राष्ट्रनायक न्यूज। भारत के लिए अफगानिस्तान में इतिहास खुद को दोहराने के लिए तैयार है। भारत के लिए अफगानिस्तान में आशंकाएं उस समय से भी बदतर प्रतीत होती हैं, जब 1992 में वहां इसकी समर्थक सरकार गिर गई थी। तब तक सोवियत संघ, जिसके साथ भारत का गठबंधन था, विघटित हो गया था। भारत एक बार फिर वहां अलग-थलग है, क्योंकि उस क्षेत्र में इसके करीबी माने जाने वाले अमेरिका ने काबुल छोड़ दिया है। यही नहीं, अमेरिका ने अशरफ गनी सरकार को तालिबान के गंभीर खतरे के बीच छोड़ दिया है, और तालिबान का भारत से कभी बेहतर रिश्ता नहीं रहा।
अगर भारत तालिबान के साथ देर से और संकोच के साथ बात कर भी रहा है, तो लगता है कि शायद वह कारगर नहीं हो रही, क्योंकि तालिबान का शीर्ष नेतृत्व, जिसका वास्तव में कूटनीतिक महत्व है, अपना वर्चस्व सुनिश्चित करने के लिए अफगानिस्तान पर पूरी तरह कब्जा करने में व्यस्त है, ताकि देश के भीतर या बाहर से उसे चुनौती न दी जा सके। तालिबान के नियंत्रण में अफगानिस्तान का कितना बड़ा इलाका है, यह अब मायने नहीं रखता। उन्होंने अमेरिकियों द्वारा खाली किए गए राजनीतिक और सैन्य शून्य को भर दिया है। उत्तरी अफगानिस्तान के बड़े इलाकों के साथ-साथ, जहां जातीय अल्पसंख्यक उज्बेक, हजारा और ताजिक रहते हैं, ताजिकिस्तान से लगती अंतरराष्ट्रीय सीमा तक अपना नियंत्रण स्थापित कर उन्होंने यह भी सुनिश्चित किया है कि नॉर्दर्न एलायंस-जिसे भारत ने 2001 में समर्थन दिया था, जिसने अमेरिका के लिए जमीनी स्तर पर काफी लड़ाई लड़ी थी और जो काबुल से तालिबान को उखाड़ फेंकने के लिए पर्याप्त था-फिर से आकार न ले सके।
भारत के लिए स्थिति बेहद प्रतिकूल है, जैसा कि विदेश मंत्री एस जयशंकर ने रूस और और ईरान के विदेश मंत्रियों के साथ पिछले हफ्ते बातचीत करने के बाद हसूस किया। ये दोनों क्षेत्रीय शक्तियां, जो पहले अफगान संघर्ष पर भारत के करीब थीं, अब दूर हो गई हैं। ये दोनों नहीं चाहते कि अफगानिस्तान में किसी भी रूप में अमेरिकी मौजूदगी जारी रहे। उनकी स्थिति एक दूसरी प्रमुख क्षेत्रीय ताकत चीन के समान है। आज 9/11 जैसा कोई कारण नहीं है, जो अमेरिकियों को अफगानिस्तान में ले आया था। आज चीन एक विश्व शक्ति है, जो अमेरिका को चुनौती दे रहा है, हालांकि अमेरिका भी उसे चुनौती दे रहा है।
ऐसी खबरें हैं कि अमेरिका अब भी इस क्षेत्र में आतंकवाद-विरोधी शक्तियों को एकजुट करने की उम्मीद करता है। अमेरिका अफगानिस्तान से बाहर उच्च तकनीक वाले ‘हाइब्रिड युद्ध’ की योजना बना रहा है, जैसा कि सीरिया में किया गया था। इस योजना के तहत तुर्की और कुछ मध्य एशियाई देशों में सैन्य अड्डा बनाने की परिकल्पना की गई है। उज्बेकिस्तान और ताजिकिस्तान से संपर्क किया जा रहा है। पर अपनी धरती पर रूसी हथियारों की मौजूदगी और बगल में चीन के होते हुए ऐसा नहीं लगता कि वे अमेरिकियों को उपकृत कर इस्लामी चरमपंथ के संकट को आमंत्रित करेंगे।
