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आखिर केंद्र को जाति आधारित जनगणना से परहेज क्यों? इससे क्षेत्रीय दलों को क्या होगा फायदा?

नई दिल्ली, (एजेंसी)। जाति आधारित जनगणना को लेकर बिहार की राजनीति गर्म है। जदयू और राजद दोनों ही जाति आधारित जनगणना की मांग लगातार करते रहे हैं। इन सबके बीच केंद्र सरकार ने लोकसभा में यह कह दिया कि जाति आधारित जनगणना संभव नहीं है। लेकिन सबसे बड़ी बात तो यह है कि आखिर केंद्र सरकार जाति आधारित जनगणना के सवाल पर क्यों बचती दिख रही है? कभी भाजपा ने जाति आधारित जनगणना का समर्थन किया था लेकिन आज वह इस से परहेज करती दिखाई दे रही है। आखिर जाति आधारित जनगणना की मांग क्षेत्रीय दल क्यों करते हैं? वर्तमान समय में देखें तो क्या जाति आधारित जनगणना केवल एक राजनीतिक मुद्दा बनकर रह जाएगा या इस पर कोई हल भी निकलेगा। बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने साफ तौर पर कह दिया है कि वह प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से मुलाकात कर जाति आधारित जनगणना की मांग करेंगे। जब से सरकार ने इस बात को संसद में कहा है कि वह जाति आधारित जनगणना के पक्ष में नहीं है तब से ओबीसी संगठन जाति आधारित जनगणना को लेकर दबाव बना रहे हैं। दूसरी और सरकार की ओर से इसका काट निकालते हुए नीट की परीक्षा में ओबीसी को आरक्षण देखकर एक मास्टर स्ट्रोक खेला गया है।

सबसे बड़ा सवाल तो यही है कि आखिर जाति आधारित जनगणना को लेकर सरकार परहेज क्यों कर रही है? इसका सबसे बड़ा कारण यह है कि सरकार जाति आधारित जनगणना शुरू कर खुद के लिए एक नया मोर्चा खड़ा नहीं करना चाहती। आखरी बार जाति आधारित जनगणना की रिपोर्ट 1931 में आई थी। इस जनगणना के अनुसार और मंडल कमीशन के रिसर्च के मुताबिक के तक देश में पिछड़े वर्ग की आबादी 54 फीसदी थी। लेकिन अब माना जा रहा है कि इसमें काफी इजाफा हुआ होगा। ऐसे में अगर सरकार जाति आधारित जनगणना कराती है तो नौकरी से लेकर शिक्षा तक में तथा राजनीति और तमाम जगहों पर प्रतिनिधित्व का हिस्सा मांगने के लिए नए सिरे से मांग उठ सकती है जो सरकार के लिए मुश्किलें खड़ा कर सकती हैं। सुप्रीम कोर्ट ने आरक्षण की सीमा 50 प्रतिशत तय कर रखी है।

जाति आधारित जनगणना के बाद संवैधानिक बदलाव की भी मांग उठ सकती है जो सरकार नहीं करना चाहती। दूसरी ओर केंद्र सरकार ने आर्थिक रूप से गरीबों को 10 फीसदी आरक्षण देकर उस सीमा को पार कर लिया है जो सुप्रीम कोर्ट द्वारा तय की गई थी। लेकिन इसमें जाति का दीवार नहीं रखा गया था। सुप्रीम कोर्ट ने यह भी स्पष्ट कर रखा है कि कोई भी राज्य 50 फीसदी की सीमा को पार नहीं कर सकते हैं। साथ में प्राइवेट नौकरियों में आरक्षण की मांग भी लगातार उठाई जा रही है। जाति आधारित जनगणना के आंकड़े आने के बाद समाज में ताने-बाने के अलावा राजनीतिक स्थिति में भी बहुत बड़े बदलाव की स्थिति हो सकती है। शैक्षिक संस्थानों में भी आरक्षण की मांग नए सिरे से सामने आएगी जो सरकार के लिए मुश्किलें पैदा कर सकती हैं। केंद्र सरकार को यह लगता है कि गुड गवर्नेंस का आकार पीछे रह जाएगा और एक बार फिर से देश की राजनीति आरक्षण के मुद्दे के इर्द-गिर्द घूमने लगेगी। क्षेत्रीय दल जाति आधारित जनगणना के मानकर ओबीसी वोटरों को अपने पाले में करने की कोशिश करती रहती हैं। साथ ही साथ उन्हें जाति आधारित जनगणना से इस बात का आभास हो जाएगा कि राज्य में ओबीसी कितनी प्रतिशत है। इसके अनुसार वह इन्हें साधने के लिए आगे बढ़ सकती हैं।

1931 के बाद यूपीए-2 की सरकार ने जाति आधारित जनगणना के लिए निर्णय तो लिया था लेकिन वह इसे शुरू नहीं कर सकी। खुद प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह तैयार नहीं थे। जाति आधारित जनगणना यूपीए के घोषणापत्र में था। ऐसे में मुलायम सिंह यादव और लालू यादव और मायावती को साथ लेने के लिए तब कि यूपीए सरकार को इस मुद्दे पर आगे बढ़ना पड़ा। 2011 की कैबिनेट ने 70 सालों बाद जाति आधारित जनगणना कराने की प्रक्रिया की शुरूआत की थी। तब भी सरकार में कुछ लोगों ने इसका विरोध किया था। वर्तमान में तो संघ भी नहीं चाहता कि जाति आधारित जनगणना हो। संघ को लगता है कि अगर जाति आधारित जनगणना होगी तो वृहद हिंदुत्व की कल्पना को राजनीतिक रूप से धक्का लग सकता है। अभी सवर्ण जो भाजपा के कोर वोटर माने जाते हैं उन्हें भी इससे निराशा हो सकती है।

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