राष्ट्रनायक न्यूज

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प्रकृति से खिलवाड़: भूस्खलन और बाढ़ की बढ़ती चुनौती

राष्ट्रनायक न्यूज।
पिछले महीने जुलाई में अनेक जगहों पर बादल फटने के समाचार आए थे। शुरूआत जम्मू-कश्मीर के किश्तवाड़ से हुई, उसके बाद हिमाचल के किन्नौर जिले में भूस्खलन की चपेट में आए एक पर्यटक वाहन में नौ लोगों की मौत हो गई। इसके अलावा हिमाचल के धर्मशाला और उत्तराखंड में उत्तरकाशी के अनेक गांवों में बादल फटने से पहाड़ी गदेरों और नालों में भारी मलबे और पानी के प्रवाह में अनेक लोगों की जानें चली गईं और वाहन बह गए। हिमाचल में नेशनल हाइवे 707 का कुछ हिस्सा धंस गया। लगता है कि बरसात के मौसम में भूस्खलन और बादल फटने से आने वाली बाढ़ के साथ रहना पर्वतवासियों की नियति बन चुका है।

वर्ष 2013 में केदारनाथ और सात फरवरी, 2021 को चमोली जिले में रैणी व तपोवन क्षेत्र में ग्लेशियर टूटने के कारण ऋषिगंगा और धौली गंगा में आई बाढ़ पहाड़ों के लिए प्रकृति के बड़े चेतावनी भरे संदेश थे। उत्तराखंड में इस साल की त्रासदी ज्यादातर बारहमासी सड़क के निर्माण और सड़कों के चौड़ीकरण से हो रही है। गरम होती धरा में हिमालयी हिमनदों पर आया संकट, हिमखंडों के टूटने से फ्लैश फ्लड (अचानक बाढ़ आना) आम है। पहाड़वासी बरसातों और फ्लैश फ्लड की विभीषिका के बीच जी रहे हैं। चिंता इसी पर केंद्रित रहती है कि कहीं अचानक अस्तित्व में आई झीलें टूटकर जल प्रलय न ले आएं। जमीनी अनुभव यह भी है कि पहाड़ों में काफी नीचे के गदेरों या नदी घाटियों में अस्थायी अवरोधों से कोई झील बन जाती है, तो वे ऊंचाइयों पर बने भवनों, खेतों, सड़कों में आई दरारों व उनके ढहने व भू-धंसाव का कारण भी बन जाती हैं।

जैसे, जुलाई, 2021 में चमोली जिले में नारायणबगड़ क्षेत्र में दो गांवों गड़कोट और अंगोठ के बीच नीचे बहने वाले गढनी गदेरा-बरसाती नाले में भूस्खलन से झील बनने व उसके बढ़ते जलस्तर के कारण इन गांवों के मकानों में दरार आ गई थी। 1992 में इसी गदेरे में आई बाढ़ से गडीनी बाजार खत्म हुआ था और 14 लोगों की जान गई थी। सामान्य समय में भी मानवकृत बांध और जलाशयों से परिधि क्षेत्रों में भू-कटाव, भू-धंसाव व भूस्खलन की घटनाएं होती हैं। फ्लैश फ्लड से भू-धंसाव, भू-कटाव व भूस्खलन तीनों समस्याएं उपजती हैं। भू-कटावों से सड़कों के आसपास बड़े-बड़े पेड़ों की नंगी जड़ें आपको हवा में झूलती दिख जाएंगी, क्योंकि बहता पानी उनकी जड़ों की मिट्टी को बहा चुका होता है। ऐसा ही पहाड़ों में मकानों के साथ उनकी नींव के नीचे जमीन के कटाव या क्षरण से भी होता है। मकान, भवनों, होटलों की नींवें हवा में झूलती दिख जाएंगी, ऐसे भवन देर-सबेर गिरेंगे ही। पहाड़ी क्षेत्रों में अचानक आने वाली बाढ़ों और भूस्खलनों से होने वाली तबाही की कहानी हर साल दोहराई जा रही है।

सरकारें इस बात को नजरंदाज नहीं कर सकतीं कि अवैध खनन, अवैध वृक्ष पातन और जहां-तहां फेंके जाने वाले मलबे और नदी तटों पर हो रहे अतिक्रमण के कारण जो क्षेत्र आपदा संभावित और पारिस्थितिकीय रूप से संवेदनशील नहीं थे, वे भी अब आपदाग्रस्त और संवेदनशील बन गए हैं। आज भी सरकारों की नाक के नीचे गैर कानूनी ढंग से सड़क निर्माण के कारण निकलने वाला मलबा नदियों में बहाया जाता है। इससे नदियों की अतिवृष्टि के पानी के भंडारण और बहाने की क्षमता कम होती है। जब फ्लड जोन या फिर वनों में अनुमति या बिना अनुमति के अवैध निर्माण होने लगे तो नुकसान और बढ़ जाता है। नुकसान कम करने के लिए जरूरी है कि मलबे और गाद को मनमाने ढंग से निर्माण स्थलों पर न छोड़ा जाए या आसपास की नदियों और नालों में न बहाया जाए। इनके निष्पादन का तरीका ढूंढ़ा जाना चाहिए। परियोजनाओं के मलबा निस्तारण को तो पूर्व नियोजित किया जा सकता है। पहाड़ों में विकास जलागम आधारित होना चाहिए। जलागमों की अनदेखी से भू-क्षरण व भू-कटाव के जोखिम व अतिवृष्टि से नुकसान भी बढ़ जाते हैं।

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