राष्ट्रनायक न्यूज

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जब भगवान श्रीराम ने पीड़ा से मुक्ति दिलाई तो सुग्रीव ने क्या कहा

दिल्ली, एजेंसी। सुग्रीव निश्चित ही भयक्रांत स्थिति में था। होता भी क्यों नहीं? यह तो शुक्र है कि टांगें परीक्षा में खरी उतरीं। ऐसा भागा कि बालि भी देखता ही रह गया होगा। लेकिन भगवान न करें, अगर मैं भागने में असफल हो गया होता तो? हो जाती न आज ही शमशान की यात्रा। और प्रभु ने भी अच्छी लीला कर दी। कह रहे थे कि तुम आगे बढ़ो। सुग्रीव हम तुम्हारे पीछे हैं। भई पीछे हैं तो ठीक है लेकिन आगे भी तो आना चाहिए था। लात-घूंसे खाने के लिए मुझे सामने कर दिया और स्वयं है कि पेड़ की आड़ ही नहीं छोड़ रहे थे। और भला यह क्या तर्क हुआ कि हम दोनों भाइयों का रूप एक-सा था। माना कि प्रथम दृष्टि में मैंने नहीं पहचाना था। लेकिन न पहचानने की व्याधि आपको भी है। यह तो हमें पता ही नहीं था। जब हमने आपको नहीं पहचाना था तो तब किसी की हानि तो नहीं हुई थी। लेकिन आपने हमें पहचानने में भूल क्या की, कि हमारे तो प्राणों पर ही बन आई। यह तो भला हो कि हम भाग लिए। नहीं तो भविष्य में आपकी किसी भी लीला में भाग लेने का अवसर ही छिन गया होता।

आप तो कल्पना भी नहीं कर सकते कि बालि का घूंसा कितना पीड़ादायक है। विश्वास कीजिए बस जिंदा भर हूँ, वरना मुझमें और मुर्दे में कोई ज्यादा अंतर नहीं है। कम्बख्त के मन में मेरे प्रति रत्ती भर भी दया या स्नेह नहीं है। पापी मुझ पर ऐसे झपटा जैसे सिंह किसी निरीह हिरण पर झपटता है। कुछ भी हो प्रभु आपने पहले बता दिया होता कि आपकी दृष्टि जरा कमजोर है तो मैं ऐसा दिल दहलाने वाला कृत्य कभी करता ही ना।

भगवान श्रीराम जी ने कह तो दिया था कि मुझे तुम दोनों के रूप एक-से दिखे। लेकिन प्रभु के इन वाक्यों से सुग्रीव को संतुष्टि थोड़ी न हुई। वह तो सदमे और पीड़ा से बाहर ही नहीं आ पा रहा था। श्रीराम जी लेकिन अवश्य संतुष्ट थे कि हमें भले ही दोनों के रूप एक-से प्रतीत हुए, हम उन्हें नहीं पहचान पाए। लेकिन सुग्रीव तो कम से कम बालि का असली स्वरूप हो गया। बालि का लात-घूंसा पड़ा लेकिन ऐसे प्रहारों से सुग्रीव के सिर पर चढ़ा बे-सिर पैर का वैराग्य भी तो छू-मंत्र हो गया। बाकी रही बात इसकी शारीरिक पीड़ा की तो वह हम अभी हरे देते हैं। और श्रीराम जी ने जैसे ही सुग्रीव को अपने दिव्य हस्तकमलों से स्पर्श किया तो सुग्रीव की पीड़ा तत्क्षण ही दूर हो गई। अचानक हुए इस चमत्कारिक घटनाक्रम से सुग्रीव अचंभित-सा रह गया। क्योंकि एक बार के लिए काल का मारा तो फिर भी बच सकता है लेकिन बालि का मारा नहीं। बालि का मारा भी यदि कभी बच जाए तो वह उम्र भर के लिए खाट से नहीं उठ पाएगा। और पीड़ा उसका कभी भी साथ नहीं छोड़ेगी। लेकिन विश्व का यह निश्चित ही प्रथम प्रसंग है कि मैं बालि से भिड़ने के पश्चात् भी जीवित हूँ। और वह भी खाट पे नहीं अपितु सही सलामत निरोगी खड़ा हूँ। पीड़ा का भी प्रभु ने क्षण भर में हरण कर लिया। वाह, वाह क्या सुंदर अनुभव है।

