राष्ट्रनायक न्यूज।
अर्थशास्त्री और नीति निमार्ता पैरवी करते हैं कि आर्थिक बहाली का रास्ता बुनियादी ढांचे में सरकार के बढ़े हुए खर्च के साथ पक्का किया जाना चाहिए। स्वतंत्रता दिवस को घोषित सौ लाख करोड़ रुपये का बुनियादी ढांचे से जुड़ा कार्यक्रम ‘गति शक्ति भारत मास्टर प्लान’ इसी विश्वास पर टिका है। धारणा यह है कि बुनियादी ढांचे में सरकार के निवेश से मांग, रोजगार सृजन, आय, खपत और वृद्धि बढ़ेगी। इसलिए सवाल यह है कि आयकर दाताओं का पैसा किस दक्षता के साथ खर्च किया जाएगा? सांख्यिकी एवं कार्यक्रम कार्यान्वयन मंत्रालय (एमओएसपीआई) 150 करोड़ रुपये और उससे अधिक लागत वाली केंद्रीय क्षेत्र की परियोजनाओं की स्थिति के बारे में हर तीन महीने में विस्तृत रिपोर्ट जारी करता है। अप्रैल-जून, 2021 की 887 पेज की रिपोर्ट में 1,779 परियोजनाओं के ब्योरे दिए गए हैं। इनमें से 12 परियोजनाएं नियत समय से आगे चल रही हैं, 241 समय पर हैं, 559 विलंब से चल रही हैं और आधे से अधिक 967 परियोजनाओं के पूर्ण होने की मूल या अनुमानित तिथि अज्ञात है। देरी के बारे में रिपोर्ट कहती है कि यह एक माह से लेकर 324 माह तक है।
समय-सीमा पार होने या विलंब होने के कारण लागत बढ़ती है या कहें खर्च बढ़ जाता है- नतीजतन करदाताओं को इसके लिए अधिक धन देना होता है और उन्हें लंबा इंतजार करना पड़ता है। तो फिर विलंब की कीमत क्या हुई? अनुमानत: सरकार के दायरे में देरी को समायोजित करने के लिए लागत की परिभाषाओं को अक्सर पुनर्परिभाषित किया जाता है। लिहाजा एक स्वीकृत लागत होती है और फिर नवीनतम स्वीकृत लागत। स्वीकृत लागत के अनुसार 480 परियोजनाओं की लागत में 61.5 फीसदी की वृद्धि हो चुकी है, जो करीब 4,46,169.37 करोड़ रुपये होते हैं।
करदाताओं पर बढ़ते भारी बोझ के परिप्रेक्ष्य में जरा इस पर गौर करें। 4.46 लाख करोड़ रुपये इस साल की खाद्य सब्सिडी के लिए किए गए आवंटन से अधिक हैं और यह 2021 के गुजरात के बजट खर्च का लगभग दोगुना है। ‘नवीनतम स्वीकृत लागत’ के अनुसार 446 परियोजनाओं की लागत बढ़कर 2,53,571.33 करोड़ रुपये हो गई?— यह इस साल ग्रामीण विकास के लिए प्रस्तावित खर्च का दोगुना है?— और यह 2021-22 के हिमाचल प्रदेश के बजट खर्च का करीब पांच गुना है।
निस्संदेह महामारी ने काम को प्रभावित किया है, पर उसके पहले की तस्वीर भी कोई अलग नहीं थी। 2020 में एमओएसपीआई ने 1,698 परियोजनाएं सूचीबद्ध की थीं, जिनमें से नौ नियत समय से आगे थीं, 231 समय पर, 483 विलंब से और आधे से अधिक 975 परियोजनाओं के पूर्ण होने की मूल अनुमानित तिथि अज्ञात थी। स्वीकृत लागत में 66.7 फीसदी या कहें 4.33 लाख करोड़ रुपये की वृद्धि हो गई, जबकि ‘नवीनतम स्वीकृत लागत’ के अनुसार लागत का बोझ 2.69 लाख करोड़ रुपये बढ़ गया। रिपोर्ट के शब्दचित्र केंद्र और राज्य सरकारों, दोनों के स्तर पर राज्य की क्षमता को उजागर करते हैं। दिल्ली में स्थित ऐसी परियोजनाओं की गाथा, जो जटिल इंजीनियरिंग चुनौतियां भी नहीं हैं, अंदाजा देती हैं कि बाकी जगह क्या स्थिति हो सकती है।
