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इंदिरा सरकार ने भारतीय इतिहास में पहली बार धारा 124ए को बनाया संज्ञेय अपराध, रोचक मगर जटिल है राजद्रोह कानून का पूरा इतिहास

नई दिल्ली, (एजेंसी)। कानूनी शब्दावली में भले ही देशद्रोह की जगह राजद्रोह का जिक्र हो लेकिन धारा लग जाने के बाद इन दोनों का फक्र गौण हो जाता है। आरोपी कानून के साथ-साथ समाज के निशाने पर भी आ जाता है। ये तो अंग्रेजों का कानून है जिन्होंने हमें औपनिवेश बनाया और हमारी स्वतंत्रता को कुचलने के लिए इसका इस्तेमाल किया। कानून के निशाने पर महात्मा गांधी और बाल गंगाधर तिलक जैसे स्वतंत्रता सेनानी रहे। क्या आजादी के 75 साल बाद इस कानून की जरूरत है। ये सवाल हमारा नहीं बल्कि देश की सर्वोच्च अदालत के हैं, जिन्होंने कहा है कि इस कानून की वैधता को जांच करने के साथ-साथ केंद्र सरकार से इस मामले में जवाब भी मांगा जाएगा। न्यायालय की इस टिप्पणी के बाद एक बार फिर इस पेचिदे मामले पर बहस शरू हो गई है। हाल के दिनों में इस कानून के तहत कई एक्टिविस्टों और पत्रकारों को गिरफ्तार किया गया है।

सुप्रीम कोर्ट की कार्यवाही और कार्यकतार्ओं और पत्रकारों की विवादास्पद गिरफ्तारी ने एक बार फिर राजद्रोह के कानून को सुर्खियों में ला दिया है। औपनिवेशिक युग का कानून, जिसके बारे में कई लोग कहते हैं कि विरोध को दबाने और सरकार के खिलाफ आलोचना को शांत करने के लिए इस्तेमाल किया जाता है, आजीवन कारावास की अधिकतम सजा का प्रावधान है और पुलिस बिना वारंट के व्यक्तियों को गिरफ्तार कर सकती है। स्वतंत्रता के बाद इस कानून में संशोधन जरूर किया गया, लेकिन केवल इसे और अधिक कठोर बनाने के लिए।

भारत में राजद्रोह कानून का इतिहास: भारत के राजद्रोह कानून का एक दिलचस्प इतिहास रहा है। भारतीय दंड संहिता को औपनिवेशिक भारत में 1860 में लागू किया गया था लेकिन इसमें राजद्रोह से संबंधित कोई धारा नहीं थी। इसे 1870 में इस आधार पर पेश किया गया था कि इसे गलती से मूल आईपीसी मसौदे से हटा दिया गया था। ब्रिटेन ने 2009 में देशद्रोह का कानून खत्म किया और कहा कि दुनिया अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के पक्ष में है। ह्लभारतीय दंड संहिता की धारा 124 अ के अनुसार, लिखित या फिर मौखिक शब्दों, या फिर चिह्नों या फिर प्रत्यक्ष या परोक्ष तौर पर नफरत फैलाने या फिर असंतोष जाहिर करने पर दोषी को 3 साल से लेकर उम्रकैद तक की सजा हो सकती है, साथ ही जुमार्ना भी लगाया जा सकता है।ह्व

