राष्ट्रनायक न्यूज

Rashtranayaknews.com is a Hindi news website. Which publishes news related to different categories of sections of society such as local news, politics, health, sports, crime, national, entertainment, technology. The news published in Rashtranayak News.com is the personal opinion of the content writer. The author has full responsibility for disputes related to the facts given in the published news or material. The editor, publisher, manager, board of directors and editors will not be responsible for this. Settlement of any dispute

गुमनामी: इतिहास के पन्नों में दफन हो गए मोकामा को मुकाम देने वाले प्रफुल्ल चाकी, जानें कौन थे ये क्रांतिकारी

राष्ट्रनायक न्यूज।
मोकामा का इतिहास तलाशें, तो उसमें क्रांतिकारी शहीद प्रफुल्ल चाकी कहीं नहीं हैं। हावड़ा-पटना रेलवे लाइन के इस बड़े स्टेशन पर भी कोई ऐसा निशान नहीं, जो एक मई, 1908 के उस इतिहास का साक्ष्य प्रस्तुत कर सके, जिसे चाकी ने अपने रक्त से अंकित कर दिया था। रेल प्रशासन यहां मुख्य दीवार पर चाकी की एक तस्वीर तो लगा ही सकता था। ऐसा नहीं कि मोकामा के कुछेक लोगों ने सत्ताधारियों और सरकारी कार्यप्रणाली पर कुंडली मारे बैठे हुक्मरानों का इस ओर ध्यान आकर्षित नहीं किया, पर वहां चाकी को कौन जाने! मैं यहां कई लोगों से प्रफुल्ल चाकी का नाम पूछता हूं। पर वे मेरे सवाल पर भौंचक्के तथा निरुत्तर हैं। चाकी की बलिदान-कथा का यहां कोई अर्थ नहीं है। गाड़ियों की उद्घोषणाओं के मध्य क्रांति का वह बीत चुका लम्हा किसी की दम तोड़ती आहों की मानिंद मानो खामोशी की चादर ओढ़कर बहुत गुमसुम हो चुका है। चाकी मोकामा के रहने वाले नहीं थे, पर वह अपनी शहादत देने इसी धरती पर आए। क्या इसके लिए मोकामा के लोगों को उनका ऋणी नहीं होना चाहिए कि वह अपने प्राण देकर क्रांतिकारी संग्राम के इतिहास में मोकामा को एक मुकाम सौंप गए?

मुझे नहीं पता कि बांग्लादेश में उनके जन्मस्थान बोगुरा जिले के बिहार गांव में चाकी की याद अब किसी को है अथवा नहीं। वहां का कोई मिले, तो उस जमीन पर उनके नाम की बची-खुची इबारत की निशानदेही करूं। क्या बिहार गांव से चलकर किसी ने कभी मोकामा की मिट्टी को स्पर्श किया होगा? जिस स्थान पर चाकी शहीद हुए, वह सरकार के कब्जे में है। तब फिर वहां चाकी का स्मारक बनाने की अनुमति अब तक क्यों नहीं दी जा सकी? चाकी की प्रतिमा स्थापित होती, तो इससे रेलवे स्टेशन और मोकामा शहर, दोनों का गौरव बढ़ता।

10 दिसंबर, 1888 को जन्मे प्रफुल्ल चाकी उर्फ दिनेश चंद्र रॉय मृत्यु के समय उम्र के 20 साल भी पूरे नहीं कर पाए थे। चाकी के पिता राजनारायण तो उनकी पैदाइश के कुछ समय बाद ही नहीं रहे थे। मां स्वर्णमयी ने अकेले ही उन्हें पाला-पोसा। बोगुरा के नवाब के यहां नौकरी करने वाले उनके पिता और मां ने भी सोचा न होगा कि उनका बेटा इंकलाब के रास्ते पर चलते हुए देश की आजादी के लिए कम उम्र में ही शहीदों की टोली में जा मिलेगा। चाकी जब सत्रह वर्ष के थे, तभी बंगाल का विभाजन हुआ और वह उसके विरोध में उठ खड़े हुए। आंदोलन का हिस्सेदार बनने के कारण उन्हें स्कूल से निकाल दिया गया। फिर वह ‘युगांतर’ दल से जुड़कर क्रांति कर्म में संलग्न हो गए। उसके बाद ही किंग्सफोर्ड पर हमले के बड़े विप्लवी अभियान में उन्हें खुदीराम बोस का साथ मिला था।

