राष्ट्रनायक न्यूज।
सभी धर्मों, सभी संस्कृतियों और सभी समाजों में परिवर्तन आता है। मनुष्य की मानसिकता और जीवन बोध में परिवर्तन आता है। परिवर्तन के बिना धर्म,संस्कृति और समाज बंद जलाशय की तरह हो जाता है। मानसिकता में परिवर्तन भी आवश्यक है। हमें अपनी सोच को आधुनिक बनाना चाहिए, उसे छोटी परिधि से निकालकर मुक्त आकाश देना चाहिए। इस पृथ्वी का हर समाज परिवर्तन का गवाह है। लेकिन यह भी सच है कि हर समाज में परिवर्तन-विरोधी कुछ लोग होते हैं। जिस समाज में परिवर्तन-विरोधी लोग कम होते हैं, वह समाज आगे बढ़ता है।
दूसरी ओर, जिस समाज में बदलाव-विरोधी लोगों का वर्चस्व होता है, वह समाज पिछड़ा ही रह जाता है। कभी यूरोप में ईश्वर के अस्तित्व पर सवाल खड़े करने वाले लोगों को ईसाई धर्म प्रचारक सूली पर लटका देते थे। यूरोप के ज्यादातर ईसाई आज ईश्वर के अस्तित्व को नहीं मानते, लेकिन धर्म प्रचारक उनका कुछ नहीं बिगाड़ सकते, क्योंकि खुद उनकी ताकत और महत्ता खत्म हो चुकी है। हिंदू समाज में एक समय सती प्रथा का चलन था, लेकिन खुद इसी समाज ने आगे बढ़कर वह कुप्रथा खत्म की। मुस्लिम समाज में अलबत्ता, दुर्भाग्य से, ऐसा बदलाव नहीं आ पाया। सिर्फ यही नहीं कि मुस्लिम समाज सर्वांगीण प्रगति में आज भी बहुत विश्वास नहीं करता, उससे भी अधिक आश्चर्य की बात यह है कि आधुनिक समाजों के बीच रहकर भी उसमें खुद को बदलने की प्रेरणा नहीं आती। प्रगति के पहिये को रोककर रखने से दूसरों को जितना नुकसान होता है, उससे कहीं अधिक अपना नुकसान होता है।
हाल ही में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सरसंघचालक मोहन भागवत ने जो कुछ कहा, उस पर मुझे सहसा विश्वास नहीं हुआ। संघ के बारे में धारणा यह है कि वह मुस्लिम-विरोधी है। लेकिन मोहन भागवत ने कहा, ‘हिंदू-मुस्लिम एकता की बात भ्रामक है, क्योंकि वे अलग नहीं, बल्कि एक हैं। सभी भारतीयों का डीएनए एक है, चाहे वे किसी भी धर्म के हों। अगर कोई हिंदू कहता है कि मुसलमान को यहां नहीं रहना चाहिए, तो वह शख्स हिंदू नहीं है। गाय पवित्र जानवर है, लेकिन जो लोग दूसरों की लिंचिंग कर रहे हैं, वे हिंदुत्व के खिलाफ हैं। हम लोकतंत्र में हैं। यहां हिंदुओं या मुसलमानों का प्रभुत्व नहीं हो सकता। यहां केवल भारतीयों का वर्चस्व हो सकता है।’
मैं सोच रही हूं कि बांग्लादेश के चरम कट्टरपंथी जमात-ए-इस्लामी या हिफाजत-ए-इस्लामी समूह क्या इस तरह के विचार व्यक्त कर सकते हैं? यदि ये समूह इस तरह की सोच नहीं रखते, तो इसका अर्थ बिल्कुल साफ है कि ये बदलाव नहीं चाहते। बांग्लादेश के ज्यादातर लोग धार्मिक हैं। अत्यधिक धार्मिक लोगों की संख्या आजकल बढ़ रही है। जबकि ऐसे लोगों की संख्या बढ़ती है, तो अल्पसंख्यकों को मुश्किलों का सामना करना पड़ता है। और सिर्फ अल्पसंख्यक ही क्यों, बहुसंख्यकों की कट्टरवादी सोच से उदार चिंतकों के लिए भी समस्याएं खड़ी हो जाती हैं। बांग्लादेश में इन दिनों धार्मिकों की तुलना में अति धार्मिक या कट्टरवादियों की संख्या अधिक है। चूंकि ये अति धार्मिक लोग ही दूसरे धर्मों के लोगों और उदार चिंतकों के लिए मुश्किलें खड़ी करते हैं, ऐसे में, आधुनिक समाज के निर्माण के लिए कट्टरपंथियों की सोच बदलनी पड़ेगी। