राष्ट्रनायक न्यूज।
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने पंद्रह अगस्त को दिए अपने भाषण में भारत को खाद्य तेलों के क्षेत्र में आत्मनिर्भर बनाने के लिए पाम आॅयल (खजूर या ताड़ के तेल) को बढ़ावा देने की घोषणा की थी। इसके बाद इसी क्रम में केंद्रीय मंत्रिपरिषद ने 11,000 करोड़ रुपये के पैकेज की घोषणा कर दी। भारत पिछले काफी समय से खाद्य तेलों का आयात कर रहा है। इसका प्रमुख कारण देश में लगातार बढ़ रही खाद्य तेलों की मांग है। वर्ष 2011-12 में खाद्य तेलों की खपत भारत में एक करोड़ 80 लाख टन थी। प्रति व्यक्ति खाद्य तेल की खपत इसी वर्ष 16 लीटर प्रति व्यक्ति/प्रति वर्ष थी, जो कि 2016 में बढ़कर 18 लीटर प्रति व्यक्ति/प्रति वर्ष हो गई। वर्ष 2020 में भारत ने एक करोड़ 841 लाख टन खाद्य तेलों का आयात किया। ये आयात मलयेशिया और इंडोनेशिया से किया गया।
एग्रो-बिजनेस समूहों ने सरकार की इस नीति का दिल खोलकर स्वागत किया है। ‘राष्ट्रीय खाद्य तेल मिशन’ भारत सरकार का खाद्य तेलों की आपूर्ति हेतु आयात पर निर्भरता घटाने का एक प्रमुख प्रयास है। इससे पहले, 1990 के दशक में इस मिशन को ‘पीली क्रांति’ कहा गया था, जिसका प्रमुख उद्देश्य था, तिलहन उत्पादन को बढ़ावा देना। भारत में मुख्य तौर पर मूंगफली, सरसों, सोयाबीन या सूरजमुखी का तेल खाद्य तेल के रूप में उपयोग किया जाता है। इन तिलहनों का उत्पादन गुजरात, मध्यप्रदेश, आंध्र प्रदेश, राजस्थान, कर्नाटक जैसे उन राज्यों में अधिक है, जहां सिंचाई के साधन प्रचुर मात्रा में उपलब्ध नहीं हैं। तिलहन कम वर्षा वाले क्षेत्रों की प्रमुख फसल है और ऐसे क्षेत्रों के छोटे और सीमांत किसानों की आय और खाद्य सुरक्षा का प्रमुख साधन है। सरकार के इन प्रयासों का परिणाम हुआ कि भारत में तिलहन उत्पादन में काफी वृद्धि देखी गई, पर खाद्य तेलों की मांग में भी बढ़ोतरी हुई। ऐसे में पारंपरिक तिलहन की बढ़ती पैदावार पर्याप्त नहीं थी।
यही कारण है कि भारत अपनी जरूरतें आयात से पूरी कर रहा है। खाद्य तेल के आयात पर इसी निर्भरता को कम करने के उद्देश्य से प्रधानमंत्री ने खजूर की खेती को बढ़ावा देने की बात की है, पर भारतीय परिस्थितियों में और खजूर तेल के वैश्विक अनुभवों को देखते हुए यह कार्यक्रम एक नई भूल साबित हो सकता है। श्रीलंका ने खजूर की खेती पर प्रतिबंध लगा दिया है और सरकारी निदेर्शों के अनुसार पुराने पेड़ों को भी उखाड़ा जा रहा है। इंडोनेशिया, जो कि खजूर की खेती से फायदा उठाने वाला सबसे बड़ा देश रहा है, ने 2018 में खजूर की किसी भी नई खेती की अनुमति पर तीन वर्ष के लिए रोक लगा दी थी। इसका सबसे बड़ा कारण है, खजूर की खेती के पर्यावरण पर पड़ने वाले हानिकारक प्रभाव। भारत सरकार की नई घोषणा के अनुसार उत्तर-पूर्व के राज्यों में पाम की खेती को बढ़ावा दिया जाएगा। इसके लिए वहां के जंगलों का इस्तेमाल किया जाएगा।
इस प्रकार जहां एक ओर इसका प्रभाव सीधे जंगलों के विनाश के रूप में पड़ेगा, वहीं दूसरी ओर इससे उत्तर-पूर्व के राज्यों की जैव-विविधता को भी नुकसान होगा। उत्तर-पूर्व के राज्य भारत में सबसे अधिक जैव-विविधता वाले क्षेत्रों में से एक हैं। वहां 57 विविध प्रकार के जंगल हैं। वे राज्य सिट्रस फलों के जनक और करीब 850 से भी अधिक पक्षियों की प्रजातियों के घर हैं। इसी प्रकार उत्तर-पूर्व के जंगल ऐसी बेशकीमती जड़ी-बूटियों का भी घर हैं, जिनका इस्तेमाल दवाइयों में होता है। खजूर की खेती जंगलों के लिए विध्वंसक है।
इसका सीधा उदाहरण इंडोनेशिया में पिछले चार दशकों में हुए जंगलों के विनाश में देखा जा सकता है। इंडोनेशिया ने 2020 में 11,549.5 करोड़ हेक्टेयर जंगल खो दिया है। भारतीय घरों में अभी तक खाने में खजूर के तेल का उपयोग न के बराबर है, परंतु इस सरकारी नीति के बाद यह पारंपरिक तिलहनों को विस्थापित कर सकता है। ऐसे में किसानों की बाजार पर निर्भरता बढ़ना स्वाभाविक है। यह त्रासदी ही है कि भारत में सरकारों ने हरित क्रांति के विनाशकारक प्रभावों से अभी तक सीख नहीं ली है और अन्य देशों से आयात किए गए कृषि विचारों को भारतीय परिस्थितियों में थोपने के प्रयास आज भी जारी हैं।
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