिलनाडु में अपने चुनाव प्रचार के दौरान गृहणियों को उनके गृह कार्यो के लिए मासिक वेतन देने की घोषणा की है। भले ही यह केवल एक चुनावी घोषणा मात्र हो लेकिन यदि ऐसा अमल में लाया जाता है तो यह महिलाओं के जीवन की कई धारणाओं को बदलने वाला साबित होगा।
खेतों में खलिहान तैयार करने से लेकर घर में अन्न सहेजने तक, चारा काटने से गोबर के उपले बनाने तक, सुबह से आधी रात तक कामों में खुद को खपा देने के बाद भी अकसर महिलाओं को यह सुनने को मिलता है कि ’’तुमने दिनभर किया ही क्या है?’’ ’’पैसे पेड पर थोडे़ उगते हैं, उन्हें कमाना पडता है’’ वगैरह-वगैरह! कामकाजी होना घर और दफतर के बीच कब सीमाएं बांध लेता है पता ही न चलता।
हमारी दादी-नानी और मांओं से यही प्रश्न बार-बार टकराता रहा और शायद अब भी अधिकांश महिलाओं को इस प्रश्न का उत्तर नहीं मिल पाया होगा। बचपन से ही महिलाओं को घर की जिम्मेदारी से ऐसे बांध दिया जाता है मानो यह प्राकृतिक रूप से गृहणियों की ही जिम्मेदारी है, जिसे उन्हें कुशलता से पूर्ण भी करना है और उसे मेहनत में शुमार भी नहीं करना। यदि इस प्रकार के बदलाव लाए जाते हैं तो नि:संदेह यह एक क्रांतिकारी पहल होगी। जिससे महिलाओं को न केवल आर्थिक मजबूती प्राप्त होगी अपितु सामाजिक सम्मान के रूप में स्वयं का बराबरी का प्रतिनिधित्व भी पूर्ण कर सकेंगी।
इंटरनेशनल लेबर आॅर्गनाइजेशन की 2018 की एक रिपोर्ट के मुताबिक दुनियाभर में महिलाओं की कुल आबादी पुरूषों की तुलना में लगभग तीन गुना से भी अधिक है, जो बिना किसी वेतन कार्य करने के घण्टों में लगभग 76.2 प्रतिशत की हिस्सेदारी दर्ज कराती है। यघपि एशिया और प्रशांत क्षेत्र में यह आंकडा लगभग 80 प्रतिशत तक पहुंचता नजर आता है। ऐसा नहीं है कि महिलाओं ने इस विषय पर पहले कभी अपनी आवाज नहीं उठाई। वैश्विक स्तर पर ऐसे कई प्रयास किए गए हैं- वर्ष 1972 में इटली में इटरनेशनल वेजेस फॉर हाउसवर्क कैंपेन को एक नारीवादी आंदोलन के तौर पर शुरू किया गया। जिसके माध्यम से परिवार में लैंगिक श्रम की भूमिका और पूंजीवाद के तहत अधिशेष मूल्य के उत्पादन से इसके संबंध को उजागर किया तत्पश्चात् यह आन्दोलन आगे जाकर ब्रिटेन और अमेरिका जैसे देशों में भी फैला।
समय-समय पर कई अन्य मांगों के साथ-साथ सामाजिक और राजनीतिक समानता के लिए महिला अधिकारों के हिमायती संगठनों के द्वारा घरेलू महिलाओं के कार्यों पर चचार्एं की जाती रही हैं। भारत के परिपेक्ष में देखें तो वर्ष 2010 में नेशनल हाउसवाइव्स एसोसिएशन द्वारा मान्यता प्राप्त करने हेतु ट्रेड यूनियन के डिप्टी रजिस्ट्रार द्वारा यह कहते हुए खारिज कर दिया था कि गृहकार्य व्यापार या उद्योग की श्रेणी में नहीं आता। हालांकि मौजूदा प्रश्न यह भी है कि यदि ऐसा नहीं हो सकता तो महिला और पुरूषों को समान अधिकार समान दायित्वों का निर्वहन करना कब तय किया जाएगा?
