राष्ट्रनायक न्यूज। चीन ने हिंद महासागर में भारत की खासी घेराबंदी कर दी है। इस बात से भारत के उच्च अधिकारियों और सियासतदानों की नींदें अच्छी-खासी उड़ी हुई हैं। ऐसा बेवजह नहीं है। जहां कभी भारत का डंका बजता था, हिंद महासागर के उस पूरे इलाके में चीन आज एक बड़ी ताकत बनकर उभरा है। इस समुद्री इलाके में चीन ने अपने आर्थिक और सामरिक हितों को न सिर्फ योजनाबद्ध तरीके से स्थापित कर लिया है, बल्कि उनमें काफी पुख्तगी भी अख्तियार कर ली है। दिल्ली के साउथ ब्लॉक में बैठकर चीन पर नजर रखने वालों के माथे पर चिंता की लकीरें खिंचना तो नौ साल पहले 2012 में ही शुरू हो गया था, जब तत्कालीन प्रधानमंत्री हू जिंताओ ने चीनी कम्युनिस्ट पार्टी (सीपीसी) के सम्मेलन में चीन द्वारा महान समुद्री शक्ति बनने के मकसद का एलान किया था। यह साफ होने में भी ज्यादा वक्त नहीं लगा था कि हू की घोषणा समुद्री क्षमता हासिल करने की एक समयबद्ध योजना के मद्देनजर की गई थी। आज चीन की नौसेना संख्या बल के मामले में अमेरिकी नौसेना को पीछे छोड़ चुकी है। ध्यान रहे, चीन दुनिया का सबसे बड़ा जहाज निमार्ता देश है, जिसकी मर्चेंट नेवी, कोस्ट गार्ड, मच्छीमार बेड़ा और समुद्री सेना दुनिया में सबसे बड़ी है।
इस संदर्भ में चीन और भारत की समुद्री क्षमताओं के बीच की चौड़ी खाई को इस उदाहरण द्वारा समझा जा सकता है। चीन ने अपने पहले एयरक्राफ्ट कैरियर (विमानवाही पोत) की योजना 2015 में बनाई और तीन साल के भीतर 2018 में उसे अंजाम तक पहुंचा दिया। यह एक औद्योगिक और प्रौद्योगिकीय चमत्कार था। भारत का पहला देसी एयरक्राफ्ट कैरियर 2009 में बनना शुरू हुआ और आज 2021 तक भी पूरा नहीं हो पाया है। जानकार लोग तो इस सिलसिले में एक दिलचस्प बात बताते हैं। वर्ष 2008 और 2009 के बीच चीन ने यूक्रेन के साथ आॅनलिंग नामक एक पुराने एयरक्राफ्ट कैरियर का सौदा किया। तब तक चीन के पास ऐसा कोई जहाज नहीं था। चीन ने लोगों को 24 घंटे काम पर लगाकर उसे पूरी तरह से उपयोग के लिए तैयार कर लिया। आज चीन के पास दो नए और एक पुराना एयरक्राफ्ट कैरियर है। भारत के पास वर्ष 2000 से भी पहले ऐसा जहाज था। उसने नए एयरक्राफ्ट कैरियर बनाने का फैसला किया, जो आज तक नहीं बन पाया है।
भारत हिंद महासागर में इस कदर घिर जाएगा, इस स्थिति की पांच साल पहले कल्पना भी नहीं की जा सकती थी। आज श्रीलंका में जो स्थिति भारत की हो गई है, वह चिंता की बात है। श्रीलंका ने अपने दक्षिणी शहर हंबनटोटा के बंदरगाह और उसके पास 660 एकड़ जमीन पर विकसित किए जा रहे विशेष आर्थिक क्षेत्र को 99 साल के लिए चीन को लीज पर दे दिया है। इस बंदरगाह के विकास के लिए चीन ने ही यहां निवेश किया। इंजीनियरिंग कौशल की मदद से बंदरगाह खड़ा किया।
