दिल्ली, एजेंसी। आज कोरोना वायरस, जिसे चीनी या वुहान वायरस भी कहा जा रहा है, ने लगभग पूरी मानवता को अपनी चपेट में ले लिया है। इस महामारी के चलते मरने वालों की भारी संख्या के कारण इस वायरस से संक्रमित लोगों में ही नहीं, जो लोग संक्रमित नहीं है, उनमें भी खतरा बढ़ता जा रहा है। स्वास्थ्य सुविधाएं महामारी के सामने बौनी पड़ती दिखाई दे रही हैं। सरकार ने बेड, दवाइयों, आॅक्सीजन की उपलब्धता सुनिश्चित करने के प्रयास किए हैं, लेकिन वर्तमान त्रासदी के समक्ष वे प्रयास बहुत कम हैं। कम ज्यादा मात्रा में इसी प्रकार की स्थिति का सामना अमेरिका, इंग्लैंड, इटली, ब्राजील जैसे देश पहले से ही कर चुके हैं या कर रहे हैं।
इस त्रासदी में लोगों की मजबूरी का लाभ उठाकर मुनाफा कमाने वाले लोगों की कमी नहीं है। जहां तक दवाइयों की कमी, उनकी ऊंची कीमतों और उससे ज्यादा मुनाफाखोरी का सवाल है, उसके पीछे देश के व्यापारियों की जमाखोरी से कहीं ज्यादा वैश्विक बहुराष्ट्रीय कंपनियों का एकाधिकार है। पेटेंट और अन्य बौद्धिक संपदा अधिकारों के कानूनों के कारण दवाइयों और यहां तक कि स्वास्थ्य उपकरणों आदि में भी इन कंपनियों का एकाधिकार स्थापित है, जिससे इनकी ऊंची कीमतें ये कंपनियां वसूलती हैं। हाल ही में हमने देखा कि रेमडेसिविर इंजेक्शन की कीमत 3,000 रुपये से 5,400 रुपये थी, जिसे भारत सरकार ने नियंत्रित तो किया, लेकिन उसके साथ ही उसकी भारी कमी भी हो गई।
इसके चलते इन इंजेक्शनों की कालाबाजारी हो रही है और मरीजों से इंजेक्शन के लिए 20 हजार से 50 हजार रुपये की कीमत वसूली जा रही है। ऐसा नहीं है कि भारतीय कंपनियां इन दवाइयों को बनाने में असमर्थ हैं, लेकिन चूंकि वैश्विक कंपनियों के पास इन दवाइयों का पेटेंट है, वे अपनी मर्जी से अन्य कंपनियों (भारतीय या विदेशी) को लाइसेंस देकर इन दवाइयों का उत्पादन करवाती हैं और इस कारण इन दवाइयों की भारी कीमत वसूली जाती है। क्या है समाधान? पेटेंट से जुड़ी इस प्रकार की समस्या डब्ल्यूटीओ बनने से पहले नहीं थी।
देश में सरकार किसी भी दवाई के उत्पादन के लिए लाइसेंस जारी कर उसके उत्पादन को सुनिश्चित कर सकती थी। इस कारण भारत का दवा उद्योग न केवल भारत में, बल्कि विश्व भर में सस्ती दवाइयां उपलब्ध करा रहा था। 1995 में विश्व व्यापार संगठन के बनने के साथ ही ट्रिप्स (व्यापार संबंधी बौद्धिक संपदा अधिकार) समझौता लागू हो गया था। इस समझौते में सदस्य देशों पर यह शर्त लगाई गई थी कि वह पेटेंट समेत अपने सभी बौद्धिक संपदा कानूनों को बदलेंगे और उन्हें सख्त बनाएंगे (यानी पेटेंट धारक कंपनियों के पक्ष में बनाएंगे)। इस समझौते के लागू होने से पहले भी इसका भारी विरोध हुआ था, क्योंकि यह तय था कि इस समझौते के बाद दवाइयां महंगी होंगी और जन स्वास्थ्य खतरे में पड़ जाएगा।