हालांकि वर्ष 2012 में तत्कालीन महिला एवं बाल विकास मंत्री ने घोषणा की कि सरकार पतियों द्वारा पत्नियों को गृहकार्य हेतु आवश्यक वेतन दिए जाने पर विचार कर रही है। हालांकि अब तक इसे अमली जामा नहीं पहनाया जा सका। वर्तमान सरकार ने भी कई क्रांतिकारी बदलाव किए हैं, कई कानूनों के माध्यम से महिलाओं के अधिकारों का पक्ष लिया है। लेकिन कई परंपराएं अभी भी तोडनी बाकी हैं, जिनपर सरकार को विशेष ध्यान देने की आवश्यकता है।महिलाओं के घरेलू श्रम को उत्पादन में सम्मिलित नहीं किया जाता जिसके कारण अर्थव्यवस्था की जीडीपी को कम करके आका जाता है। यदि सरकार महिलाओं के घरेलू श्रम के एवज में भुगतान करती है तो न केवल महिला सशक्तिकरण के एजेंडे को मजबूती मिलेगी अपितु महिलाओं के द्वारा किए जा रहे सदियों से महत्वपूर्ण कार्यो को श्रम समझा जाएगा न की केवल जिम्मेदारी मात्र। वर्ष 2011 की जनगणना के अनुसार घरेलू कार्यो में लगे व्यक्तियों को गैर श्रमिक माना जाता है। हालांकि आंकडे बतलाते हैं कि 159.9 मिलियन महिलाओं का मानना है कि उनका मुख्य कार्य ’घरेलू काम’ ही है। यही उनका सदियों से मुख्य व्यवसाय था।
भारत में अभी भी महिलाओं को आर्थिक क्षेत्र में समान अवसर प्राप्त करने के लिए काफी संघर्ष करना पड़ रहा है। अंतर्राष्ट्रीय श्रम संगठन की माने तो वर्ष 2019 में कोरोना महामारी से पहले महिलाओं की श्रम बल में भागीदारी 23.5 प्रतिशत थी। जो चिंता का विषय होना चाहिए। कई अनुमानों के अनुसार भारत में अगस्त 2019 की तुलना में अगस्त 2020 में पुरुषों की तुलना में महिलाओं को रोजगार मिलने की संभावना लगभग 9.5 प्रतिशत कम रही। विश्व आर्थिक मंच के वैश्विक लैंगिक अंतराल रिपोर्ट-2020, जो की महिलाओं की आर्थिक भागीदारी में दर्ज अंतराल को मापता है, के मुताबिक 153 देशों के आंकड़ों के आधार पर भारत 112 वें स्थान पर पहुंच गया, क्योंकि लगभग 70 लाख महिलाएं अपनी नौकरी गवां चुकी हैं। ऐसे में कोरोना संकट और गिरती अर्थव्यवस्था से उबरने के लिए हमें अपने प्रयास और तेज करने होंगे। मैकंजी ग्लोबल इंस्टीट्यूट की एक रिपोर्ट के मुताबिक यदि भारतीय अर्थव्यवस्था में महिलाएं पुरुषों के स्तर पर समान रूप से भाग लेती हैं तो यह वर्ष 2025 तक देश की जीडीपी में 60 प्रतिशत तक वृद्धि कर सकता है।
इस लिहाज से तो सरकार और समाज को मिलकर समाज में लैंगिक समानता सुनिश्चित करने के प्रयास और तेज कर देने चाहिए। तभी भारत दुनिया की तेज रफतार अर्थव्यवस्था वाले देशों से मुकाबला कर सकेगा। उनमें हमारी उन महिलाओं का भी अहम रोल होगा जो अपना सारा जीवन बस यह सोचकर घरेलू कार्यो में खपा देती हैं की यह उनकी जिम्मेदारी है। जबकि उनके श्रम का तो कोई मूल्य भी उन्हें नहीं मिलता। वो सदियों से बिना शिकायत अपने फर्ज को अंजाम दे रही हैं।


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