राष्ट्रनायक न्यूज। सदियों से इस देश में माटी के पात्र, हमारे प्रियपात्र रहे हैं। गर्मियां आते ही वे कुछ और प्रिय हो उठते हैं। सुराही और घड़े की याद आती है। चिड़ियों के लिए पानी रखने वाले बर्तन की याद आती है। कुल्हड़ में ठंडाई मिल जाए तो कितना अच्छा हो-ऐसी बातें भी ध्यान में आती रहती हैं। गनीमत है कि अभी भी शहरों-महानगरों में किसी कोने-किनारे में, किसी गली-गलियारे में, माटी के पात्र बिकते हुए दिख जाते हैं। कभी-कभी उनकी बहुत ढूंढ़ मचती है, और उन्हें लेने के लिए दूर भी जाना पड़ सकता है।
गर्मियों में ही वे हमें, हमारी छोटी-बड़ी यात्राओं में दिखते हैं। किसी पेड़ की छाया में, किसी चारपाई के पास, रखा हुआ घड़ा दिख जाता है। किसी मुंडेर पर, चारदीवारी पर, चिड़ियों के लिए माटी के बर्तन में पानी रखा हुआ मिल जाता है-और वह दृश्य भी तो कितना प्रीतिकर होता है, जब उसमें कोई चिड़िया भी चौंच डुबाए, नहाती हुई मिल जाती है। हमारी अपनी बाल्कनी में ही, जहां हम चिड़ियों के लिए पानी रखते हैं-कबूतरों की भीड़ बढ़ जाती है। वे उड़कर बार-बार आते हैं।
मुझे गर्मियों में ही विशेष रूप से, माटी के उन खिलौनों की याद आती है, जो हमने बचपन में देखे हैं, और उनके साथ खेलते भी रहे हैं। इनमें सबसे अधिक स्मृति में उभरती है-मिट्टी की गाड़ी। वही मिट्टी की गाड़ी जो शूद्रक के नाटक ‘मिट्टी की गाड़ी’में है, और जिसका आधुनिक काल में एक न भूलने वाला मंचन हमने देखा है-एकाधिक बार-हबीब तनवीर के निर्देशन में। बहुत सराहा है उसे। इतनी कम मंच सज्जा में, इतनी सादगी से, पर कितनी गहराई से, इसे मंचित किया था उन्होंने।
माटी के खिलौनों के साथ ही उन बड़े-बड़े हाथियों की भी याद आती है जो आज भी सजाए जाने के लिए बिकते हैं। हाथी ही क्यों, घोड़े भी। तमिलनाडु में बहुत बड़े आकारों में बनने वाले जिन्हें मणि कौल की अत्यंत सुंदर फिल्म माटी मानस में देखा था। और जिनकी याद अभी अप्रतिम कलाकार और लोक अध्येता हकु शाह के न रहने पर फिर आई थी। कहते हैं, हकु भाई, दक्षिण की अपनी यात्रा से दो बहुत बड़े-बड़े घोड़े भी लाए थे, जो अभी भी अहमदाबाद में एनआईडी—‘नेशनल इंस्टीट्यूट आॅफ डिजाइन’के परिसर में रखे हैं। एक बार हकु भाई के घर जाने पर, कुछ बड़े घड़े-मटके भी देखे थे। हां, वे लोक से बहुत कुछ इकठ्ठा जो करते रहे थे।
सही है कि गर्मियों में माटी के पात्रों की सुध आती है पर वे तो हर ऋतु में अपनी जरूरत का, एहसास हमें कराते रहे हैं। तीज-त्योहारों में ‘घट’की, कलश की, उसके सुसज्जित रूप की, सुध भला हमें कब नहीं आई। और दीवाली के आसपास उन दीपमालाओं की भी तो सुधि आती ही है, जिनके बिना एक समय न तो दीवाली सजती थी, और न पूरी हुई मानी जाती थी।
