राष्ट्रनायक न्यूज

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बार-बार लहूलुहान करता लाल आतंक

दिल्ली, एजेंसी। छत्तीसगढ़ के 28 जिलों में से 14 जिले नक्सल प्रभावित हैं। पिछले तीन दशक से यहां नक्सलवाद ने अपनी जड़ें जमा रखी हैं। पुलिस और सुरक्षा बल नक्सलियों के खिलाफ साझा रणनीति बनाकर अभियान चलाए हुए हैं लेकिन नक्सली हिंसक वारदातें करने से बाज नहीं आ रहे हैं। शनिवार को नक्सल प्रभावित बीजापुर और सुकमा जिले के समीपवर्ती क्षेत्र में सुरक्षा बलों और नक्सलियों के बीच मुठभेड़ के दौरान 22 जवान शहीद हो गए। सुरक्षा बलों ने भी मुंह तोड़ जवाब देते हुए 15 नक्सलियों को मार गिराया। इससे पहले नक्सलियों ने नारायणपुर जिला में बारूदी सुरंग बिछाकर बस को उड़ा दिया था। इस घटना में बस में सवार डीआरजी के 5 जवान शहीद हो गए थे। नक्सलियों की रणनीति यही है कि जब सुरक्षा बल अभियान चलाते हैं तो नक्सली कैडर भूमिगत हो जाता है या दूसरे राज्यों में जाकर बिखर जाते हैं। इस दौरान वह अपनी ताकत को बढ़ाते हैं, जब वे महसूस करते हैं कि अब वे हमला करने में सक्षम हैं तो वारदात कर देते हैं। यह सवाल एक बार फिर हमारे सामने है कि आखिर हमारे जवान कब तक शहीद होते रहेंगे। नक्सलियों पर यह प्रश्न भी विचारणीय है कि नक्सलवाद मूल रूप से कानूनी समस्या है या विषमता से उत्पन्न लावा है।विचारको का एक वर्ग जहां नक्सलवाद को आतंकवाद जैसी गतिविधियों से जोड़कर इस देश की आंतरिक सुरक्षा के लिए सबसे बड़ी चुनौती मानता है तो दूसरा वर्ग इसे समाजिक, आर्थिक और राजनीतिक विषमताओं एवं दमन-शोषण की पीड़ा से उपजा एक विद्रोह समझ कर इसका पक्षपोषण करता है। भारत में नक्सली हिंसा की शुरूआत वर्ष 1967 में पश्चिम बंगाल में दार्जिलिंग जिले के नक्सलबाड़ी नामक गांव से हुई और इसलिए इस उग्रपंथी आंदोलन को नक्सलवाद का नाम दे दिया गया। जमींदारों द्वारा छोटे किसानों और आदिवासियो के शोषण और उत्पीड़न पर अंकुश लगाने के लिए सत्ता के खिलाफ चारू मजूमदार, कानू सान्याल और कन्हाई चैटर्जी द्वारा शुरू किया गया सशस्त्र आंदोलन चीन के कम्युनिस्ट नेता माओ त्से तुंग की नीतियों से प्रभावित था। आंदोलनकारियों का मानना था कि भारतीय मजदूरों और किसानों की दुर्दशा के लिए सरकारी नीतियां जिम्मेदार हैं। नक्सलवादी ताकतों का मकसद संविधान और लोकतंत्र को जड़ से उखाड़ कर उसके बदले माओ के सिद्धांत पर चलने वाली व्यवस्था स्थापित करना था। संविधान खत्म कर लोकतंत्र की हत्या करने पर उतारू हिंसक नक्सलियों का समर्थन क्या कोई समाज कर सकता है। सभ्य समाज में हिंसा का कोई स्थान नहीं है, बड़े ही त्याग-बलिदान के बाद में आजादी संविधान और लोकतंत्र मिला है। नक्सलवादियों या माओवादियों का इतिहास उठा कर देख लीजिए, वे कभी लोकतंत्र, संविधान की हिमायती नहीं रहे, सिर्फ क्रांति के नाम पर लोगों को बरगला कर उन्होंने भीषण रक्तपात किया है।

