राष्ट्रनायक न्यूज।
मिस्र खत्म हुआ, यूनान खत्म हुआ, सीरिया, बेबीलोन दुनिया की सारी संस्कृतियां पैदा हुईं और मर गईं। लेकिन हमारी संस्कृति अभी तक जिंदा है। और इसी बीच खबर है कि यूनेस्को ने गुजरात के सिंधु-हड़प्पा कालीन ऐतिहासिक शहर धोलावीरा के अवशेषों को विश्व धरोहर सूची में शामिल कर लिया है। गुजरात के कच्छ के रण यानी रेगिस्तान को ‘नमक का रेगिस्तान’ कहा जाता है। कोई 23,000 वर्ग फीट में फैला ये वीरान इलाका कभी समुद्र का हिस्सा था। लेकिन आज से कोई पांच हजार साल पहले ये इलाका समुद्र के किनारे कोई 150 एकड़ इलाके में बसा एक शानदार महानगर हुआ करता था। आज की मुंबई की तरह। शायद उससे कहीं उन्नत और संपन्न। इस सभ्यता के स्वर्ण काल में समुद्र के रास्ते भारतीयों का मेसोपोटेमिया से व्यापार होता था। यह महानगर तब बसा जब इस देश में वेद, पुराण और उपनिषद नहीं लिखे गए थे। तब तक न तो सिकंदर विश्वविजय के लिए निकला था और न महात्मा बुद्ध का युग शुरू हुआ था। ये शहर हमारी प्राचीनतम संस्कृत भाषा से भी सदियों साल पुराना था।
इस शहर के तबाह हो जाने के हजारों साल बाद सिकंदर कोई 327-325 ईसा पूर्व के बीच विश्व विजय से थका हारा घर वापसी के वक्त इस इलाके में आया था। तब इस इलाके में छोटे-छोटे खूबसूरत द्वीप हुआ करते थे। उसने कच्छ के स्थानीय लोगों की मदद से करीब 800 बड़ी नावें बनवाईं। हैरत है कि कच्छ के निवासी 5,000 साल से लेकर आज तक अच्छे नाविक माने जाते हैं। जहांगीर ने तो कच्छ के लोगों का लगान इस शर्त पर माफ कर दिया था कि वे गरीब लोगों को पानी के जहाज से मुफ्त में मक्का और मदीना की यात्रा कराएंगे। 1838 में पोस्टन ने पुराने कच्छ नाविकों से बातचीत में निकाला कि वे अपने जहाज खुद बनाते थे और अपने बनाए समुद्री नक्शों पर ही यात्रियों को जहाज से इंग्लैंड, पोलैंड से लेकर अफ्रीका तक की यात्राएं कराते थे।
अब इस इलाके की 20वीं सदी की कहानी सुनिए। सदियों की हवाओं ने उड़ते-उड़ते इस प्राचीन नगर के ऊपर से रेत की चादर जरा-सी सरका दी। गांव वाले बरसों से एक कच्ची-पक्की ईंटों के खंडहर के नजदीक रह रहे थे। वे नहीं जानते थे कि ये खंडहर कितने पुराने हैं। इस बात का उन्हें अंदाजा तक नहीं था कि जहां वे रहते हैं, कभी 5,000 साल पहले वह मुंबई जैसा कोई शहर रहा होगा। उनके खुद के घर मिट्टी और रेत के थे। इसलिए उन्हें ये पक्की ईंटें देखकर हैरत होती। इन खंडहरों के पत्थर से गांव वाले अपने नए घर बना सकते थे, लेकिन नहीं। गांव के बुजुर्गों की सख्त हिदायत थी कि वे इन ईंटों को गांव में न लाएं, क्योंकि इनमें दुष्ट आत्माओं का वास है। फिर साठ के दशक में धोलावारा के पोस्टमास्टर के एक खत के कुछ ही महीनों में पुरातत्व विभाग की एक छोटी-सी टीम वहां पहुंच गई।
और कुछ ही सालों में पुराविद आरएस बिष्ट के नेतृत्व में वहां खुदाई शुरू हो गई। तब वहां से निकला देश का ये प्राचीनतम शहर। ये शहर उस जमाने की सिंधु सभ्यता के अन्य शहरों की तरह कच्ची-पक्की ईंटों से बना था। ये ईंटे आज की ईटों की तरह चौकोर होती थीं। तब शहर की आबादी कोई 50,000 रही होगी। ज्यादातर लोग व्यापारी थे और यह महानगर व्यापार का मुख्य केंद्र था। शहर की बसावट किसी शानदार कॉलोनी जैसी थी। ये महानगर किसी चौकोर दीवारों की एक शृंखला से घिरा हुआ था। हैरत की बात है कि इस पूरे महानगर में धार्मिक स्थलों के कोई अवशेष नहीं मिले। न ही किसी देवी-देवता की कोई मूर्ति मिली। इस शहर की खुदाई में लिखी हुई चीजें तो नहीं मिलीं, लेकिन एक घर के दरवाजे के ऊपर उस जमाने का साइन बोर्ड जैसा कुछ पाया गया जिस पर दस बड़े-बड़े अक्षरों में कुछ लिखा है। ये दस सुंदर अक्षर, चित्रात्मक शैली के हैं, जो पांच हजार साल के बाद आज भी सुरक्षित बच गए। इस लिखे का मतलब क्या है, यह आज भी एक रहस्य है।


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