ऐसे में जागरूक जन संगठनों और दलगत राजनीति से ऊपर उठकर राजनेताओं के प्रयासों से विश्व व्यापार संगठन और अमीर मुल्कों के दबाव को दरकिनार करते हुए भारत ने पेटेंट कानूनों में संशोधन करते हुए जन स्वास्थ्य से जुड़ी चिंताओं का काफी हद तक निराकरण कर लिया था। हालांकि प्रक्रिया पेटेंट के स्थान पर उत्पाद पेटेंट लागू किया गया और पेटेंट की अवधि भी 14 वर्ष से बढ़ाकर 20 वर्ष कर दी गई थी, लेकिन उसके बावजूद जेनेरिक दवाइयों के उत्पादन की छूट पुन: पेटेंट की मनाही, अनिवार्य पेटेंट का प्रावधान, अनुमति पूर्व विरोध आदि कुछ ऐसे प्रावधान भारतीय पेटेंट कानून में रखे गए थे, जिससे काफी हद तक जन स्वास्थ्य संबंधी मुद्दों का समाधान हो सका। लेकिन इन सबके बावजूद अमेरिका समेत अन्य देशों की सरकारों ने भारत पर यह दबाव बनाए रखा कि भारत अपने पेटेंट कानूनों में ढील दे और अपने पास उपलब्ध प्रावधानों का न्यूनतम उपयोग करे।
संशोधित भारतीय पेटेंट अधिनियम (1970) के अध्याय 16 और ट्रिप्स प्रावधानों के अनुसार, अनिवार्य लाइसेंस दिए जाने का प्रावधान है। अनिवार्य लाइसेंस से अभिप्राय है, सरकार द्वारा जारी लाइसेंस यानी अनुमति, जिसके अनुसार किसी उत्पादक को वर्तमान में कोविड-19 से संक्रमित व्यक्तियों के लिए उपयोग की जाने वाली दवाइयों यानी रेमडेसिविर और अन्य दवाओं के संदर्भ में यदि सरकार अनिवार्य लाइसेंस जारी कर दे, तो भारत का कोई भी फार्मा निमार्ता सरकार द्वारा निर्धारित राशि (जो अत्यंत कम होती है) पेटेंट धारक को देकर उन दवाइयों का उत्पादन देश में कर उनको इस्तेमाल कर और बेच सकता है।
गौरतलब है कि ये कंपनियां महामारी के बढ़ते प्रकोप से मुनाफा कमाने की फिराक में हैं। अमेरिका सरीखे देशों की सरकारें इन दवाओं और वैक्सीन की जमाखोरी के माध्यम से विकासशील और गरीब देशों के शोषण की तैयारी कर रही हैं। हाल ही में भारत में वैक्सीन उत्पादन के लिए आवश्यक कच्चे माल की आपूर्ति में अमेरिका सरकार ने अड़ंगा लगाया था। अंतरराष्ट्रीय और घरेलू दबाव के कारण उसे रोक हटानी पड़ी। भारत सरकार ने दक्षिण अफ्रीका के साथ मिलकर विश्व व्यापार संगठन में भी ट्रिप्स प्रावधानों में छूट के लिए गुहार लगाई है, लेकिन अमेरिका, यूरोप और जापान जैसे देशों ने उसमें भी अड़ंगा लगा दिया है। ऐसे में सरकार को अपने सार्वभौम अधिकारों का उपयोग करते हुए ये अनिवार्य लाइसेंस तुरंत देने चाहिए, ताकि महामारी से त्रस्त जनता को कंपनियों के शोषण से बचाया जा सके।
गौरतलब है कि विश्व व्यापार संगठन के दोहा मंत्रिस्तरीय सम्मेलन में बौद्धिक संपदा (ट्रिप्स) एवं जन स्वास्थ्य से संबंधित एक राजनीतिक घोषणा स्वीकृत की गई, जिसमें सरकारों के इस सार्वभौम अधिकार को मान्य किया गया कि किसी भी आपातकाल अथवा अत्यधिक तत्कालिकता की स्थिति में सदस्य देशों को अधिकार है कि वे ट्रिप्स के प्रदत्त बौद्धिक संपदा अधिकारों को दरकिनार करते हुए जन स्वास्थ्य की रक्षा कर सकें। सुप्रीम कोर्ट ने भी केंद्र सरकार से पूछा है कि कोरोना से संबंधित दवाओं के लिए अनिवार्य लाइसेंस लागू करने के लिए सरकार क्यों नहीं सोच रही? वक्त आ गया है कि सरकार इस दिशा में विचार करे।


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