राष्ट्रनायक न्यूज। भारतीय फौजदारी कानून की दफा 124(ए) के तहत राजद्रोह के मुकदमे जिस हिसाब से विभिन्न राज्यों में पिछले कुछ सालों से दर्ज हो रहे हैं उससे यह गुमान होता है कि असाधरण परिस्थितियों में लागू किया जाने वाला यह कानून पुलिस की सामान्य गतिविधियों का हिस्सा हो गया है। हकीकत यह है कि राजद्रोह का कानून अंग्रेज अपना शासन पुख्ता करने और भारतीयों के स्वतन्त्रता के जज्बे को खत्म करने की गरज से लाये थे। अत: सर्वोच्च न्यायालय के प्रधान न्यायाधीश न्यायमूर्ति एन.वी.रमन्ना का इस कानून के खिलाफ दायर याचिकाओं की सुनवाई करते हुए यह टिप्पणी करना कि आजादी 75 सालों बाद भी क्या हमें ऐसे कानून की जरूरत है? साबित करता है कि वर्तमान भारत की लोगों द्वारा चुनी गई सरकारें ऐसे कानून से निजात पायें और लोगों में भय या खौफ का माहौल न बनायें। देश की सबसे बड़ी अदालत का यह कहना पुलिस के हाथ में दिया गया यह कानून ऐसा औजार है जो लोगों से दुश्मनी निकालने के लिए प्रयोग किया जा सकता है, इस बात का सबूत है कि लोकतन्त्र में भय या डर अथवा खौफ का माहौल पैदा करके शासन नागरिकों को उनके मूल अधिकारों से वंचित करना चाहता है।
इसका मतलब यह भी निकलता है कि सत्ता की आलोचना या उसके कार्यों से असहमति रखने पर राजद्रोह कानून का उपयोग शासन को मिला हुआ अमोघ अस्त्र है। जबकि इस कानून में यह स्पष्ट प्रावधान है कि इसका प्रयोग तभी किया जायेगा जब कोई व्यक्ति संविधान के अनुसार स्थापित सत्ता को उखाड़ने के लिए हिंसक तरीकों का इस्तेमाल करता है अथवा लोगों को इस तरीके का इस्तेमाल करने के लिए संगठित करता है या उकसाता है। मगर हाल के पिछले वर्षों में इस कानून का प्रयोग पत्रकारों से लेकर साधारण नागरिकों व सामाजिक कार्यकतार्ओं के खिलाफ जिस धड़ल्ले के साथ विभिन्न राज्यों की सरकारों ने किया है उससे यही निष्कर्ष निकलता है कि सत्ता अपने खिलाफ उठने वाली किसी भी आवाज को राजद्रोह के जामे में उतारना चाहती है। इसकी एक और वजह न्यायमूर्ति रमन्ना ने अपनी अध्यक्षता में बनी तीन सदस्यीय न्यायपीठ के मंच से कहा कि अभी तक जितने भी राजद्रोह के जितने भी मुकदमें दायर किये गये हैं उनमें सजा पाने वाले लोगों की संख्या बहुत कम रही है।
न्यायमूर्ति रमन्ना ने जिस बात की तरफ पूरे देश का ध्यान खींचा है वह यह है कि यह कानून साम्राज्यवादी दौर का है। बेशक यह कानून शुरू में भारत पर राज करने वाली ब्रिटिश सरकार के देश इंग्लैंड में भी था मगर इसे 1920 में ही उसने अपने देश में खत्म कर दिया था। भारत में भी आजादी से पहले ब्रिटिश संसद द्वारा बनाये गये कानून ही चलते थे अत: इस देश में अपने साम्राज्य का विस्तार करने की मंशा से उसने यह कानून लागू रखा लेकिन सबसे आश्चर्यजनक यह है कि आजादी मिलने के बाद भी यह कानून लागू रहा हालांकि इस कानून के तहत नेहरू काल के दौरान इक्का-दुक्का मामले ही सामने आये लेकिन इसका प्रयोग तो किया गया और जनता द्वारा चुनी गई सरकारों द्वारा ही किया गया। पत्रकार रोमेश थापर के खिलाफ तत्कालीन मद्रास राज्य की सरकार ने इस दफा का इस्तेमाल 1950 में किया। इसके बाद और भी कई राज्य सरकारों ने नागिकों के खिलाफ मुकदमे दायर किये मगर 1962 में केदारनाथ सिंह के विरुद्ध बिहार सरकार मामले में सर्वोच्च न्यायालय ने ऐतिहासिक फैसला दिया और राजद्रोह का मुकदमा दायर करने के लिए विशिष्ट शर्तों की विवेचना की और साफ कर दिया कि इस कानून का इस्तेमाल सामान्य फौजदारी कानून की तरह नहीं हो सकता हालांकि उसने इस कानून को तब रद्द नहीं किया किन्तु इसके इस्तेमाल की संभावना को न्यूनतम बना दिया।
बेशक इस बीच में इमरजेंसी का दौर भी आया जिस दौरान इस कानून का बड़ी बेरहमी से इस्तेमाल हुआ मगर इसके बाद पिछले ताजा वर्षों में तो कई राज्यों की सरकारों ने तो इसे पुलिस के रोजनामचे का हिस्सा ही बना डालने में कोई कसर नहीं छोड़ी। अत: 2021 में सर्वोच्च न्यायालय ने इस कानून के उपयोग के बारे में जो प्रश्न उठाये हैं वे स्वस्थ व निडर लोकतन्त्र के भविष्य के लिए बहुत महत्वूर्ण हैं। लोकतन्त्र की सबसे बड़ी खूबी यह होती है कि यह निर्भयता के माहौल में ही अपना परिशोधन व संशोधन इस प्रकार करता हुआ चलता है कि आने वाली पीढ़ियों का जीवन सुगम व बेहतर हो सके। डर के माहौल में यह कार्य कभी संभव नहीं हो सकता क्योंकि स्वतन्त्र न्यायपालिका पग-पग पर संविधान की संरक्षक बन कर नागरिकों के अधिकारों की सुरक्षा करती है और उन्हें सशक्त बनाती है जिससे लोकन्त्र ही अन्तत: मजबूत होता है।
पिछले कुछ सालों में मौजूदा सरकार ने एक हजार से ऊपर ऐसे कानूनों को रद्द किया है जो समकालीन नहीं रह गये थे। अब सर्वोच्च न्यायालय इसी नजरिये से राजद्रोह कानून की समीक्षा कर रहा है क्योंकि अंग्रेजों ने यह कानून भारतीयों की आवाज और उनकी असहमति या आलोचना को कुचलने के लिए बनाया था। अत: न्यायमूर्ति रमन्ना का यह कहना कि जिस कानून का प्रयोग अंग्रेजों ने स्वतन्त्रता आन्दोलन के महानायक महात्मा गांधी के खिलाफ किया, क्या वह आज भारतीयों के शासन वाली सरकारों के दौर में प्रासंगिक है? जाहिर है यह कानून विदेशी राज के विस्तार और उसकी मजबूती के लिए था जिसका कोई औचित्य जनता के राज में सिद्ध नहीं किया जा सकता। अंग्रेजी दौर में इस कानून के तहत भारतीयों पर जो मुकदमा दायर होता था वह ब्रिटेन के सम्राट विरुद्ध भारतीय नागरिक का होता था। आजादी को अपना जन्म सिद्ध अधिकार मानने वाले बाल गंगाधर तिलक के विरुद्ध भी अंग्रेजों ने इस कानून का इस्तेमाल किया था।
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