राष्ट्रनायक न्यूज।
आजकल ज्यादातर बच्चों को मूड स्विंग की समस्या रहती है, वे असंतुलित मानसिकता से ग्रस्त होते जा रहे हैं। वे पल भर में खुश, तो दूसरे ही पल चिड़चिड़े, तनावग्रस्त व मायूस हो जाते हैं। दरअसल, मूड स्विंग का एक बहुत बड़ा कारण मोबाइल का अधिक इस्तेमाल है। जो बच्चे स्मार्टफोन पर हमेशा अलग-अलग तरह की एप्लिकेशन ट्राई करने में बिजी रहते हैं। कोरोना महामारी के लॉकडाउन के कारण स्कूली शिक्षा आॅनलाइन हुई तो अभिभावकों ने छोटे-छोटे बच्चों को स्मार्टफोन थमा दिये और वे इंटरनेट की दुनिया एवं इंटरनेट गेमों से जुड़ गये। ये गेम एवं इंटरनेट की बढ़ती लत बच्चों में अनेक विसंगतियों, मानसिक असंतुलन, विकारों एवं अस्वास्थ्य के पनपने का कारण बनी है, यह आदत बच्चों को एकाकीपन की ओर ले जाती है। बच्चे धीरे-धीरे अपनी पढ़ाई और सामाजिक हकीकत से दूर होकर आभासी दुनिया के तिलिस्मी संसार में रमते जा रहे हैं। यह नये बनते समाज के लिये बहुत ही चिन्ता का विषय है।
इसी चिन्ता के मद्देनजर साइबर मीडिया रिसर्च (सी.एम.आर.) ने ‘स्मार्टफोन और मानव संबंध’ विषय पर सर्वेक्षण करके एक नई रिपोर्ट तैयार की है, जिसमें बच्चों के जीवन से जुड़े अनेक चौकाने वाले तथ्य प्रस्तुत किये गये हैं। इसमें रेखांकित किया गया है कि स्मार्टफोन पर बिताया जाने वाला औसत समय कोविड के बाद के युग में खतरनाक स्तर पर बना हुआ है, क्योंकि पूर्व कोविड अवधि से स्मार्टफोन पर बिताए गए समय में 32 प्रतिशत की वृद्धि हुई है। जहां 85 प्रतिशत माता-पिता महसूस करते हैं कि उनके बच्चों को सामाजिक परिवेश में अन्य बच्चों के साथ घुलना-मिलना मुश्किल है और कुल मिलाकर बाहरी अनुभव कठिन है। मोबाइल पर कुल निर्भरता बढ़ गई है। लोग अपने फोन का इस्तेमाल खाना खाते समय 70 फीसदी, लिविंग रूम में 72 फीसदी और यहां तक कि परिवार के साथ बैठकर 75 फीसदी उपयोग करते हैं। शीर्ष 8 भारतीय शहर जिनमें नई दिल्ली, मुंबई, कोलकाता आदि शामिल हैं, यह सर्वेक्षण किया गया है।
दिलचस्प बात यह है कि रिपोर्ट में यह भी बताया गया है कि बच्चों और परिवार के साथ बिताया जाने वाला समय सामान्य रूप से बढ़ गया है, लेकिन बिताए गए समय की गुणवत्ता बिगड़ गई है। कम से कम अस्सी प्रतिशत स्मार्टफोन उपयोगकर्ता अपने फोन पर तब भी होते हैं, जब वे अपने बच्चों के साथ समय बिता रहे होते हैं और 75 प्रतिशत अपने स्मार्टफोन से विचलित होने और बच्चों के साथ रहते हुए भी ध्यान नहीं देने की बात स्वीकार करते हैं। कम से कम 69 प्रतिशत माता-पिता का मानना है कि जब वे अपने स्मार्टफोन में डूबे रहते हैं तो वे अपने बच्चों, परिवेश पर ध्यान नहीं देते हैं और 74 प्रतिशत मानते हैं कि जब उनके बच्चे उनसे कुछ पूछते हैं तो वे चिढ़ जाते हैं।
आज के दौर में स्मार्टफोन हमारी जरूरत बन गया है। एक तरफ जहां इसके काफी फायदे हैं, वहीं इससे कुछ नुकसान भी हैं। मोबाइल से निकलने वाले रेडिएशन को घातक बताया जाता है। रोजाना 50 मिनट तक लगातार मोबाइल का इस्तेमाल करने से दिमाग की कोशिकाओं को नुकसान पहुंच सकता है। जिससे कैंसर एवं ब्रेन ट्यूमर जैसा खतरनाक रोग होने की संभावना रहती है। हालांकि, एक्सपर्ट्स के मुताबिक अभी तक किसी भी रिसर्च में यह सिद्ध नहीं हो पाया है कि किसी व्यक्ति को कैंसर या ब्रेन ट्यूमर या कोई दूसरी घातक बीमारी मोबाइल रेडिएशन के कारण हुई हो।
आजकल स्मार्टफोन तो बच्चों का खिलौना हो गया है, दिनोंदिन हाईटेक होती टेक्नोलॉजी और उसकी आसान उपलब्धता के कारण बच्चों के पढ़ने का तरीका भी बदल गया है। अब वे हमारी और आपकी तरह पढ़ने के लिए दिमाग ज्यादा खर्च नहीं करते, क्योंकि इंटरनेट के कारण एक क्लिक पर ही उन्हें सारी जानकारी मिल जाती है, तो उन्हें कुछ भी याद रखने की जरूरत नहीं पड़ती। मैथ्स के कठिन से कठिन सवाल को मोबाइल, जो अब मिनी कॉम्प्यूटर बन गया है कि मदद से सॉल्व कर देते हैं। अब उन्हें रफ पेपर पर गुणा-भाग करने की जरूरत नहीं पड़ती, इसका नतीजा ये हो रहा है कि बच्चे नॉर्मल तरीके से पढ़ना भूल गए हैं। साधारण-सी कैलकुलेशन भी वो बिना कैलकुलेटर के नहीं कर पाते।
