राष्ट्रनायक न्यूज

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सुप्रीम कोर्ट की सख्ती के बाद अब महिलाओं को सेना में मिल पायेगा पूरा हक

राष्ट्रनायक न्यूज। हमारी सेनाओं में भी महिलाओं के साथ भेदभाव, दोयम दर्जा एवं बेचारगी वाला नजरिया दुर्भाग्यपूर्ण एवं असंगत है। सुप्रीम कोर्ट ने फरवरी 2020 में दिए अपने फैसले के बावजूद सेना में कई महिला अधिकारियों को फिटनेस, अन्य योग्यताओं और शर्तों को पूरा करने के बावजूद स्थायी कमीशन नहीं दिए जाने को गलत, भेदभावपूर्ण एवं रूढ़िवादी बताते हुए जो टिप्पणी की है, वह न केवल सुखद और प्रेरक बल्कि प्रशंसनीय भी है। ऐसा प्रतीत होता है कि सेना में महिलाओं को लेकर सरकार की कथनी और करनी में अंतर है। तमाम महिला भेदभाव को दूर करने की घोषणाएं कोरा दिखावा है, सरकार भी पुरुष मन से ग्रस्त है। तभी कोर्ट को सख्त रवैया अपनाना पड़ा है।

खास बात है कि बीते साल फरवरी में सुप्रीम कोर्ट ने सेना में महिला अधिकारियों को पुरुषों के बराबर कमांड पदों के लिए पात्र होने की अनुमति दी थी। उस समय भी कोर्ट ने सरकार के तर्कों को ‘भेदभावपूर्ण’, परेशान करने वाले और रूढ़िवाद पर आधारित बताया था। अदालत ने यह भी कहा था कि महिलाओं के लिए सेवाकाल की परवाह के बगैर सभी महिलाओं के लिए स्थायी कमीशन उपलब्ध होगा। याचिका पर सुनवाई के दौरान अदालत ने महिलाओं के लिए अनिवार्य मेडिकल फिटनेस को ‘मनमाना’ और ‘तर्कहीन’ बताया है। अदालत ने कहा कि सेना की एनुअल कॉन्फिडेंशियल रिपोर्ट यानि एसीआर आकलन और मेडिकल फिटनेस मापदंडों का देर से लागू होना महिला अधिकारियों के लिए भेदभावपूर्ण है। कोर्ट पहले भी महिलाओं को स्थायी कमीशन देने की बात कह चुका है। इस बार अदालत ने आकलन प्रक्रिया को महिला अधिकारियों को परेशान करने वाला बताया है। बेंच ने कहा- ‘आकलन के तरीके की वजह से एसएससी यानि शॉर्ट सर्विस कमीशन महिला अधिकारियों को आर्थिक और मानसिक रूप से नुकसान पहुंचाता है। इन स्थितियों की सर्जक सरकार एवं उनकी भेदभावपूर्ण नीतियां हैं, सरकार की दोयम दर्जे की मानसिकता है, दोहरे मूल्यमानक हैं। इन्हीं कारणों से सर्वोच्च न्यायालय ने गुरुवार को महिलाओं के स्थाई कमीशन पर सेना के मानकों को बेतुका और मनमाना बताया है। वैसे तो दिल्ली उच्च न्यायालय ने लगभग ग्यारह साल पहले ही सेना में महिलाओं को स्थाई कमीशन देने का फैसला सुना दिया था, लेकिन हकीकत यही है कि वह फैसला अभी भी पूरी तरह लागू नहीं हुआ है। इस दिशा में साल 2019 में काम चालू हुआ, लेकिन साल 2020 में सुप्रीम कोर्ट को फिर एक बार व्यवस्था देनी पड़ी कि सेना में महिलाओं के साथ किसी तरह का भेदभाव न किया जाए।

अदालत के स्पष्ट आदेशों के बावजूद सेना में महिलाओं के साथ भेदभाव, उपेक्षा एवं मनमाना व्यवहार होना जारी रहा है, जिसके कारण महिलाओं को अपने हक के लिए सुप्रीम कोर्ट का दरवाजा खटखटाना पड़ा और अब सुप्रीम कोर्ट ने सेना, सरकार व समाज के नजरिए पर जो टिप्पणी की है, वह मील के पत्थर की तरह है। इससे महिलाओं में आत्मविश्वास को नया परिवेश मिलेगा, उनके अस्तित्व बोध पर मंडराते बाधक बादलों को छांटने का अवसर मिलेगा। अदालत ने तल्खी के साथ कहा है कि भारतीय समाज का ढांचा ऐसा है, जो पुरुषों द्वारा और पुरुषों के लिए बना है। आज के समय में भी अगर यह बात सुप्रीम कोर्ट के स्तर पर समझाने की जरूरत पड़ रही है, तो यह त्रासद है, एक बड़ी विडम्बना है। सरकार की सबका साथ-सबका विकास-सबका विश्वास की घोषणा को खोखला करती है। वाकई, महिलाओं को उनके पूरे हक मिलने चाहिए, पुरुषों को कोई हक नहीं कि वे फैसले महिलाओं पर थोपें। इसके साथ ही कोर्ट ने सेना को दो महीने के भीतर 650 महिलाओं की अर्जी पर पुनर्विचार करते हुए स्थाई कमीशन देने के लिए कहा है। महिला समानता की प्रकाश-किरणों के आगे खड़ी इन नारी भेदभाव की त्रासदी की दीवारों को तोड़ना बहुत आवश्यक है, जिसके लिये कोर्ट ने अपनी सक्रियता एवं जागरूकता दिखाकर एक नया इतिहास रचा है।
सुप्रीम कोर्ट ने पाया कि सेना में शॉर्ट सर्विस कमीशन में तैनात महिलाओं की क्षमता के आकलन का जो तरीका है, वह मनमाना और बेतुका है। यह तरीका सही होता तो महिला अधिकारियों को सुप्रीम कोर्ट में अर्जी लगाने की जरूरत नहीं पड़ती। कोर्ट ने अपने 137 पृष्ठों के फैसले में यह भी कहा है कि कुछ ऐसी चीजें हैं, जो कभी नुकसानदायक नहीं लगती हैं, लेकिन जिनमें पितृ-सत्तात्मक व्यवस्था के कपट के संकेत मिलते हैं।’ महिलाओं के पक्ष में सुप्रीम कोर्ट का ऐसे खड़ा होना ऐतिहासिक है, क्योंकि एकाधिक फैसलों में हमने कुछ जजों को पितृ-सत्तात्मक होते देखा है।