याद आता है कि एक समय शहीद प्रफुल्ल चंद्र चाकी स्मारक समिति भी बनी और उसकी ओर से दिल्ली के गांधी शांति प्रतिष्ठान में वर्ष 2006 में एक श्रद्धांजलि सभा का भी आयोजन किया गया, जिसमें मोकामा के सांसद की मौजूदगी में चाकी की प्रतिमा के साथ ही उन पर डाक टिकट भी जारी करने की मांग की गई। चाकी फिर भी विस्मृत और अबूझ ही बने रहे। सुना कि उन पर डाक टिकट जारी हुआ, लेकिन वह देखने में नहीं आया। मोकामा में उनका बुत नहीं लगा, जबकि कोलकाता के विनय-बादल-दिनेश बाग में उनकी प्रतिमा स्थापित है। यह उस शहर की शहीद के प्रति कृतज्ञता है। चाकी के बारे में यह भी स्मरण किया जाना चाहिए कि शहीद होने के बाद पुलिस उपनिरीक्षक एनएन बनर्जी उनका सिर काटकर उसे पहले मुजफ्फरपुर जेल में बंद खुदीराम के पास ले गए थे। वह पुलिस के हिंदुस्तानी सिपाही की निर्ममता का जघन्य नमूना था। खुदीराम ने देखते ही चाकी के सिर को प्रणाम किया। बस, शिनाख्त पूरी हो गई। फिर उस सिर को सबूत के तौर पर मुजफ्फरपुर की अदालत में भी पेश किया गया। मुझे नहीं पता कि चाकी का वह सिर बाद में कहां ले जाकर दफनाया, जलाया या नष्ट कर दिया गया।

हां, मुझे इतना पता है कि 1919 के रॉलेट बिल के सिलसिले में बगावत फैलाने और अस्थायी भारत सरकार का काम सुचारु रूप से चलाने के लिए एक कार्यसमिति बनाई गई थी, जिसका नाम ‘अंजुम-ए-इत्तिहाद व तरक्की-ए-हिंद’ रखा गया। उसमें कोई डॉ. घोष कांग्रेस के नाम से कार्य करते थे। वह 1917 में बिहार में गांधी से मिल चुके थे और हर साल कलकत्ता जाते हुए मोकामा में उस जगह फूलों का हार रखते थे, जहां पुलिस के हाथों गिरफ्तार होने से पहले चाकी ने अपने ऊपर प्रहार कर लिया था। चाकी का जो एक चित्र उपलब्ध है, उसमें उनका शांत चेहरा, आंखें मुंदी और होंठ जैसे दृढ़ संकल्प से कसे हुए हैं। कंधे से कुछ नीचे तक का शरीर नग्न दिखाई पड़ रहा है। गले पर कटे का निशान है। शायद उनके शव का चित्र लिया गया होगा। चाकी तो अमर हो गए और उनके जुनून का वह निर्णायक पल भी इतिहास में सुर्खरू होकर दर्ज हो गया, जब क्रांति के उस संग्रामी ने रण के मध्य जीवन और मरण में से किसी एक का चुनाव कर लिया था। निश्चय ही तब उसे मृत्यु अधिक सार्थक लगी होगी। उसके भीतर की क्रांतिकारी चेतना ने ही उसे इस शक्ति से समृद्ध किया होगा कि वह अपने समय का निर्णायक हो सके। स्टेशन पर आवाजाही और यात्रियों का शोर-गुल चरम पर है। ट्रेन आने-जाने की आवाजें कोलाहल रच रही हैं। पर मेरे भीतर चाकी की स्वयं पर चलाई गई अंतिम गोली का विस्फोट गूंजता है और इतिहास का वह लम्हा मानो हवा में स्पंदित होने लगा है। ट्रेन प्रस्थान करने लगी है। दूर छूटती जा रही मोकामा की धरती को मैं प्रणाम करता हूं।