राष्ट्रनायक न्यूज

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बढ़ती आबादी: जनसंख्या नियंत्रण का एक आयाम यह भी, बलबीर पुंज उठा रहे हैं अहम सवाल

राष्ट्रनायक न्यूज।
विगत 28 जुलाई को अमर उजाला के मुखपृष्ठ पर केरल से संबंधित एक समाचार था, ‘पांच से ज्यादा बच्चे पैदा किए तो चर्च देगा पैसा।’ ऐसा विचार तब सामने आया है, जब देश में कई समस्याओं के मुख्य कारणों में से एक अनियंत्रित जनसंख्या पर नकेल कसने हेतु चर्चा हो रही है। यह पहली बार नहीं है, जब जनसंख्या वृद्धि पर नकेल कसने संबंधित प्रयासों के प्रतिकूल समुदाय विशेष द्वारा आबादी बढ़ाने हेतु प्रोत्साहित किया गया हो। गत दिनों उत्तर प्रदेश की योगी सरकार जब ‘जनसंख्या नीति 2021-2030’ प्रस्ताव लेकर आई, तब भी इसके पक्ष-विपक्ष में कई प्रतिक्रियाएं सामने आईं। सपा सांसद शफीकुर्रहमान बर्क ने इसका विरोध करते हुए कहा, ‘बच्चे कुदरत की देन हैं, रुकावट डालने का हक किसी को नहीं।’ आखिर ऐसे चिंतन का कारण क्या है?

केरल में कोट्टायम स्थित पाला चर्च द्वारा जारी घोषणा के अनुसार, वर्ष 2000 के बाद शादी करने वाले जिन भी जोड़ों के पांच या उससे अधिक बच्चे हैं, उन्हें 1,500 रुपये मासिक की वित्तीय सहायता दी जाएगी। साथ ही, चौथे और उससे आगे होने वाले बच्चों को पाला के सेंट जोसेफ कॉलेज आॅफ इंजीनियरिंग ऐंड टेक्नोलॉजी में छात्रवृति दी जाएगी। इसके साथ चौथे और बाद के बच्चों को जन्म देने वाली महिलाओं के गर्भ संबंधित समस्याओं का उपचार भी क्षेत्र के अस्पताल में नि:शुल्क किया जाएगा। चर्च प्रायोजित यह योजना फिलहाल केरल के कुछ क्षेत्रों तक सीमित है।

चर्च ने अपने इस फैसले के पीछे केरल में ईसाइयों की आबादी घटने का तर्क दिया है। यह सही है कि इस राज्य में दो बड़े समुदायों (हिंदू-मुस्लिम) की तुलना में ईसाई समाज की जनसंख्या वृद्धि दर कम है। वर्ष 1951 में वहां हिंदू, ईसाई और मुस्लिम आबादी क्रमश: 62, 21 और 17 प्रतिशत थी, जो अब क्रमश: 55, 18 और करीब 27 फीसदी है। इस जनसांख्यिकीय परिवर्तन का कारण क्या है? देश में मुस्लिम आबादी बढ़ने और उनके तथाकथित पिछड़ेपन के पीछे गरीबी-निरक्षरता को जिम्मेदार ठहराया जाता है। एक रिपोर्ट के अनुसार, केरल में मुसलमानों की आर्थिक स्थिति शेष भारतीय मुस्लिमों की तुलना में बेहतर है और उनकी साक्षरता दर हिंदुओं-ईसाइयों की भांति 93 प्रतिशत से अधिक है, फिर भी प्रदेश की बढ़ती जनसंख्या में मुस्लिम समाज की हिस्सेदारी सर्वाधिक है। वहां मुस्लिम आबादी हिंदुओं की तुलना में करीब छह गुना, तो ईसाइयों की तुलना में नौ गुना  तेजी से बढ़ रही है। क्यों?

इसका कारण मुस्लिमों द्वारा अधिक से अधिक बच्चे पैदा करना है। विभाजन के समय देश की कुल आबादी में मुस्लिमों की संख्या 3.7 करोड़ थी, जो आज करीब 21-22 करोड़ है। इस दौरान हिंदुओं की आबादी 87 प्रतिशत से घटकर 80 प्रतिशत से नीचे चली गई। देश में ईसाइयों की कुल आबादी (करीब तीन करोड़) का एक चौथाई से अधिक हिस्सा पूर्वोत्तर भारत में बसता है। नगालैंड, मिजोरम और मेघालय ईसाई बहुल प्रांत हैं। हालांकि आजादी से पहले या बाद के कुछ वर्ष तक वहां स्थिति ऐसी नहीं थी। वर्ष 1941 में नगालैंड, मिजोरम और मेघालय की कुल जनसंख्या में ईसाइयों की आबादी लगभग शून्य प्रतिशत थी। पर वर्ष 2011 में इन राज्यों में ईसाई आबादी क्रमश: 88, 87 और 75 प्रतिशत से अधिक हो गई। वर्ष 1971 में अरुणाचल प्रदेश की तत्कालीन कुल जनसंख्या में ईसाइयों की हिस्सेदारी एक प्रतिशत भी नहीं थी, किंतु 2011 में इनकी संख्या 30 प्रतिशत से अधिक हो गई। आरोप है कि वहां चर्च-ईसाई मिशनरियों ने छल, बल और धन के जरिये स्थानीय आदिवासी समाज का मतांतरण किया।

देश के अधिकांश चर्चों और ईसाई मिशनरियों की विकृत ‘सेवा’ की जड़ उस ‘द व्हाइट मैन बर्डन’ मानसिकता में निहित है, जिसकी नींव 15वीं शताब्दी में पुर्तगालियों के गोवा आगमन और 1647 में ब्रितानी चैपलेन के चेन्नई पहुंचने पर पड़ी थी। वर्ष 1813 में ईस्ट इंडिया कंपनी के चार्टर में अनुच्छेद जोड़कर न केवल अंग्रेज पादरियों व ईसाई मिशनरियों द्वारा स्थानीय ‘हीथन’ (बाइबिल को ईश्वर न मानने वाले) भारतीयों के मतांतरण का मार्ग प्रशस्त किया, बल्कि उन्हें अंग्रेजों द्वारा सभी आवश्यक सहयोग देने का प्रावधान भी किया गया। नतीजतन 1857 की क्रांति में नव-मतांतरित ईसाई समाज अंग्रेजों के पक्ष खड़ा था। स्वतंत्रता के दशकों बाद भी देश के कई क्षेत्रों में मतांतरण का खेल खुलेआम चल रहा है।

ऐसा नहीं है कि भारत में चर्च पहली बार विवादों में आया है। इससे पहले केरल का ही चर्च समाज (वेटिकन सहित) सिस्टर लूसी के खिलाफ इसलिए खड़ा हो गया था, क्योंकि उसने अपनी अन्य साथी नन से बलात्कार करने के आरोपी बिशप फ्रैंको मुलक्कल को वांछित सजा दिलाने हेतु आंदोलन किया था। चर्च के आशीर्वाद से आरोपी बिशप आज भी अपने पद पर कायम हैं, जबकि सिस्टर लूसी चर्च से बाहर। भारत में चर्च और संबंधित संस्थाओं के इस आचरण का कारण वह विकृत सेक्यूलरवाद है, जिसमें मामले की गंभीरता और उस पर प्रतिक्रिया पीड़ित और आरोपी के मजहब से निर्धारित होती है। कोट्टायम चर्च के अधिक बच्चे पैदा करने वाले बयान पर स्वयंभू सेक्यूलरिस्टों की चुप्पी इसका प्रत्यक्ष प्रमाण है।