शहीदे-आजम के साथी की पुण्यतिथि पर विशेष: बटुकेश्वर दत्त का सम्मान है बाकी
लेखक: राणा परमार अखिलेश। छपरा
“सिसक रहा लाहौर ननकाना गुरुओं के अरमान है बाकी ।
सरहदों पर शहीदो की शहादत का अरमान है बाकी ।
भगत राजगुरु सुखदेव को दार मुबारक,
अभी बटुकेश्वर दत्त के अवदान का,’राणा’ सम्मान है बाकी।”
जी हाँ अभी तो आजादी मुकम्मल भी नहीं हो पायी है। बापू और चाचा का भारत! बिना खड्ग बिना ढाल का कमाल!! कभी वृद्ध भारत के प्रबुद्ध काल में पैदा हुईं कुमारी पाकिस्तान तो बुद्ध की करूणामूर्ति चीन का धमाल!!! सत्तर साल से हम भारत के लोग झेल रहे हैं गुलामी मानसिकता में कभी हरा, कभी लाल गुलाल । गणतंत्र दिवस व स्वतंत्रता दिवस पर तिरंगा रोहण में उड़ते हुए फूलों की पंखुड़ियां और जन-गण मन हो रहा है ,गुंजायमान । बहरहाल,शहीदे-आजम के साथी बटुकेश्वर दत्त का सम्मान कौन दे। रामराज तो आ गया है। अदन गोंडवी के शब्दों में-
” काजू भुने हैं प्लेट में ह्विशकी गिलास में,
लो राम राज आ गया विधायक निवास में ।”
कहना न होगा कि 15अगस्त 1947 में कथित स्वतंत्रता (ट्रान्फर ऑफ पावर) के साथ ही संविधान व विधान ही नहीं शहीदों व स्वतंत्रता सेनानियों के सम्मान के साथ ‘फ्राॅड’ होता आया है। भगत सिंह, राजगुरु, सुखदेव व बटुकेश्वर दत्त के लाहौर षड्यंत्र कांड का गवाह शोभा सिंह व शादी लाल आजाद भारत के जरदार व रसूखदारों में शुमार रहे। शादीलाल को शामली (पश्चिमी उत्तर प्रदेश) के दुकानदारों ने कफन तक नहीं दी तो दिल्ली से कफन गया और कई चीनी मिलों के मालिक हैं, उसके वंशज ।तो शोभा सिंह सर शोभा सिंह बन बैठे करोड़ों के बेशुमार दौलत दिल्ली कनाट प्लेस स्थित सर शोभा सिंह स्कूल ,शोभा सिंह के पिता सुजान सिंह के नाम पर पंजाब मे कोट सुजान सिंह गांव, शोभा सिंह चैरिटेबल ट्रस्ट और उनके पत्रकार पुत्र खुशवंत सिंह राज्य सभा के सांसद भी रहे किंतु शहीदों के परिजनों व आश्रितों को पूछने वाला भी नहीं है कोई राजनीतिक दल के नेता ।
आज हम कृतघ्न भारतीय याद कर रहे हैं उन शुरमाओं को जिन्हे ब्रितानी हुकूमत व सेक्युलर इतिहासकारों ने आतंकवादी और उग्रवादियों की श्रेणी में रख छोड़ा है। नेताजी सुभाष चन्द्र बोस को ‘युद्ध अपराधी’ अब भी हैं। पंचशील व गुटनिरपेक्षता का परिणाम सामने है। पीओके, अक्साई चिन, लद्दाख, नेपाल आदि में तनाव ।
हम इतिहास से सबक लेना चाहेंगे । साइमन कमीशन के विरोध में लाला लाजपत राय की पिटाई के बाद मौत पर युवाओं की धमकियों का लहू उबलने लगा था और ब्रितानी तानाशाही के मुखालफत में उग्र राष्ट्रवाद ने उन्हें प्रभावित किया । रूस का सफल वोल्सोविक क्रान्ति 1917 का प्रभाव व जापान द्वारा चीन की पराजय सामने था। बहरहाल, युवाओं ने ‘हिन्दुस्तान रिपब्लिकन एशोसिएशन’ नामक संगठन तले विरोध का कार्यक्रम निर्धारित किया। कानपुर में सरदार भगत सिंह, राजगुरु, सुखदेव व बटुकेश्वर दत्त से लेकर चंदशेखर आजाद, रामप्रसाद बिस्मिल, राजेन्द्र लाहरी, अशफाक उल्ला खां, ठाकुर रौशन सिंह आदि का कारवां बिहार तक चल पड़ा । सारण जिला के दिघवारा प्रखंड ग्राम मलखाचक का ‘गाँधी कुटीर ” नरम व गरम दल का केंद्र था। बहरहाल, सरदार भगत सिंह व बटुकेश्वर दत्त सहित उनके साथी अपने संगठन विस्तार के लिए मलखाचक आए थे। मलखाचक के युवक रामदेनी सिंह सारण के एरिया कमंडर बने और योगेन्द्र शुक्ल वैशाली के। उक्त दोनों को फांसी हुई । रामदेनी सिंह को मुजफ्फरपुर जेल में 1932 में फांसी दी गई ।
