अभी तो कई विकास दूबे हैं सत्ता के पालने में !
लेखक- अहमद अली
2 जुलाई की घटना, जिसमें आठ पुलिस शहीद हो गये थे, के बाद उत्तर प्रदेश के चप्पे-चप्पे पर पुलिस तैनात थी। कोई परीन्दा भी पर नहीं मार सकता था। फिर विकास दूबे किस गली से पार कर गया ? इतना ही नहीं कई राज्यों की सीमाओं को पार करते हुए 600 किलोमीटर से भी अधिक की दूरी तय कर कैसे उज्जैन में महाकाल के शरण में भी पहुँच गया ? पूजा करने के बाद आवाज लगाई, “मैं विकास दूबे हूँ कानपुर वाला” तब वहाँ तैनात पुलिस हरकत में आई और उसे अपने कब्जे में ले लिया। फिर उज्जैन से कानपुर का यात्रा प्रारम्भ होता है। चार गाडि़यों का काफिला पुलिस का और पत्रकार अलग गाडि़यों में। जहाँ दूबे का एनकाउन्टर होता है, वहाँ से कुछ दूर पहले ही शायद सुबह के 6.30 बजे पत्रकारों को रोक दिया जाता है। और 7.00 बजे के करीब विकास दूबे मारा जाता है। एनकाउन्टर की कहानी भी फिल्मी स्टाईल वाला है। अर्थात् एक भैंस को बचाने में गाडी़ पलट गयी। गाडी़ भी ऐसे पलटी थी कि लग रहा था कि उसे आराम से उलट दिया गया है। पुलिस कहती है कि मौके का फायदा उठा कर दूबे ने एक आरक्षी का पिस्तौल छीन कर भागने लगा। रोकने पर उसने गोलियां चला दी। लगभग दो किलोमीटर भाग भी गया था। पीछा करते हुए पुलिस ने गोली चलाई। लेकिन चमत्कार देखिये गोली पीठ पर नहीं लगी, सीधे उसके सीने को छलनी कर गयी। है न रोचक कहानी ! बिल्कुल फिल्मी स्टाईल वाली। अब कुछ प्रश्न भी पैदा हो जाते हैं इसी के साथ, कि एक लंगडा़ आदमी दो किलोमीटर दौर गया ? और हाथ में हथकडी़ के बावजूद पिस्तौल छीनने में कामयाब हो गया ? क्या पुलिस वाले सो रहे थे ? उपरोक्त पूरी कहानी शायद उन्हें भी हजम नहीं होगी जो युपी सरकार के पैरोकार हैं। लेकिन उन्हें अपनी मजबूरियाँ भी हैं। और इसीलिये विपक्ष से जो आवाज आ रही है कि ये सारा खेल उन्हें बचाने के लिये खेला गया जो दूबे के विकास का जरिया थे। नि:संदेह इतना दुःसाहस, कि दबिश के लिये पहूँची पुलिस को मार दे, सत्ता के ऊँचे उहदेदारों के सह के बिना सम्भव नहीं हो सकता। अतः ये संदेह निर्मूल भी नहीं है कि सहदारों, जिनमें बड़े रसूखदार नेता या अफसर भी हो सकते हैं, को बचाने हेतु हीं विकास दूबे का खेल खत्म कर दिया गया।क्योंकि पुलिस बल की शहादत के बाद धराधर सोशल मिडिया पर जो तस्वीरें वायरल हो रही थी, जिनमें थी बडे़-बडे़ राजनेताओं के साथ उसका फोटो, बहुत कुछ बयान कर रही थी। जब सवाल खड़े होने लगे तो बचाव में भी तर्क आने शुरु हो गये कि कोई किसी के साथ फोटो खिचवा सकता है या सेल्फी ले सकता है। यह बचावी तर्क वैसा ही है जैसा यह कहा जाय, कि कोई किसी को भी अपने घर पर दावत दे सकता है। आरोप प्रत्यारोप का दौर चल पड़ा। भाजपा पर आरोप लगे तो भाजपा ने भी एक बैनर का फोटो ढूंढ निकाला, जिसपर विकास की पत्नी (चुनाव का बैनर) के साथ मुलायम सिंह और अखिलेश का फोटो था। चाहे जो भी हो यह तो स्पष्ट है कि विकास की नजदीकियाँ युपी के राजनेताओं से अच्छी खासी थी। 1990 के बाद जो भी सत्ता में आया विकास उसी का हो गया। नेताओं के लिये वोट का जुगार करते रहा, स्वभाविक है संरक्षण भी मिलता रहा उसके बाहूबली से दुर्दांत बनने तक।
यही दुखद पहलू है अपने देश की राजनीति का, कि राजनेता वोटों की सौदागरी में खुंखार अपराधियों के शरण में चले जाते हैं और फिर लोकतंत्र एक मजाक बन कर रह जाता है। ठीक ही किसी ने कहा है, ” भूख इन्सान को गद्दार बना देती है “। सत्ता के गलियारों में ये ‘भूख’ बेरहमी से जनता को लूटती है। किसी को वोट की भूख है, किसी को पावर की भूख है, किसी को शानोशौकत की भूख है तो कोई सत्ता के लिये भूखा भेड़िये का शक्ल अख्तियार कर लेता है।फिर उन रोटी के लिये तरसते भूखों का कौन खोज खबर लेगा ? वोट और सत्ता के भूखों को केवल विकास दूबे और विनय तिवारी ही चाहिये भूख तृप्ति के लिये।
सच्चाई यह भी है कि कुछ अपवादों को छोड़कर यदि देखा जाय तो आज के राजनेताओं को जनता पर भरोसा भी नहीं है। वैसे नेताओं को भरोसा है तो बस जातिवाद, साम्प्रदायवाद और क्षेत्रवाद के साथ ही मनी पावर एंव मसल पावर पर। तो फिर विकास दूबे को पैदा होने से भला कौन रोक सकता है। जी हाँ, जिस दिन जनता अपने वोट की कीमत जान जायेगी उस दिन कोई भी बाहूबली नजर नहीं आयेगा। लेकिन अभी तो कई विकास दूबे हैं सत्ता के पालने में।
(लेखक के अपने विचार है।)
cpmahamadali@gmail.com
संपर्क सूत्र – 9304996703
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