बहरहाल, गुरुवार को शीर्ष अदालत जिस तरह स्त्रियों के पक्ष में खड़ी दिखी, उससे निश्चित ही महिलाओं को आगे के संघर्ष के लिए बुनियादी मनोबल हासिल होगा। यह नारी की मूल्यवत्ता एवं गुणात्मकता पर स्पष्ट स्वीकृति है। महिला वह धुरी है, जिसके आधार पर न केवल परिवार, समाज बल्कि सेना की गाड़ी सम्यक् प्रकार से चल सकती है। भविष्य में यही नारी सेना की मजबूत धुरी बनेगी, इसमें किसी तरह का संदेह नहीं है। लेकिन इसके लिये सेना को आने वाले दिनों में अपने मानदंड सुधारने पड़ेंगे। यह धारणा पुरानी है कि महिलाओं का सेना में क्या काम? जब महिलाएं हर मोर्चे पर तैनाती के लिए तैयार हैं, तब उन्हें कौन किस आधार पर रोक सकेगा? जो योग्य महिलाएं हैं, जिनकी सेना में बने रहने की दिली तमन्ना है, उन्हें दस या बीस साल की नौकरी के बाद खोना नहीं चाहिए। उन्हें अफसर बनाकर उनके अनुभव का पूरा लाभ लेना चाहिए और पुरुषों के लिए तय उम्र में ही रिटायर करना चाहिए। उनको आगे बढ़ने से रोकने के लिए अलग मानदंड बनाना और तरह-तरह के बहानों से उनको कमांड या जिम्मेदारी देने की राह में बाधा बनना पुरुषवाद तो है ही, संविधान की अवहेलना भी है।

जस्टिस डीवाई चंद्रचूड़ ने कहा, ‘कई महिला अधिकारियों ने कोर्ट के सामने कई अवॉर्ड जीते थे। कइयों ने विदेश के एसाइमेंट्स पर शानदार काम किया है।’ साथ ही उन्होंने महिलाओं के चयन को लेकर गठित किए जाने वाले बोर्ड पर भी सवाल उठाए हैं। महिलाओं के पक्ष में फैसला सुनाते हुए अदालत ने चयन प्रक्रिया पर भी सवाल उठाए हैं। अदालत ने कहा, ‘हमें पता लगा है कि जिन्होंने स्पोर्ट्स में शानदार प्रदर्शन किया, उन्हें भी नजरअंदाज किया गया।’ खास बात है कि फैसले में अदालत ने महिलाओं की उपलब्धियों से जुड़ी एक बड़ी सूची भी शामिल की है। अदालत ने कहा, ‘ऐसा लगता है कि बोर्ड सेलेक्शन की बजाए रिजेक्शन के लिए बैठता है।’

बेशक, हर महिला मोर्चे पर नहीं जाएगी, लेकिन जो महिला जाना चाहेगी, उसे जाने देना ही सही न्याय है, समय की मांग है। बदले समय के साथ अब सेना की मानसिकता में बदलाव जरूरी है। हमारी सेना में महिलाओं की यथोचित भागीदारी उसे ज्यादा शालीन, सामाजिक, योग्य और कारगर ही बनाएगी। युगों से आत्मविस्मृत महिलाओं को अपनी अस्मिता और कर्तृत्वशक्ति का तो अहसास हुआ ही है, साथ ही उसकी व्यक्तित्व एवं कर्तृत्व चेतना में क्रांति का ऐसा ज्वालामुखी फूटा है, जिससे भेदभाव, असमानता, रूढ़संस्कार, उन्हें कमतर समझने की मानसिकता पर प्रहार हुआ है। पुरुषवर्ग महिलाओं को देह रूप में स्वीकार करता है, किन्तु आधुनिक महिलाओं ने अपनी विविध आयामी प्रतिभा एवं कौशल के बल पर उनके सामने मस्तिष्क एवं शक्ति बनकर अपनी क्षमताओं का परिचय दिया है, वही अपने प्रति होने वाले भेदभाव का जवाब सरकार, समाज एवं पुरुषों को देने में सक्षम है, कोर्ट यदि उनकी सक्षमता को पंख दे रही है तो यह जागरूक एवं समानतामूलक समाज की संरचना का अभ्युदय है।
ललित गर्ग