भारत इस बंदरगाह के विकास पर साफ शब्दों में अपनी नाराजगी जता चुका था, लेकिन श्रीलंका की गोताबाया राजपक्षे की सरकार को लगा कि हंबनटोटा बंदरगाह से अच्छी कमाई होगी, लिहाजा भारत की नाराजगी पर श्रीलंका ने कोई ध्यान नहीं दिया। जब बंदरगाह बनकर तैयार हो गया, तो उसकी कमाई इतनी कम थी कि चीनी कर्जे की किस्त चुकाना असंभव हो गया। अब हंबनटोटा बंदरगाह को चीन को 99 साल की -198 वर्षों तक विस्तारनीय- लीज पर देने के सिवा कोई चारा नहीं बचा। और तो और, इसके दायरे में 660 एकड़ के स्पेशल इकोनॉमिक जोन को न सिर्फ शामिल कर लिया गया, बल्कि इस क्षेत्र में चीन के ही नियम-कानून लागू होने की बात मान ली गई। यों कहें कि एक तरह से श्रीलंका ने अपनी संप्रभुता को दांव पर लगाकर चीन को यह बंदरगाह सौंप ही दिया। नतीजतन कभी श्रीलंकाई सेना का मुख्य बंदरगाह रहा हंबनटोटा अब चीन के कब्जे में है। संभावित हालात का अंदाजा सहज ही लगाया जा सकता है। ऐसे में, भारत के सुदूर दक्षिण के चेन्नई, तिरुवनंतपुरम और कन्याकुमारी जैसे शहरों को चीनी युद्धपोतों और पनडुब्बियों से खतरा हो सकता है।
चीन अपनी ‘स्ट्रिंग ऑफ पर्ल्स’ नीति के तहत विभिन्न देशों में अपने बंदरगाह विकसित कर रहा है, और उन्हें कर्जे देकर अपने जाल में फंसा रहा है। दरअसल यह स्ट्रिंग ऑफ पर्ल्स हिंद महासागर में चीन की विस्तार की भू-राजनीतिक रणनीति है। फिलहाल 69 देशों में चीन के बंदरगाह हैं और श्रीलंका, पाकिस्तान, बांग्लादेश, म्यांमार और मालदीव जैसे भारत के पड़ोसी देशों में उसके नौसैनिक अड्डे हैं। ये तथ्य मात्र भारत ही नहीं, बल्कि कई विकसित देशों के लिए भी चिंता का विषय है। इसके अलावा, चीन हर महीने अपने बेड़े में एक युद्धपोत भी शामिल कर रहा है।
सवाल यह है कि जब चीन हिंद महासागर में इतना कुछ कर रहा है, तो हमारी खुफिया एजेंसियां क्या कर रही हैं? उन्होंने भारत को इस आसन्न खतरे के प्रति आगाह क्यों नहीं किया? चीन पर नजर रखने वालों के अनुसार, भारत चीन की इन गतिविधियों के प्रति जागरूक है, लेकिन हमारी प्रजातांत्रिक व्यवस्था के मद्देनजर उनके खिलाफ कोई कार्रवाई करना मुश्किल है। हमारे यहां व्याप्त लाल फीताशाही और नौकरशाही इसमें सबसे बड़ा व्यवधान है।भारत में जिस गति से सरकारी दफ्तरों में फाइलें सरकती हैं, यह सभी जानते हैं। यह चीन ही कर सकता है कि एक समयबद्ध सीमा में काम खत्म कर ले। हमारे यहां पहले किसी योजना का शिलान्यास होता है और फिर धीमी गति से उस पर काम शुरू होता है। नतीजतन काम शुरू होने से खत्म होने तक उसकी लागत कई गुना बढ़ चुकी होती है।
अस्तु, भारत को हर हाल में चीन के बढ़ते प्रभाव को किसी भी तरह रोकना ही होगा, वरना आगामी दशक उसे भारी पड़ सकता है। चीन द्वारा हाल ही में दिए गए जख्म अब भी ताजा हैं। फिलहाल भारत को एक अच्छी-खासी रणनीति बना कर आक्रामक होने के सिवा और कोई चारा नजर नहीं आ रहा।बेशक भारत ने क्वाड (भारत, अमेरिका, आॅस्ट्रेलिया और जापान का संगठन) के नौसैनिक अभ्यास के जरिये चीन को संदेश दिया है, लेकिन चीनी कम्युनिस्ट पार्टी (सीपीसी) की स्थापना के सौ साल पूरे होने पर शी जिनपिंग ने जिस तरह की आक्रामकता का प्रदर्शन किया, उसके मद्देनजर अतिरिक्त सतर्कता की जरूरत है।


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