ब्रिटिश राज में राजद्रोह का इस्तेमाल: अंग्रेजों ने ये कानून इसलिए बनाया ताकि वो भारत के देशभक्तों को देशद्रोही करार देकर सजा दे सके। ये स्वतंत्रता की मांगों को दबाने के काम आया। देशद्रोह के मामलों में आरोपी के रूप में पहचाने जाने वाले भारत के राष्ट्रीय नायकों की लंबी सूची में बाल गंगाधर तिलक, महात्मा गांधी, भगत सिंह और जवाहरलाल नेहरू शामिल हैं। बाल गंगाधर तिलक पहले व्यक्ति थे जिन्हें औपनिवेशिक भारत में राजद्रोह का दोषी ठहराया गया था। ब्रिटिश सरकार ने आरोप लगाया कि तिलक के मराठी समाचार पत्र केसरी में छपे लेख भारत में प्लेग महामारी को रोकने के लिए सरकार के प्रयासों को विफल साबित करने की मंशा रखते हैं। 1897 में बंबई उच्च न्यायालय ने तिलक को धारा १२४ए के तहत देशद्रोह के लिए दंडित किया और 18 महीने जेल की सजा सुनाई गई। तिलक को नौ सदस्यों की जूरी द्वारा दोषी ठहराया गया था, जिसमें छह श्वेत जूरी सदस्यों ने तिलक के खिलाफ मतदान किया था, और तीन भारतीय जूरी सदस्यों ने उनके पक्ष में मतदान किया था। बाद में, धारा 124ए को फेडरल कोर्ट द्वारा अलग-अलग व्याख्याएं दी गईं। महात्मा गांधी (साल 1922 में यंग इंडिया में राजनीतिक रूप से ‘संवेदनशील’ 3 आर्टिकल लिखने के लिए राजद्रोह का मुकदमा चलाया गया।)

आजादी के बाद राजद्रोह कानून: स्वतंत्रता के बाद, 1 दिसंबर 1948 को केएम मुंशी ने संविधान सभा में एक संशोधन पेश किया जिसमें भाषण और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के अधिकार पर देशद्रोह ‘के प्रतिबंध को हटाने का प्रस्ताव था। भारत एक लोकतांत्रिक देश बनने जा रहा था, मुंशी ने तर्क दिया: “सरकार की स्वागत- योग्य आलोचना और उकसावे जिससे सुरक्षा व्यवस्था कमजोर हो सकती है ,जिस पर सभ्य जीवन आधारित है, या जिसकी गणना राज्य को उखाड़ फेंकने के लिए की जाती है, उसमे अंतर होनी चाहिए । इसलिएह्व देशद्रोह ’शब्द को छोड़ दिया गया है।” जब 26 नवंबर 1949 को संविधान लागू हुआ तो इस संविधान में अनुच्छेद 19 (1) में बोलने और अभिव्यक्ति की आजादी को सार्वभौम अधिकार माना गया था। हालांकि भारतीय दंड संहिता में सेक्शन 124 ए बदस्तूर जारी रहा। 1951 में, जवाहरलाल नेहरू ने अनुच्छेद 19 (1) (ए) के तहत स्वतंत्रता को सीमित करने के लिए संविधान का पहला संशोधन लाया और राज्य को अधिकार दिया कि बोलने की आजादी पर तर्कपूर्ण प्रतिबंध लगाया जा सकता है। यह इंदिरा गांधी सरकार थी जिसने भारत के इतिहास में पहली बार धारा 124ए को संज्ञेय अपराध बनाया था।

तारा सिंह गोपी चंद बनाम राज्य: राजद्रोह कानून की वैधता का परीक्षण स्वतंत्र भारत में पहली बार तत्कालीन पंजाब उच्च न्यायालय द्वारा 1951 में तारा सिंह गोपी चंद बनाम राज्य में किया गया था। उच्च न्यायालय ने माना कि धारा 124ए निर्विवाद रूप से भाषण और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर प्रतिबंध था, और इस आधार पर प्रावधान को अमान्य कर दिया कि यह भारत के संविधान के अनुच्छेद 19 के तहत बोलने और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के मौलिक अधिकार का उल्लंघन है। यह वह निर्णय था जिसने जवाहरलाल नेहरू सरकार को नए आधार पेश करने के लिए प्रेरित किया, जिस पर भाषण और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के अधिकार को यथोचित रूप से प्रतिबंधित किया जा सकता था।