तालिबान ने अमेरिका की मदद करने के खिलाफ सबको चेताया है। हैरानी की बात नहीं कि 9/11 के बाद के वर्षों में आतंकवाद के खिलाफ अमेरिकी जंग का पूर्व बहादुर सेनानी पाकिस्तान अमेरिकियों को हवाई क्षेत्र और समर्थन देने से इन्कार करने वाला पहला देश बन गया है। चीन के समर्थन पर इमरान खान सुरक्षित खेल खेल रहे हैं। दो दशकों तक तालिबान को सफलतापूर्वक पनाह और समर्थन देने, अफगानिस्तान में उनके मौजूदा सैन्य अभियान को सुविधाजनक बनाने तथा चीन का समर्थन सुनिश्चित करने का यह पाकिस्तानी रुख भारत के लिए उतना ही चिंताजनक होना चाहिए, जितना कि अमेरिका और पश्चिमी ताकतों के लिए। अफगानिस्तान की खनिज संपदा में चीन की पहले से गहरी दिलचस्पी है। अफगानिस्तान में चीन-पाक गठबंधन बड़ा आकार लेने के लिए तैयार है, क्योंकि चीन तालिबान के काबुल पर कब्जा करने के बाद चीन-पाकिस्तान आर्थिक गलियारे को अफगानिस्तान तक बढ़ा रहा है। अगर अमेरिकी ‘हाइब्रिड’ युद्ध अशरफ गनी को काबुल में राष्ट्रपति पद पर बनाए रखने में सफल नहीं होता, तो ऐसा जल्दी ही हो सकता है।
भारत के लिए अगर कुछ सांत्वना की बात है, तो यह कि पाकिस्तान की स्थिति भी बहुत जटिल है। अफगानिस्तान में खुली छूट मिलने और काबुल में एक मित्र सरकार होने की पाकिस्तान को भारी कीमत चुकानी होगी। सत्ता पर काबिज हो जाने पर तालिबान उनके मित्र बने रहेंगे और वे डुरंड लाइन को अंतरराष्ट्रीय सीमा के रूप में स्वीकार करेंगे, यह देखा जाना बाकी है। फिलहाल पाकिस्तान शरणार्थियों की आमद की उम्मीद कर सकता है, जो पहले से ही अनुमानित 28 लाख है। इसके अलावा नशीले पदार्थ भी आएंगे। इसके साथ चरमपंथियों और सांप्रदायिक समूहों की गतिविधियां भी बढ़ेंगी। अफगान तालिबान और तहरीके तालिबान पाकिस्तान में वैचारिक समानता है। चीन भी इससे डरता है, इसलिए वह शिनझियांग में उइघुरों को कुचलने की कोशिश कर रहा है।
पिछले दो दशकों में भारत ने अफगानों से जो सद्भावना अर्जित की, वह तालिबान के सत्ता में आते ही खत्म हो जाएगी। अफगानिस्तान के राष्ट्र-निर्माण में योगदान करने के लिए भारत ने तीन अरब डॉलर से अधिक का जो निवेश किया, वह फिलहाल खतरे में है। भारत ने हेरात में बांध बनाने से लेकर कृषि विकास के क्षेत्र में पहल करने के अलावा अफगानिस्तान के संसद परिसर का जो निर्माण किया है, उन्हें काबुल में लोकतंत्र और विकास के लौटने तक उम्मीद भरी खामोशी में खड़ा रहना चाहिए। अमेरिकी राष्ट्रपति जो बाइडन ने अब यह कहा है कि अमेरिका अफगानिस्तान में ‘राष्ट्र निर्माण’ के लिए नहीं आया था। अमेरिका ने अपने 2,500 लोगों को खोने और दस खरब डॉलर खर्च करने के बाद यह स्वीकारोक्ति की है। इसलिए, अमेरिका या किसी और के कहने पर या ‘हाइब्रिड’ युद्ध के हिस्से के रूप में अफगानिस्तान में सैन्य उपस्थिति जताने का कोई भी भारतीय प्रयास व्यर्थ और जोखिम भरा ही होगा। लिहाजा अफगानिस्तान के मामले में लंबे कूटनीतिक अनिश्चय को उसे स्वीकार कर लेना चाहिए।


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