यद्यपि बटुकेश्वर दत्त के जीवन पर खुदीराम बोस का प्रभाव बचपन में पड़ा था। 8 नवंबर 1910 को बंगाल के ग्राम ओंधाडि, जिला नानी बेदवान में बंगाली कायस्थ परिवार में जन्म बटुकेश्वर उर्फ बीके उर्फ मोहन का बचपन वर्धमान जिला के खांडा व मौसु में व्यतीत हुआ था। उनके पिताजी गोष्ट बिहारी दत्त कानपुर में नौकरी करते थे। लिहाजा, बटुकेश्वर दत्त का नमांकन पीपीएन काॅलेज, कानपुर में हुआ और जहाँ से 1925 में मैट्रिक की परीक्षा पास की। यद्यपि 1924 में ही बटुकेश्वर दत्त का संपर्क सरदार भगत सिंह से हो गया था और सोशल रिपब्लिकन एशोसिएशन का गठन किया गया। संयुक्त प्रांत (यूपी) बिहार तक विस्तार के क्रम में ही 8 अप्रैल 1929 को ‘ नेशनल असेम्बली ‘ ( संसद भवन) में बम विस्फोट व पर्चा वितरण में सरदार भगत सिंह, चंदशेखर आजाद, राजगुरु, सुखदेव आदि का नाम आया। आजाद अंग्रेजों का मुकाबला करते हुए अपनी आखिरी गोली से स्वयं शहादत दी। सरकार भगत सिंह, राजगुरु सुखदेव व बटुकेश्वर दत्त गिरफ्तार हुए । 12 जून 1929 को लाहौर षड्यंत्र कांड की सुनवाई हुई । सरदार भगत सिंह, राजगुरु और सुखदेव को फांसी की सजा सुनाई गई और बटुकेश्वर दत्त को आजीवन कारावास की सजा सुनाई गई । सजा काटने के लिए उन्हें ‘कालापानी’ की काल कोठरी मिली और उन्होने भूख हड़ताल कर दी। 1933 से 1937 तक कालापानी के कष्टमय जीवन झेलत रहे बटुकेश्वर दत्त 1937 में पटना के बांकीपुर केंद्रीय कारागृह स्थानांतरित हुए और 1945 में रिहा हुए । 1947 में उन्होंने अंजलि दत्त से विवाद की और पटना में ही रहने लगे ।कुछ दिन एक सिगरेट कंपनी के एजेंट का काम किया फिर एक छोटा सा बिस्कुट कारखाना खोला लेकिन साथियों का साथ छुटना उन्हें अंदर से तोड़ कर रख दिया था। 1963 में उन्हें बिहार विधान परिषद का सदस्य मनोनीत किया गया और 1965 में गंभीर रूप से बीमार होकर अखिल भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान ,दिल्ली में भर्ती हुए । शहीदे-आजम भगत सिंह की माँ बटुकेश्वर दत्त को देखने आयी थी और 20 जुलाई 1965 को क्रांति का वह मशाल बुझ गया,कदाचित भारतीय राजनीति शहीदों की उपेक्षा, आजाद हिंद फौज के साथ अन्याय और चीन से पराभव उनकी जीवनी शक्ति छीन ली। अंतिम इच्छा अपने तीनो शहीद मित्रों की समाधि के निकट अंतिम संस्कार थी और शहीदे-आजम सरदार भगत सिंह की समाधि स्थल हुसैनवाला में अंतिम संस्कार हुए ।उनके पार्षद मित्र रहे इंद्र कुमार के शब्दों में ‘ दत्त साहब राजनैतिक महत्वाकांक्षा से दूर थे,शांत चित्त थे और देश को वैभव के उतुंग शिखर पर समासीन देखना चाहते थे। बहरहाल, पटना, दिल्ली, कोलकाता में यदि उनके नाम कोई नगर, सड़क, संस्थान है? क्या उनकी समाधि पर दो फूल भी किसी अर्पित की? बहरहाल, हम कलमकार उन्हें अपनी लेखनी से श्रद्धावनत श्रद्धांजलि अर्पित कर रहे हैं ।
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