सवाल यह भी है कि नक्सलवाद की चुनौती को जड़ से मिटाने में हमारी सरकारें सफल क्यों नहीं हो रहीं इसका दूसरा पहलू यह भी है कि नक्सलवाद परिस्थिति के कारणपैदा हुई समस्या है और इसकी पृष्ठभूमि सामाजिक सरोकार से जुड़ी हुई है। नक्सलवाद अन्याय और गैर बराबरी के कारण पनपा। देशमें फैली सामाजिक और आर्थिक विषमता का एक नतीजा है यह आंदोलन। आजादी के बाद आदिवासियों से जल, जंगल और जमीनें छीन ली गईं। उनके जीवनयापन के प्राकृतिक संसाधन तक छीन लिए गए। कुपोषण और भुखमरी के पीड़ित आदिवासी और दूसरा कमजोर वर्ग इससे जुड़ता ही चला गया। इसमें कोई संदेह नहीं कि नक्सल प्रभावित राज्यों की संयुक्त रणनीति के चलते नक्सलियों के विरुद्ध समय-समय पर आप्रेशन भी चलाए गए। नक्सलवादियों की कमर तोड़ दी गई है। कई बड़े नक्सली आत्मसमर्पण कर राष्ट्र की मुख्य धारा से जुड़ चुके हैं। नक्सल प्रभावित जिलों की संख्या काफी घट गई है। अनेक जिलों को नक्सल मुक्त घोषित किया जा चुका है, लेकिन छत्तीसगढ़ के सुकमा, बीजापुर ऐसे इलाके हैं जहां नक्सल समस्या खत्म होने का नाम नहीं ले रही। सुरक्षा एजैंसियां नक्सल समस्या के पीछे भौगोलिक कारण बताती हैं। बीजापुर इलाके में वर्ष 1980 में नक्सल समस्या के कदम पड़े और वहीं से इस राज्य में लाल आतंक शुरू हुआ।

इसमें कोई संदेह नहीं कि नक्सली अब पूरी तरह से भटक चुके हैं, उन्होंने आतंकवादियों की राह अपना ली है। राज्य सरकार ने नक्सल प्रभावित क्षेत्रों में सड़कें बनाईं, बुनियादी ढांचे का निर्माणकिया और संचार साधनों के विकास के लिए उदारतापूर्वक सहायता उपलब्ध कराई, जिसके परिणामस्वरूप सकारात्मक परिणाम सामने आए। छत्तीसगढ़ के मुख्यमंत्री भूपेश बघेल नक्सलवाद कोखत्म करने के लिए काफी प्रयास कर रहे हैं। मुख्यमंत्री भूपेश बघेल ने केन्द्र को कुछ सुझाव भी दिए थे। उनका मानना है कि नक्सलवाद की समस्या से निपटने के लिए यह जरूरी है कि वर्तमान में जारी रणनीति के साथ प्रभावित क्षेत्रों में बड़ी संख्या में रोजगार के अवसरों का सृजन किया जाए ताकि बेरोजगार लोग विवश होकर नक्सली समूहों में शामिल नहीं हों। जहां एक ओर सुरक्षा बलों को ऐसी रणनीति से काम करने की जरूरत है ताकि जवानों का खून न बहे तो दूसरी ओर उन्हें राष्ट्र की मुख्यधारा से जोड़ने का काम भी किया जाना चाहिए। नक्सलवाद कोई क्रांति नहीं बल्कि आतंकवाद का ही प्रारूप है। नक्सलियों को हम अपने ही भ्रमित बंधु मानते रहे, नतीजन आज भी 8 राज्य नक्सलवाद से बेहद जख्मी और लहूलुहान हैं।

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