बच्चों के हाथ में मोबाइल होने के कारण उनका दिमाग हर समय उसी में लगा रहता है। कभी गेम्स खेलने, कभी सोशल साइट्स, तो कभी कुछ सर्च करने में यानी उनके दिमाग को आराम नहीं मिल पाता। दिमाग को शांति व सुकून न मिल पाने के कारण उनका व्यवहार आक्रामक हो जाता है। कभी किसी के साथ साधारण बातचीत के दौरान भी वो उग्र व चिड़चिड़े हो जाते हैं। ऐसे बच्चे किसी दूसरे के साथ जल्दी घुलमिल नहीं पाते, दूसरों का साथ उन्हें असहज कर देता है। बच्चें हमेशा अकेले रहना ही पसंद करते हैं। बच्चों के दिमाग में हमेशा मोबाइल ही घूमता रहता है, जैसे- फलां गेम में नेक्स्ट लेवल तक कैसे पहुंचा जाए? यदि सोशल साइट पर है, तो नया क्या अपडेट है? आदि। इस तरह की बातें दिमाग में घूमते रहने के कारण वो अपनी पढ़ाई पर ध्यान नहीं दे पातें। जाहिर है ऐसे में उन्हें पैरेंट्स व टीचर से डांट सुननी पड़ती है। बार-बार घर व स्कूल में शमिंर्दा किए जाने के कारण वो धीरे-धीरे तनावग्रस्त भी होने लगते हैं। नतीजतन पढ़ाई और बाकी चीजों में वो पिछड़ते चले जाते हैं। आभासी दुनिया में खोए रहने के कारण उनकी सोशल लाइफ बिल्कुल खत्म हो जाती है, जो भविष्य में उनके लिए बहुत खतरनाक साबित हो सकता है।
गतदिनों दिल्ली उच्च न्यायालय ने केंद्र सरकार से कहा कि वह बच्चों को आॅनलाइन गेम की लत से बचाने के लिए राष्ट्रीय नीति बनाने पर गंभीरता से विचार करें। दरअसल, बच्चों के बीच आॅनलाइन गेम खेलने की लत अब एक व्यापक समस्या बनती जा रही है, इसके घातक परिणाम भी सामने आ रहे हैं और लोगों के बीच इसे लेकर चिंता बढ़ रही हैं। आज इंटरनेट का दायरा इतना असीमित है कि अगर उसमें सारी सकारात्मक उपयोग की सामग्री उपलब्ध हैं तो बेहद नुकसानदेह, आपराधिक और सोचने-समझने की प्रक्रिया को बाधित करने वाली गतिविधियां भी बहुतायत में मौजूद हैं। आवश्यक सलाह या निर्देश के अभाव में बच्चे आॅनलाइन गेम या दूसरी इंटरनेट गतिविधियों के तिलिस्मी दुनिया में एक बार जब उलझ जाते हैं तो उससे निकला मुश्किल हो जाता है।
पांच वर्ष से अठारह वर्ष के बच्चों में मोबाइल या टेक्नोलॉजी एडिक्शन की लत बढ़ रही है, जिनमें स्मार्ट फोन, स्मार्ट वॉच, टैब, लैपटॉप आदि सभी शामिल हैं। यह समस्या केवल भारत की नहीं, बल्कि दुनिया के हर देश की है। ऐसे अनेक रोगी बच्चें अस्पतालों में पहुंच रहे हैं, जिनमें इस लत के चलते बच्चे बुरी तरह तनावग्रस्त थे। कुछ दोस्त व परिवार से कट गए, कुछ तो ऐसे थे जो मोबाइल न देने पर पेरेंट्स पर हमला तक कर देते थे। बच्चे आज के समय में अपने आप को बहुत जल्दी ही अपनी उम्र से ज्यादा बड़ा महसूस करने लगे हैं। अपने ऊपर किसी भी पाबंदी को बुरा समझते हैं, चाहे वह उनके हित में ही क्यों ना हो।
इंटरनेट की यह आभासी दुनिया ना जाने और कितने सूरज व छोटे बच्चों को अपनी जाल में फंसाएगी और उनका जीवन तबाह करेगी। बच्चों के इंटरनेट उपयोग पर निगरानी व उन्हें उसके उपयोग की सही दिशा दिखाना बेहद जरूरी है। यदि मोबाइल की स्क्रिन और अंगुलियों के बीच सिमटते बच्चों के बचपन को बचाना है, तो एक बार फिर से उन्हें मिट्टी से जुड़े खेल, दिन भर धमा-चौकड़ी मचाने वाले और शरारतों वाली बचपन की ओर ले जाना होगा। ऐसा करने से उन्हें भी खुशी मिलेगी और वे तथाकथित इंटरनेट से जुड़े खतरों से दूर होते चले जाएंगे। इंटरनेट के बढ़ते प्रयोग की वजह से साइबर अपराधों की संख्या भी बढ़ रही है। हमारी सरकार एवं सुरक्षा एजेंसियां इन अपराधों से निपटने में विफल साबित हो रही हैं।
ललित गर्ग
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