सुग्रीव के साथ प्रभु की यह सुंदर लीला क्या घटित हुई, सुग्रीव का अंतस फिर से उनके प्रति श्रद्धा से भरने लगा। सोचा कि शायद प्रभु को भी अब यह भान हो गया होगा कि बालि को मारने की हमने नाहक ही हठ पाल ली थी। अब निश्चित ही हमें भी बालि वध की प्रतिज्ञा से मुँह फेर लेना चाहिए। प्रभु को मैं विनती कर देता हूँ कि प्रभु छोड़ो बालि का राज। हम तो अपने ऋषयमूक पर्वत पर ही भले हैं। बालि से भिड़ने में और कुछ न सही, कम से कम चलो यह तो सदा का सुकून रहेगा कि हमने भी बालि को कभी उसके दरवाजे पर जाकर ललकारा था। माना कि हम उसे हरा नहीं पाए। पर वह हमें मार दे यह भी तो नहीं हो पाया। खैर छोड़ो! जितनी बीती अच्छी बीती अब आगे अच्छी बीते। तो इसलिए हमारी ऋषयमूक पर्वत की ओर रवानगी करनी ही हितकारी होगी।

सुग्रीव ठीक क्या हुआ बस उसका दिमाग दौड़ने लगा। ‘जान बची और लाखों पाये’, की उक्ति को चरितार्थ करने लगा। उसने स्वयं से समझौता कर लिया कि चलो कोई नहीं, आवश्यक तो नहीं कि संसार में सबको सब कुछ ही मिल जाए। हमारे प्रभु श्रीराम जी को ही ले लीजिए। अवध का राज्य मिलते-मिलते वनों की भटकना भाग्य में आ गिरी। संसार में आखिर कौन मुकम्मल जहां पा सका-

कभी भी किसी को मुकम्मल जहां नहीं मिलता।
किसी को धरती तो किसी को आसमां नहीं मिलता।

सुग्रीव की पीड़ा क्या दूर हुई। उसे सुख की सेज अपनी ओर खींचने लगी। लेकिन उसे क्या पता था कि बालि वध के अध्याय का यह तो प्रथम पन्ना था। जिसमें उसको साक्षात् मृत्यु के दर्शन करने पड़ गये। इस अध्याय का दूसरा पन्ना खुलना तो अभी बाकी था। सुग्रीव को क्या पता था कि भगवान से सिर भिड़ाकर कोई ऐसे ही थोड़ी छूट सकता है। सुग्रीव ने श्रीराम जी की बांह पकड़ी होती तो माना जा सकता था कि वह कभी भी श्रीराम जी की बांह छोड़कर जा सकता था। लेकिन यहाँ तो श्रीराम जी स्वयं पर्वत की चोटी पर जाते हैं और सुग्रीव का हाथ अपने हाथों में लेते हैं। स्पष्ट था कि सुग्रीव ने श्रीराम जी को नहीं अपितु श्रीराम जी ने सुग्रीव को पकड़ा था। यह कौन नहीं जानता कि श्रीराम जी जिसको पकड़ लेते हैं वे उसे कभी छोड़ते ही नहीं। फिर भले ही वह छटपटाये अथवा गिड़गिड़ाये।

सुग्रीव तो सोचे ही बैठा था कि बालि वाला किस्सा अब बीच में छोड़कर हम सबको वापिस लौटना ही है। लेकिन तभी श्रीराम जी के श्रीमुख से एक ऐसा वाक्य निकलता है कि सुग्रीव फिर से सन्न-सा रह जाता है। पहले तो उसे लगा कि नहीं-नहीं शायद मैंने ही गलत सुन लिया। भला अब फिर से श्रीराम जी ऐसा कैसे कह सकते हैं। बिलकुल मेरे ही सुनने में कोई त्रुटि हुई है। लेकिन दिल के एक कोने में स्पष्ट आवाज आ रही है कि हे सुग्रीव! श्रीराम जी बिलकुल यही कह रहे हैं। तुम्हें कहीं कोई भ्रम नहीं हुआ। और यह भ्रम, भ्रम वाला खेल बहुत हुआ। तनिक वास्तविक्ता की ओर भी बढ़ो। जो श्रीराम जी ने अभी कहा है, वह कहीं से भी मिथ्या व कल्पना नहीं है। भीतर की इस गूंज ने सुग्रीव के माथे पर फिर से पसीने ला दिये। पल भर पहले बनाई समस्त योजना यूं बिखर गई मानो बच्चे द्वारा बनाये रेत के घरौंदे पर किसी ने पैर दे मारा हो। सुग्रीव अवाक था, मुख खुले का खुला था। और श्रीराम जी की तरफ बड़ी हाय-सी दृष्टि लेकर देखे जा रहा था। श्रीराम जी ने ऐसा क्या कहा कि सुग्रीव सहम गया। जानने के लिए आगामी अंक अवश्य पढ़िएगा…क्रमश:…जय श्रीराम जी
सुखी भारती