राष्ट्रनायक न्यूज।
पिछले दिनों मात्र चालीस साल की उम्र में अभिनेता सिद्धार्थ शुक्ला का निधन हो गया। उसका कारण दिल का दौरा बताया गया। इससे पहले अभिनेता सुशांत सिंह राजपूत की आत्महत्या सुर्खियों में रही थी। इसी तरह अरसा पहले सिल्क स्मिता, स्मिता पाटिल, विवेका बाबाजी जैसे सितारों की मौत चर्चा में रही थी। आम लोग फिल्म और ग्लैमर की चमकीली दुनिया को आश्चर्य और ईर्ष्या से देखते हैं और इन जैसा जीवन जीने के सपने पालते हैं। लेकिन वहां की मुश्किलें मखमली पर्दों के नीचे इस तरह से छिपी रहती हैं कि अक्सर सामने ही नहीं आतीं। मुश्किलों की थोड़ी-बहुत चर्चा तभी होती है, जब कम उम्र में इस तरह की मौतें सुनाई देती हैं। सफलता अपने साथ बहुत चुनौतियां भी लाती है।
सफल जीवन में हमेशा विफलता का डर सताता रहता है। सफलता को बनाए रखने के लिए न जाने कितनों के चंगुल में फंसना पड़ता है। सुशांत सिंह राजपूत और सिद्धार्थ शुक्ला फिल्मी दुनिया से नहीं आए थे। वे अपनी सफलता, जिसके साथ बड़ी पूंजी का भी संबंध है, हर हाल में बनाए रखना चाहते होंगे। लेकिन विफलता की कल्पना ही कितनी जानलेवा और तनाव भरी हो सकती है कि जान ले लेती है। अफसोस यह है कि इन दिनों कोई भी विफलता, तनाव, दुख और निराशा से निपटना नहीं सिखाता। जब से यूरोप-अमेरिका के मानकों के अनुसार यह बात चली है कि बच्चे से कभी कुछ न कहा जाए, तब से बच्चे और युवा विफलता और तनाव से निपटना ही जैसे भूल चुके हैं। ये आशा उनमें कभी होती ही नहीं कि कभी तो अच्छे दिन आएंगे, कभी तो निराशा के बादल छंटेंगे। यह जो आज नहीं, अभी और इसी सेकंड में अगर कुछ नहीं कर पाएंगे, तो समझो अवसर गया की सोच ने न केवल जीवन में, बल्कि हमारे मन में ऐसी प्रतिस्पर्धा पैदा कर दी है, जहां हमेशा बस जीतना ही है। इस दुनिया में हारने वाले की कोई जगह नहीं। इसीलिए कभी खबर आती है कि एक बच्ची इसलिए मर गई कि स्कूल की फीस के पैसे नहीं थे।
एक लड़के ने इसलिए फांसी लगा ली कि आॅनलाइन जुए में चालीस हजार रुपये हार गया। कोई प्रेम में विफल होने पर जान गंवा बैठा। आखिर अपने युवाओं को हम कैसे बताएं कि अगर आज विफल हो, तो कोई बात नहीं, कल सफल हो सकते हो। न सही वह करियर, जो तुम चाहते थे, कोई और करियर तुम्हारी राह देख रहा है। लेकिन समझाए भी तो कौन? इन दिनों तो हर आदमी समय की कमी का रोना रोता है। वैसे भी घर से बेहतर पाठशाला कोई हो नहीं सकती। जो पाठ आप बचपन में पढ़ते हैं, उन्हें कभी नहीं भूलते। जब हमारे परिवारों में चाचा-चाची, ताई-ताऊ, बुआ आदि होते थे, तब परिवार का हर बड़ा सदस्य बच्चे को किसी न किसी बात पर टोकता था। ये जीवन के वे पाठ थे, जो चुनौतियों का सामना करना सिखाते थे।
कोई बात अच्छी न लगे, तो भी वह इतनी बड़ी नहीं होती थी कि आत्महत्या के लिए प्रेरित करे। सिर्फ ग्लैमर की दुनिया की बात नहीं है। अब तो परीक्षाओं के दौरान बच्चों के तनाव की बात सामने आती है। कुछ साल पहले तमिलनाडु में एक सर्वेक्षण के दौरान पाया गया था कि संयुक्त परिवारों की तुलना में एकल परिवारों के बच्चों को परीक्षाओं के समय ज्यादा तनाव होता है। वर्ष 2014 में एनसीआरबी की रिपोर्ट में बताया गया था कि तमिलनाडु में परीक्षा की चिंता के कारण आत्महत्या करने वाले छात्रों की संख्या देश में सबसे ज्यादा है। सोचिए कि भला ऐसा क्यों होता है! सिर्फ बच्चों को ही नहीं, बल्कि युवाओं को भी घर में ऐसा माहौल चाहिए, जहां कोई उनकी सुनने वाला हो। कहीं वे परेशानी में हों, तो परिवार का कोई व्यक्ति यह कहे कि कोई बात नहीं, अभी जो चाहा, वह नहीं मिला, तो इससे भविष्य खत्म नहीं हो गया है। जीवन में पाने के लिए बहुत कुछ है। जिन परिवारों में दादा-दादी होते हैं, वहां आपने देखा होगा कि जब बच्चे को माता-पिता से डांट पड़ती है, तो दादी-दादा उसे बचा लेते हैं। यही होता है भावनात्मक सहारा, जिसके जरिये हर तरह के तनाव और चिंताओं से निपटा जा सकता है।
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