यह उस समय की बात है, जब बिजली के रंगीन लट्टू नहीं थे, जिन्होंने माटी की दीपमालाओं को अब दूर तक अपदस्त कर दिया है। समय के साथ चीजें बदलती हैं यह सही है। फ्रिज के आने से पहले भला किस घर में नहीं होती थीं सुराहियां, नहीं होते थे घड़े। जो भी हो, लगता यही है कि माटी के पात्रों को न तो हम विस्मृत कर पाएंगे, न ही करना चाहिए। कहां विस्मृत हुए हैं, लक्ष्मी-गणेश-माटी के। बहुतेरे घरों की शोभा हैं वे अभी। अन्य देवी-देवता भी। सरस्वती-विशेष रूप से। दिख जाती है उनकी भी माटी पूर्ति। और नागर-जीवन चाहे जैसा भी हो या रहा हो, पर, लोक का जीवन—ग्राम्य का जीवन, वहां तो ‘माटी’का ही प्राधान्य रहा है। हर मामले में। उसका वह उर्वरा रूप तो बदलने वाला नहीं है-भले ही कितनी ही मशीनी चीजें आ जाएं, एक से एक, नई प्रौद्योगिकी की। माटी है, माटी रहेगी। और वह है तो माटी के पात्र भी एकदम से तो चले नहीं जाएंगे। वे नये-नये रूप भी धर रहे हैं।
पहले नहीं थी इतनी बड़ी जमात हमारे यहां सिरेमिक कलाकारों की; जो अब गढ़ती हैं, माटी से ही विभिन्न पात्र, रचती हैं, कलाकृतियां थी। कभी भोपाल जाना हो तो देखिये, ‘भारत भवन’का सिरेमिक विभाग। प्रसन्न हो जाएँगे ‘माटी तेरे रूप अनेक’देखकर। घरों-मुहल्लों तक में, ‘स्थापित’ हैं अब माटी को नये रूप देने वाले कलाकारों के स्टूडियो। वे उन्हें भट्टी में पकाते हैं, उनकी ग्लेजिंग करते हैं। माटी परिवर्तित होती है, पर भीतर से रहती तो माटी ही है। सिरेमिक कलाकारों के बनाए हुए सिरेमिक ‘पात्र’और उनकी रची हुई कलाकृतियां, दिखती-बिकती है अब एक बड़ी संख्या में : कला मेलों में, स्वयं उनकी लगाई गई किसी हाट में। देश-विदेश की कला-गैलरियों में।
और हमारे कुंभकार-उनकी तो एक बहुत बड़ी दुनिया रही है। वह शायद कम हुई है। पर, हैं अभी कुछ अद्भुत बस्तियां-नाथद्वार के पास ‘मोलेला टेराकोटा विलेज’जैसी जहां न जाने कितने देसी-विदेशी पर्यटक पहुंचते हैं, माटी के पात्रों-मूर्तियों को सराहने। वह दुनिया फले-फूले, बढ़े, ऐसी कामना हम करते हैं। उन्ही के रचे ‘पात्रों’से निकली हैं ढेरों कविताएं। उन्हीं के आधार पर, और स्वयं उन पर उकेरे गए हैं चित्र। उन्हें गाया-बजाया गया है। आखिरकार ‘घटम’के रूप में हमारे पास उन्हीं का सिरजा वाद्य यंत्र हैं। आप याद करते चले जाइये, पिछले दिनों से लेकर आज तक का न जाने क्या-क्या आपको और याद आ जाएगा-माटी प्रसंग से। पात्र प्रसंग से। बचपन में अपने यहां, और अन्य घरों में देखा है वह स्थान, जिस पर घड़ों-मटकों की बगल में रखे रहते थे वैसे ही और भी पात्र। हम उस स्थान को अपनी जनपदीय भाषा—‘वैसवाड़ी’में, ‘घनौची’कहते थे। वह ठंडे पानी का गर्म-स्थल सा था। उसकी बात कभी भूल नहीं सकता। कितनी ठंडक होती है माटी के पात्र में।
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