राष्ट्रनायक न्यूज

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तुर्की व सल्तनतकालीन सैन्य व्यवस्था का सरदार होता था “सरखेलपार”

तुर्की व सल्तनतकालीन सैन्य व्यवस्था का सरदार होता था “सरखेलपार”

  • 13वीं सताब्दी में साप्ताहिक बाजार लगने वाले स्थान को कहते थे “गंज”
  • आखिरकार शोध छात्र मनोज रॉय ने अपने पैतृक गांव के नामकरण की ऐतिहासिक व शाब्दिक अर्थ ढूंढ निकाला

के के सिंह सेंगर। राष्ट्रनायक प्रतिनिधि।

एकमा (सारण)। मांझी प्रखंड के सरखेलपार गांव निवासी मनोज कुमार रॉय चौधरी चरण सिंह विश्वविद्यालय मेरठ के जूनियर रिसर्च फेलो हैं। उनके शोध छात्र के रुप में अपने रिसर्च का विषय “झारखंड से मुंडा महिलाओं का पलायन, एक ऐतिहासिक अध्ययन” रहा है। उन्होंने बचपन से ही अपने गांव “सरखेलपार” के शाब्दिक व ऐतिहासिक अर्थ जानने की प्रबल इच्छा रखते हुए आखिर जिस निष्कर्ष पर पहुंचे हैं, उसे मीडिया के समक्ष भी शेयर किया है। मनोज कुमार रॉय ने बताया है कि बचपन से मेरे गांव “सरखेलपार” के नाम का अर्थ व उसके नामकरण की ऐतिहासिकता जानने की तीव्र उत्सुकता एवं लालसा थी। हर समय मेरे मन में यह सवाल उठता था कि “सरखेलपार” का नाम सरखेलपार कैसे पड़ा होगा?, क्यों पड़ा ? परन्तु जब इसका जवाब नहीं सूझता था तो मज़ाक में परिवार के सदस्यों जैसे भाई-बहन, भतीजा-भतीजी आदि के साथ मिलकर इसका संधि विच्छेद किया करते थे। जैसे: सर, खेल,  यानी “सर के खेल” अर्थात “दिमाग के खेल” को पार कर गया उसे “सरखेलपार” कहते हैं। परन्तु अनुसंधान के दौरान मुझे इसके ऐतिहासिक पक्ष, शाब्दिक अर्थ और प्राचीनता का बोध हुआ। उन्होंने कहा है कि इसके नामकरण का प्रथम साक्ष्य 13वीं शताब्दी में सल्तनतकालीन जियाउद्दीन बरनी की रचनाओं में मिलता है। इन्होंने तुर्की सैन्य वर्गीकरण को स्पष्ट ढंग से उल्लेख किया है। इनके अनुसार मंगोल सेना का वर्गीकरण दशमलव प्रणाली पर आधारित था और इसे ही सल्तनतकालीन सैन्य व्यवस्था में अपनाया गया। बरनी के अनुसार सबसे छोटी सैनिक इकाई “सरखेल” थी। जिसमें 10 चुने हुए “यक-अस्पा” सवार होते थे। एक घोड़ा रखने वाले अश्वारोही सैनिक “यक-अस्पा” कहलाता था। इसे वार्षिक 234 टंका का वेतन मिलता था। यानी 10 सवारों (यक-अस्पा) की एक सैनिक इकाई के सरदार को “सरखेलपार” कहा जाता था। इसी प्रकार इससे बड़ी इकाई “सिपहसालार” होती थी। जिसके अंतर्गत 10 सरखेल शामिल होते थे। इसी तरह शोध छात्र श्री रॉय ने एकमा बाजार नगर पंचायत में स्थित गांव “गंजपर” के नामकरण को भी ऐतिहासिक साक्ष्य के आधार पर  नतकालीन बताया है। उन्होंने बताया है कि 13वीं शताब्दी में “साप्ताहिक” बाजार लगने वाले स्थान को “गंज” कहा जाता था। बहरहाल, शोध छात्र मनोज कुमार रॉय ने ग्रामीण बुजुर्गों सहित नयी पीढी के छात्र-युवाओं के लिए भी इन दो गांवों के नामकरण की गुत्थी सुलझा करके एक मिशाल पेश की है। जिसे प्रो. राजगृह सिंह, भूपेंद्र प्रसाद सिंह, प्रो. अजीत कुमार सिंह, डॉ. सत्यदेव प्रसाद यादव, पत्रकार वीरेंद्र कुमार यादव, डॉ. दिलीप कुमार प्रसाद, नोडल शिक्षक कमल कुमार सिंह, प्रधानाध्यापक अरुण कुमार सिंह, शिक्षक नेता अरविंद कुमार, समाजसेवी सुधांशु रंजन, लोक गायक रामेश्वर गोप आदि के अलावा क्षेत्र के विद्वानों व बुद्धिजीवियों ने भी सराहना करते हुए समर्थन व्यक्त किया है।