केदारनाथ बनाम बिहार सरकार: 1962 में केदारनाथ बनाम स्टेट आॅफ बिहार केस में सुप्रीम कोर्ट ने एक महत्वपूर्ण फैसला दिया था। इस मामले में फेडरल कोर्ट ऑफ इंडिया से सहमति जताई थी। सुप्रीम कोर्ट ने केदारनाथ केस में व्यवस्था दी कि सरकार की आलोचना या फिर एडमिनिस्ट्रेशन पर कमेंट भर से राजद्रोह का मुकदमा नहीं बनता। बता दें कि बिहार के रहने वाले केदारनाथ सिंह पर 1962 में राज्य सरकार ने एक भाषण को लेकर राजद्रोह का मामला दर्ज कर लिया था। लेकिन इस पर हाई कोर्ट ने रोक लगा दी थी। केदारनाथ सिंह के मामले में सुप्रीम कोर्ट की पांच जजों की बेंच ने भी अपने आदेश में कहा था कि देशद्रोही भाषणों और अभिव्यक्ति को सिर्फ तभी दंडित किया जा सकता है, जब उसकी वजह से किसी तरह की हिंसा या असंतोष या फिर सामाजिक असंतुष्टिकरण बढ़े। केदारनाथ बनाम बिहार राज्य केस में सुप्रीम कोर्ट ने कहा था कि सरकार की आलोचना या फिर प्रशासन पर टिप्पणी करने भर से राजद्रोह का मुकदमा नहीं बनता। देशद्रोह कानून का इस्तेमाल तब ही हो जब सीधे तौर पर हिंसा भड़काने का मामला हो। सुप्रीम कोर्ट की संवैज्ञानिक बेंच ने तब कहा था कि केवल नारेबाजी देशद्रोह के दायरे में नहीं आती।

देशद्रोह पर संविधान पीठ का फैसला: पूर्व प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी की हत्या वाले दिन (31 अक्टूबर 1984) को चंडीगढ़ में बलवंत सिंह नाम के एक शख्स ने अपने साथी के साथ मिलकर ‘खालिस्तान जिंदाबाद’ के नारे लगाए थे। 2011 में दो निर्णयों में, सर्वोच्च न्यायालय ने स्पष्ट रूप से एक बार फिर कहा कि केवल “आसन्न कानूनविहीन कार्रवाई के लिए उकसाने” वाले भाषण को ही अपराध घोषित किया जा सकता है। इंद्र दास बनाम असम राज्य और अरूप भुइयां बनाम असम राज्य में, शीर्ष अदालत ने यह भी माना कि एक प्रतिबंधित संगठन की सदस्यता मात्र किसी व्यक्ति को तब तक दोषी नहीं ठहरा सकती जब तक कि यह साबित न हो जाए कि उसने हिंसा के कृत्यों का सहारा लिया या लोगों को आसन्न हिंसा के लिए उकसाया। हालांकि, केंद्र सरकार ने प्रतिबंधित संगठनों की सदस्यता के पहलू पर इन फैसलों की समीक्षा की मांग की है।

भारतीय लॉ कमीशन का सुझाव है…: धारा 124ए तभी लगे जब कानून व्यवस्था बिगाड़ने या सरकार के खिलाफ हिंसा के मकसद से कोई गतिविधि हो। संविधान की धारा 19 (1) ए की वजह से अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर प्रतिबंध लगे हुए हैं। ऐसे में धारा 124 की जरूरत नहीं है। मामले तो बढ़े लेकिन सजा कम हुई: वेबसाइट पर अपलोड किए गए राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो (एनसीआरबी) के आंकड़ों के अनुसार, देशद्रोह के मामलों और कड़े गैरकानूनी गतिविधि (रोकथाम) अधिनियम के तहत 2019 में वृद्धि देखी गई, लेकिन देशद्रोह के मामलों में से केवल 3% के परिणामस्वरूप सजा हुई। वर्ष 2019 में देशद्रोह के मामलों की संख्या में 25% की वृद्धि और पिछले वर्ष की तुलना में गिरफ्तारी में 41% की वृद्धि देखी गई। 2019 में देशद्रोह के कुल 93 मामले दर्ज किए गए, जिसमें 76 मामलों में 96 गिरफ्तारियां और आरोप पत्र दायर किए गए, जबकि पिछले वर्ष 70 मामले, 56 गिरफ्तारियां और 27 आरोप पत्र दायर किए गए थे।

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