2013 में सरकार ने दिल्ली स्थित लेडी हार्डिंग मेडिकल कॉलेज के पुनर्विकास और विस्तार का प्रस्ताव रखा। 414 करोड़ रुपये की यह परियोजना 90 महीने विलंबित हो गई। इसी तरह से एम्स, दिल्ली में मां और शिशु के इलाज से संबंधित विशेष ब्लॉक के निर्माण की घोषणा दिसंबर, 2013 में की गई थी, जिसमें 46 महीने की देरी हो चुकी है। दिल्ली स्थित सफदरजंग एयरपोर्ट में एक भूतल + तीन मंजिला ब्लॉक के निर्माण में 23 महीने का विलंब हो चुका है, जिसमें डीजीसीए, बीसीएएस, एईआरए, एएआई और एएआईबी के दफ्तर बनने हैं।
राज्यों की तस्वीर तो और भी बदतर है। फरवरी, 2005 में बिहार के बाढ़ में सरकार ने एनटीपीसी के तहत 3660 मेगावाट के बिजली संयंत्र की स्थापना का काम शुरू किया था। शुरूआत में इसकी लागत 8,692 करोड़ रुपये थी, जो कि अब 21,300 करोड़ रुपये हो गई है। इस परियोजना को अक्तूबर, 2011 में पूरा हो जाना चाहिए था, लेकिन 141 महीने देरी से अब इसके जुलाई, 2023 में शुरू होने की उम्मीद है। अप्रैल, 2014 में रायबरेली में राष्ट्रीय इस्पात निगम लिमिटेड (आरआईएनएल) के तहत रेल पहियों के निर्माण से संबंधित संयंत्र की स्थापना की घोषणा की गई थी। इसे सितंबर, 2018 में चालू हो जाना चाहिए था। यह परियोजना समय से 36 महीने पीछे है।
जुलाई, 2016 में गोरखपुर में एम्स की स्थापना का काम शुरू किया गया था, जिसे अप्रैल, 2020 तक पूरा होना था। यह अब समय से 18 महीने पीछे है। नानपारा और नेपालगंज के बीच अमान परिवर्तन से संबंधित परियोजना में 66 महीने का विलंब हो चुका है। दूसरी जगहों पर भी तस्वीर बहुत अलग नहीं है। 1996 में महाराष्ट्र के बेलपुर और उरण के बीच 495 करोड़ रुपये की अनुमानित लागत से त्वरित परिवहन परियोजना शुरू की गई थी, जिसे 2004 में पर्ू्ण होना था। 216 महीने विलंब के साथ अब इसकी लागत 2,900 करोड़ रुपये हो सकती है।
दिलचस्प बात यह है कि एक दशक या अधिक समय से देरी के कारण लगभग अपरिवर्तित हैं। मार्च 2013 में, एक रिपोर्ट ने देरी के कारण थे- ‘भूमि अधिग्रहण में देरी, वन विभाग की मंजूरी में देरी, सामग्री की आपूर्ति में देरी, भूगर्भीय घटनाएं, काम की धीमी प्रगति, माओवादी गतिविधियां, वन भूमि का परावर्तन, आरओयू /आरओडब्ल्यू समस्याएं तथा कानून और व्यवस्था इत्यादि।’ जुलाई, 2021 में देरी के कारण ये थे-भूमि अधिगृहण में देरी, वन/पर्यावरण की मंजूरी में देरी, बुनियादी ढांचे की कमी, निविदा में देरी, कानून और व्यवस्था की समस्याएं, भूगर्भीय घटनाएं, संविदात्मक समस्याएं, मंजूरी में देरी इत्यादि।
इस हफ्ते, पीएमओ ने उन परियोजनाओं का विवरण मांगा है, जिनमें काफी देरी हो रही है, ताकि जवाबदेही तय हो सके। यह स्वागत योग्य है, मगर इसके साथ ही शासन में संरचनात्मक मुद्दों की जांच करना भी महत्वपूर्ण है, जिसके चलते देरी होती है। देरी की निरंतरता कानून में बदलाव, मंजूरी के विकेंद्रीकरण और नियमों के सरलीकरण की मांग करती है। सरकार की प्रक्रियाओं की दक्षता को विशेष रूप से इस बात पर मापा जाना चाहिए कि व्यवस्था कैसे परियोजनाओं को पूरा करती है। सरकार की अपनी परियोजनाएं भी नियामकों से मंजूरी के लिए संघर्ष करती हैं, जो कि पारिस्थितिकी तंत्र की सुस्ती को दिखाता है।
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