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के प्रमुख ने सामाजिक समरसता की जो बात कही है, उस पर ध्यान देने की जरूरत है। जाहिर है, वह भी परिवर्तन चाहते हैं। उन्होंने कहा है कि सभ्य समाज के निर्माण के लिए ईर्ष्या, द्वेष, घृणा और कट्टरवादी मानसिकता छोड़नी होगी। बेहतर समाज बनाने के लिए यह सीख सबके लिए आवश्यक है।
विकास की दौड़ में पिछड़ रहे मुस्लिमों के लिए भी यह सीख जरूरी है। यह पृथ्वी पूरी तरह सभ्य उस दिन होगी, जिस दिन मनुष्य का परिचय उसकी धार्मिक पहचान से नहीं, बल्कि उसकी मनुष्यता से होगा। मेरे जैसे अनेक लोग पिछले काफी समय से बांग्लादेश में समान नागरिक संहिता की बात कर रहे हैं। लेकिन सरकारों की इसमें कोई रुचि ही नहीं है। मुस्लिम पारिवारिक कानून में स्त्रियों के प्रति विषमता का परिचय दिया गया है, जबकि हिंदू पारिवारिक कानून हिंदू शास्त्रों पर आधारित होने के कारण उसमें हिंदू स्त्रियों के अधिकार की बात नहीं है। समान अधिकार की बुनियाद पर समान नागरिक संहिता को बांग्लादेश के जन्म के समय ही लागू किया जाना चाहिए था।
लेकिन राष्ट्र के नीति-नियंताओं ने तब ऐसा नहीं किया। कुछ काम ऐसे होते हैं, जिनमें विलंब होने पर वे अधूरे ही रह जाते हैं। सामाजिक और राजनीतिक परिस्थिति इतनी बदल जाती है कि सरकार वह जरूरी कदम उठाने में हिचकती है। बीती सदी के सत्तर के दशक में बांग्लादेश में समान नागरिक संहिता को लागू करना जितना आसान था, उतना आज नहीं है, क्योंकि आज वहां कट्टरपंथियों का वर्चस्व है, जो सबको बराबर अधिकार देने की उदारवादी सोच के खिलाफ हैं। कट्टरपंथियों का मानना है कि धर्म के नाम पर वे जो चाहे कर सकते हैं। इसी कारण वे धार्मिक कानून में कोई परिवर्तन नहीं चाहते। जबकि दुनिया भर में महिलाओं को धार्मिक कानूनों के कारण शोषण का शिकार होना पड़ता है। सदियों से महिलाएं विषमता का शिकार होती आई हैं, फिर चाहे वे हिंदू हों या मुस्लिम, बौद्ध हों या ईसाई। बांग्लादेश की हिंदू महिलाओं को आज यह कहना पड़ रहा है कि उन्हें तलाक का अधिकार चाहिए।
बहुत लोगों को मालूम नहीं कि वहां उन्हें यह अधिकार नहीं है। बांग्लादेश के मुस्लिम परिवार कानून में कुछ बदलाव हुए हैं, लेकिन हिंदू परिवार कानून जस का तस है। जाहिर है, हिंदू परिवार कानून में जान-बूझकर बदलाव नहीं किया गया। भारत के कट्टरवादी मुसलमान जिस तरह मुस्लिम पर्सनल लॉ में कोई बदलाव नहीं चाहते, ठीक उसी तरह बांग्लादेश के कट्टरवादी हिंदू भी अपने कानून में परिवर्तन नहीं चाहते। यानी चाहे वे मुस्लिम कट्टरवादी हों या हिंदू कट्टरवादी, उनकी मानसिकता में कोई फर्क नहीं है, अपनी पुरातनपंथी सोच में वे समान हैं। दुनिया के तमाम कट्टरपंथी स्त्री स्वाधीनता के घनघोर विरोधी हैं।


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