राष्ट्रनायक न्यूज।
कोविड महामारी के दौर में यह दूसरी अंबेडकर जयंती है। जाहिर है, उनकी स्मृति-आयोजनों में उमड़ने वाली भीड़ को स्वत: नियंत्रित होना होगा। आज पूरा विश्व खासकर श्रमिक वर्ग अधिक संकट का सामना कर रहा है। ऐसे में यदि हम संविधान निमार्ता का ससम्मान स्मरण कर रहे हैं, तो हमें अंबेडकर की जन कल्याणकारी दृष्टि का भी सम्मान करना होगा। यह दृष्टि दलितों, महिलाओं, श्रमिकों और कृषकों के संदर्भ में आज बेहद प्रासंगिक हो गई है। भारत में कृषकों व श्रमिकों के अधिकारों की जब बात होती है, तो अंबेडकर की थीसिस ‘प्राब्लम आॅफ रुपीज’ को अनदेखा कर दिया जाता है। जबकि अंबेडकर संसदीय प्रणाली में विश्वास रखते हुए विधिक रूप से सुधारों की बात करते हैं। गरीबी और आर्थिक असंतुलन से मुक्ति का मार्ग बुद्ध के दर्शन में तलाशते हैं।
आज कोविड महामारी के चलते संगठित व असंगठित क्षेत्र के श्रमिकों का जीवन गहरे संकट से गुजर रहा है। नोबेलजयी अर्थशास्त्री प्रो. अमर्त्य सेन कह चुके हैं कि अर्थशास्त्री अंबेडकर की थीसिस नहीं होती, तो मैं गरीबी के मुद्दे पर नोबेल पाने लायक कार्य नहीं कर पाता, उन्होंने हमें कल्याणकारी दृष्टि दी है। डॉ. अंबेडकर ने अपनी थीसिस में ब्रिटिश शासकों द्वारा भारतीय के शोषण के दम पर महंगे ठाट-बाट और फिजूलखर्ची की आलोचना की थी। बदकिस्मती से आज का शासक वर्ग भी अतिरिक्त विलासिता का जीवन जीता है।
गांधीवादी सादगी तो महज खादी पहनने तक सीमित है। डॉ अंबेडकर ने न केवल श्रम मंत्री के रूप में श्रमिकों के कल्याण की चिंता की, बल्कि उन्होंने स्वयं ‘आल इंडिया लेबर पार्टी ’बनाकर उसका नेतृत्व भी किया। वे बड़ी संजीदगी के साथ भूमिहीन कृषि मजदूरों के कष्टों को अनुभव कर रहे थे, साथ ही उन्हें छोटे जमींदारों के शोषण से बचाना चाह रहे थे। 17 सितंबर, 1937 को मुंबई विधान सभा में अंबेडकर ने किसानों के हितों की न केवल पुरजोर वकालत की, बल्कि किसान हित विधेयक पेश किया, और इस प्रकार किसानों को विधिक अधिकार दिलाने वाले वह भारत के पहले नेता बने। 16 मई, 1938 को उन्होंने ‘चिपलून’ की एक सभा में कहा था ‘मुझे किसान को प्रधानमंत्री के पद पर आरूढ़ होते हुए देखना है।’ आज किसानों को अंबेडकर जैसे लोकतांत्रिक दृष्टि संपन्न नेतृत्व की जरूरत है।
अमेरिकी सरकार अति धनिकों पर टैक्स बढ़ाकर कोरोना संकट में रोजी-रोटी खो चुके मजदूरों को आर्थिक मदद कर रही है। हमारे देश में जिस तरह धार्मिक स्थलों के लिए दिल खोल कर दानदाता अपनी तिजौरियों के मुंह खोल रहे हैं, उसका शतांश भी श्रमिकों की मदद के लिए आगे नहीं आ रहे हैं। डॉ. अंबेडकर अंतरिम सरकार में श्रममंत्री रहते हुए 1943 में कुशल व अकुशल श्रमिकों के लिए रोजगार दफ्तर खुलवाए और ‘प्लेनरी लेबर परिषद’ में कहा-पूंजीवादी संसदीय प्रजातांत्रिक व्यवस्था में दो प्रवृतियां आवश्यक होती हैं-एक जो काम करती हैं और दूसरी जो काम नहीं करती हैं। जो काम करते हैं, उन्हें गरीबी में रहना पड़ता है और जो काम नहीं करते हैं, उनके पास अमापनीय पूंजी जमा हो जाती है। उनके पास राजनीतिक सत्ता-संपन्नता केंद्रित हो जाती है और इस तरह आर्थिक विषमता बढ़ती जाती है। पर जब तक श्रमिकों को भोजन, आवास, वस्र और दवाइयां नहीं मिलतीं, तब तक वे आत्मसम्मान के साथ सिर उठा कर जीवनयापन नहीं कर सकते।
डॉ. अंबेडकर ऐसे अकेले श्रममंत्री थे, जिन्होंने श्रमिकों की व्यवहारिक कठिनाइयों को उनके बीच जाकर समझा और समाधान खोजे। उन्होंने मजदूरों को बीमा तथा महिला श्रमिकों को पुरुष श्रमिकों के समान वेतन व अतिरिक्त प्रसूति अवकाश देने की बात की। दुखद है कि आज न तो अंबेडकर के वारिस नेता हैं और न उनके विचारों पर चलने वाला कोई श्रममंत्री। यदि कुछ बचा है तो अंबेडकर के आर्थिक विचार हैं, उनके कार्य हैं, जो आज की महामारी के दौर में भी संगठित-असंगठित मजदूरों किसानों और महिलाओं के लिए संबल हो सकते हैं।


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